हाल ही में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने किसानों को सुझाव दिया कि वे गन्ने की जगह सब्जियों या दूसरी चीजों की खेती करने लगें। मेरे हिसाब से तो उन्होंने सही बात कही। हालांकि, मीडिया में उनकी इस बात की आलोचना की गई कि उन्होंने चीनी उत्पादन का उल्लेख डायबिटीज की बीमारी बढ़ने के संदर्भ में किया। पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि किसानों को एक और वजह से भी गन्ने की खेती से दूर हो जाना चाहिए- गन्ने की फसल में पानी की बहुत ज्यादा खपत होती है।
लेकिन यह भी है कि अगर किसान गन्ने की खेती नहीं छोड़ पा रहे हैं, तो इसके लिए हम केवल उन्हें दोषी नहीं ठहरा सकते। जब तक योगी आदित्यनाथ किसानों के सामने किसी ऐसी वैकल्पिक फसल की योजना नहीं प्रस्तुत करते हैं जो अच्छा मुनाफा भी दे और जिसका निश्चित बाजार भी हो, तब तक उनके इस तरह के सुझाव निरर्थक हैं। न केवल उत्तर प्रदेश बल्कि देश भर में प्रचलित खेती के तौर-तरीकों के बारे में सरकार को दृढ़ नीतिगत निर्णय लेने होंगे ताकि किसान फसलों में विविधता ला सकें। ऐसा करते समय सरकार को वातावरणीय स्थिरता पर ध्यान देना होगा।
गन्ने को बहुत भारी मात्रा में पानी की जरूरत होती है और जिस दर से हर साल इसकी खेती बढ़ती जा रही है उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि बहुत जल्द पश्चिमी उत्तर प्रदेश को सूखे का सामना करना पड़ सकता है। मेरे पास ताजा आंकड़े तो नहीं हैं लेकिन एक दशक पहले भी जिस तरह पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भूजल समाप्त हो रहा था वह स्थिति भयावह थी। 2008 में केंद्रीय भूजल बोर्ड ने 22 ऐसे क्षेत्रों की पहचान की थी जहां पानी का अत्यधिक दोहन हुआ या स्थिति बहुत गंभीर थी, इनमें से 19 पश्चिमी यूपी की गन्ना बेल्ट में स्थित थे। इसी तरह इनसे कम गंभीर स्थिति वाले 53 क्षेत्रों में से भी 28 पश्चिमी उत्तर प्रदेश में थे। यहां जल स्तर पहले ही इतना गिर चुका है कि खेती करना घाटे का सौदा साबित हो चुका है।
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महाराष्ट्र में गन्ना केवल 4 प्रतिशत क्षेत्र में बोया जाता है, लेकिन यह अकेले ही उपलब्ध भूजल के 76 प्रतिशत का उपभोग कर लेता है। गेहूं-चावल देश के सिंचित इलाके का सबसे आम फसल पैटर्न है। दोनों ही फसलों में एक किलोग्राम उत्पाद (गेहूं और चावल) पाने के लिए एक साल में 8,000 लीटर पानी की जरूरत होती है। आप कहेंगे कि यह जल संसाधन की बर्बादी है। अब आपको पता चला कि भूजल का स्तर इतनी तेजी से क्यों गिर रहा है।
पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला के पूर्व कुलपति, डॉ. एस. एस. जोहल ने इसे बड़े असरदार तरीके से समझाया था। मुझे याद है जब पंजाब ने 2003-04 में 1.8 करोड़ टन अधिशेष गेहूं और चावल का निर्यात किया था, उन्होंने एक लेख में लिखा था कि वास्तव में हमने 55.5 ट्रिलियन लीटर पानी निर्यात किया है। घरेलू आबादी को यह सरप्लस अनाज खिलाया जाता तो बात समझी जा सकती है लेकिन इतनी बड़ी मात्रा में दुर्लभ पानी को विदेशों को निर्यात करने की एक सामाजिक और पर्यावरणीय कीमत चुकानी पड़ती है। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि आज पंजाब भूजल के अत्यधिक दोहन का शिकार है।
बहुत से लोगों का यह मानना है कि हमें फौरन अपनी फसल पद्धति बदलने की जरूरत है। दूसरी तरफ, मैंने देखा है कि हमारे नीति निर्माता और व्यापारिक घराने किसानों को बता रहे हें कि वे गेहूं और चावल की जगह नगदी फसलें बोना शुरू कर दें। वह कहते हैं कि किसान गेहूं और चावल की जगह कपास, गन्ना और सजावटी फूलों की खेती करें। पता नहीं कैसे, पर ऐसा मान लिया गया है कि इन फसलों को उगाने से देश के जल संकट का समाधान हो जाएगा।
लेकिन हमारे उद्योग देश को यह नहीं बता रहे हैं कि जो विकल्प वे सुझा रहे हैं उनकी बदौलत बहुत ही कम समय में भूजल सूख जाएगा। कपास की सिंचाई में भी उतना ही पानी लगता है जितना गेहूं और चावल में। गन्ने में इसका चार गुना ज्यादा लगता है, फूलों की खेती के लिए कपास से 20 गुना ज्यादा पानी चाहिए।
हरित क्रांति और अधिक उपज वाली फसल प्रजातियों को अपनाने से भूजल की खपत तेजी से बढ़ी। छोटे किसानों ने धरती की सतह से सैकड़ों मीटर नीचे तक 2.4 करोड़ से ज्यादा ट्यूबवैल खोद डाले। इसकी वजह से जल स्तर खतरनाक रूप से नीचे गिर गया। इसके अलावा, रसायनों के इस्तेमाल से मिट्टी की गुणवत्ता में गिरावट आई।
