बाजार का गणित: एक किलो टमाटर का दाम 2 रुपए और एक किलो टोमैटो पेस्ट का 399 रुपए

Devinder SharmaDevinder Sharma   11 May 2018 12:45 PM GMT

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बाजार का गणित: एक किलो टमाटर का दाम 2 रुपए और एक किलो टोमैटो पेस्ट का 399 रुपएग्राफिक्स डिजाइन: कार्तिकेय उपाध्याय

जब किसान आलू सड़कों पर फेंक रहे थे तो कोल्ड स्टोर मालिकों के भी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें? जबकि कुछ मशहूर ब्रांड उसी आलू के चिप्स बनाकर 50 ग्राम के पैकेट को 20 रुपए में बेचते हैं, जो आलू किसान से पांच से सात रुपए प्रति किलो के हिसाब से खरीदा जाता है। यानि जब प्रोसेस करके चिप्स बनाया जाता है तो 400 रुपए प्रति किलो में बिकता है।

ऐसा ही कुछ हाल टमाटर का भी है, छत्तीसगढ़ में लगभग पूरे साल किसानों को टमाटर का दाम दो रुपए प्रति किलो के हिसाब से मिला। वहीं टमाटर दिल्ली, मुंबई और चंडीगढ़ में 18-25 रुपए प्रति किग्रा में बिक जाता है। अमेजन, फ्लिपकार्ट जैसे ऑनलाइन स्टोर पर टोमैटो सॉस की कीमतें देखिए तो एक किलो टोमैटो सॉस की कीमत 399 रुपए होती है। इंडस्ट्री डाटा के अनुसार, एक किलो टोमैटो सॉस बनाने में साढ़े पांच से ६ किलो टमाटर लगते हैं, ऐसे में टोमैटो सॉस की कीमत करीब 68 रुपए हुई। ये सब तरकीबें हैं, जिससे प्रोसेस्ड फूड की कीमतें ज्यादा हो जाती हैं। इस तरह से कैसे एक खराब खाद्य मूल्य श्रृंखला चल रही है।

विदेशों में भी ऐसे ही कुछ हालात हैं, आप देखते हैं कि इक्वाडोर में उगाए केले के आप एक डॉलर देते हैं। आप चौंक जाएंगे कि सुपर मार्केट मुनाफे का 40 प्रतिशत लेती है, और इक्वाडोर को सिर्फ 0.02 प्रतिशत का मुनाफा होता है। डेयरी मिल्क के लिए एक अमेरिकी किसान को एक डॉलर में से सिर्फ 11 सेंट मिलते हैं, जितने का दूध वो बाजार में बेचता है।

अमेरिका, यूरोप और इंग्लैंड में पिछले कुछ वर्षों में कई सारे डेयरी फार्म बंद हो गए। अब इसमें कोई शक नहीं है कि आने वाले महीनों में दूध की कीमतों में गिरावट की उम्मीद है।

किसानों की शुद्ध आय में इतनी गिरावट तभी से आई, जबसे सुपर मार्केट बढ़ने के साथ-साथ बिचौलियों का भी दखल बढ़ता गया। एकमात्र अंतर यह है कि मल्टी-ब्रांड गुणवत्ता नियंत्रक, प्रोसेसर, सर्टीफिकेट एजेंट के लिए एक छतरी की तरह काम कर रहा है।

अभी हाल में हुए एक सम्मेलन में खाद्य व कृषि पर काम कर रहे प्रोफेसर टिम लैंग ने कहा, "इंग्लैण्ड में किसानों को सिर्फ 4.5 प्रतिशत ही सारी बिक्री से मिलता है।" लगभग 100 साल पहले किसानों को हर डॉलर पर 70 सेंट मिलते थे, जो कि आज की तारिख में कम करके 4 प्रतिशत हो गया है। किसानों की शुद्ध आय में इतनी गिरावट तभी से आई, जबसे सुपर मार्केट बढ़ने के साथ-साथ बिचौलियों का भी दखल बढ़ता गया। एकमात्र अंतर यह है कि मल्टी-ब्रांड गुणवत्ता नियंत्रक, प्रोसेसर, सर्टीफिकेट एजेंट के लिए एक छतरी की तरह काम कर रहा है।

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चार दशकों से दुनिया भर में फार्म गेट की कीमतें स्थिर बनी हुईं हैं। मुद्रास्फीति दर के समायोजन के लिए अधिकांश कृषि उत्पादों की कीमत कम से कम बनी हुई है। यूएनसीटीएडी के अध्ययन के अनुसार, 1985 और 2005 के बीच, 20 साल की अवधि में किसानों को जो कीमतें मिलीं, वो नहीं बदलीं। नीति आयोग के अनुसार भारत में, किसानों की वास्तविक आय 2011 से 2016 के बीच पांच वर्षों में 0.44 प्रतिशत ही बढ़ी है। दूसरे शब्दों में किसानों की आय रुक गई है।

माइक कैलिक्रेट अपने ब्लॉग के एक लेख में लिखते हैं, "दो दिसम्बर, 1974 को मक्का के बुशेल की कीमत 3.58 डॉलर (25.40 किग्रा के बराबर) थी। जबकि जनवरी 2018 में भी मक्का का एक बुशेल 3.56 डॉलर में बिका, 44 साल बाद भी दो सेंट कम मिले। जिस किसान ने 1974 में मक्का की फसल लगाई थी, अपने रिटायरमेंट के समय भी मक्के का वही दाम पाता है, जबकि बीज, जमीन, उपकरण, उर्वरक और ईंधन की कीमतें तेजी से बढ़ी हैं।"

कीमतें ऐतिहासिक रूप से कम हो रहीं हैं, जो किसानों के लिए निश्चित रूप से अंत है। फिर भी, मैं उनकी प्रशंसा करता हूं, उन्होंने उम्मीद नहीं छोड़ी। उम्मीद है कि सरकार अभी या बाद में उनकी कीमतें बढ़ाने की मांग को स्वीकार करेगी और उनके अच्छे दिन आएंगे।

कीमतें ऐतिहासिक रूप से कम हो रहीं हैं, जो किसानों के लिए निश्चित रूप से अंत है। फिर भी, मैं उनकी प्रशंसा करता हूं, उन्होंने उम्मीद नहीं छोड़ी। उम्मीद है कि सरकार अभी या बाद में उनकी कीमतें बढ़ाने की मांग को स्वीकार करेगी और उनके अच्छे दिन आएंगे। आर्थिक सुधारों को व्यवहार्य रखने के लिए किसानों को जानबूझकर गरीब रखा जा रहा है। नतीजा यह है कि दशकों से अधिक समय तक खेती तनावपूर्ण ऑपरेशन में बदल गई है। संयुक्त राज्य अमेरिका में, कई राज्यों ने कृषि में मानसिक तनाव