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संकर और बीटी कॉटन ने भूजल भंडारों को सुखा दिया है, भारत में खेती पर गंभीर संकट मंडरा रहा है। किसान हर साल 200 क्यूबिक किलोमीटर भूजल इस्तेमाल कर रहे हैं। इसका एक अंश भी वापस भूजल भंडारों में नहीं जा रहा है। लेकिन इसमें किसानों का उतना दोष नहीं है जितना नीति निर्माताओं का है। आखिरकार, आज किसान जो उगा रहे हैं उसका प्रचार हमारे कृषि वैज्ञानिकों ने ही तो किया था।
इसके बावजूद, कृषि मंत्रालय जोर-शोर से फसल विविधीकरण की वकालत करते हुए सजावटी फूलों की खेती करने की बात कह रहा है। तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा और गुजरात पहले से ही ऐसा कर रहे हैं। गुलाब, कारनेशन, जरबेरा और दूसरे फूल उगाने के लिए किसानों को रियायतें देकर लुभाया जा रहा है। राज्य सरकारें किसानों को सब्सिडी, तकनीकी जानकारी, फसल कटने के बाद प्रबंधन में सहायता के अलावा वित्तीय मदद भी मुहैया करा रही हैं।
लेकिन मंत्रालय किसानों को यह नहीं बता रहा है कि सजावटी फूलों की खेती से उनकी जमीन से पानी तेजी से खत्म होगा, इससे उनकी जमीन रेगिस्तान में बदलती जाएगी। गुलाब की खेती के लिए औसतन एक एकड़ जमीन में 212 इंच पानी की जरूरत होती है।
दोषपूर्ण फसल पद्धति भारत के जल संकट की एक बड़ी वजह है। इतने बरसों तक देश के शुष्क इलाकों में, जहां देश की कुल कृषि योग्य भूमि का 60 प्रतिशत है, वहां फसलों की संकर प्रजातियां बोई गई हैं। बेशक इन प्रजातियों से उत्पादन ज्यादा होता है लेकिन ये पानी की भी भारी खपत करती हैं।
तुलना के लिए हम चावल का उदाहरण ले सकते हैं। चावल की अधिक उपज देने वाली किस्में आमतौर पर शुष्क इलाकों में एक किलो चावल पैदा करने में 3,000 लीटर पानी का इस्तेमाल करती हैं। हमारी सामान्य समझ बताती है कि देश के सूखे इलाकों में ऐसी किस्में उगानी चाहिए जो कम पानी का इस्तेमाल करें। इसके बावजूद, इसका उलटा हुआ। देश के शुष्क इलाके की कृषि योग्य भूमि के बड़े हिस्से पर चावल की संकर किस्मों की खेती हुई है जो बहुत ज्यादा पानी की मांग करती हैं- इनके एक किलो चावल उगाने में लगभग 5,000 लीटर पानी का इस्तेमाल होता है।
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हैरानी की बात है कि पंजाब में, जहां सिंचाई की अच्छी सुविधा है वहां चावल की केवल अधिक उपज देने वाली किस्मों की खेती होती है जो संकर किस्मों की तुलना में कम पानी लेती हैं। दूसरी तरफ, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक के सूखाग्रस्त क्षेत्रों में चावल की संकर किस्में बहुतायात में उगाई जाती हैं जिन्हें पंजाब में उगने वाले चावल से लगभग दोगुने ज्यादा पानी की जरूरत होती है।
केवल चावल की ही संकर किस्म नहीं, सभी प्रकार की संकर किस्मों के लिए अधिक पानी की आवश्यकता होती है – चाहे वह ज्वार, मक्का, कपास, बाजरा या सब्जियां हों- पर शुष्क क्षेत्रों में खेती के लिए इनका ही प्रचार किया जा रहा है। इसके अलावा, कृषि वैज्ञानिकों ने किसानों में यह गलत धारणा बिठा दी है कि सूखे इलाकों में रासायनिक उर्वरकों की बहुत जरूरत होती है। इन सभी के बीच में अनुबंध खेती पर भी बहुत अधिक जोर दिया जा रहा है, इसमें भी काफी अधिक मात्रा में रासायनिक चीजें इस्तेमाल की जाती हैं। इस तरह भारत तेजी से रेगिस्तान बनने की ओर बढ़ रहा है।
इसलिए तत्काल जरूरत है कि, सिंचाई के लिए भूजल और सतह पर मौजूद पानी की उपलब्धता के आधार पर फसल पद्धतियों का चुनाव किया जाए। हमें 200 अरब अमेरिकी डॉलर की नदी-जोड़ने वाली योजना जैसी भव्य योजनाओं पर विचार करने के बजाय, पानी की उपलब्धता से जुड़ी फसल पद्धति तैयार करने पर काम करना चाहिए। यह तभी हो सकता है जब सरकार एक ऐसी फसल प्रणाली लेकर आए जो आर्थिक रूप से ज्यादा आकर्षक और पर्यावरणीय रूप से अधिक टिकाऊ हो। इसके लिए फसलों की कीमत तय करने वाले तंत्र में बदलाव करना होगा। अगर किसान पर्यावरण की सुरक्षा व संरक्षण करते हैं और पानी बचाने का प्रयास करते हैं तो उन्हें इसका भी आर्थिक लाभ मिलना चाहिए।
(लेखक प्रख्यात खाद्य एवं निवेश नीति विश्लेषक हैं, ये उनके निजी विचार हैं। उनका ट्विटर हैंडल है @Devinder_Sharma उनके सभी लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)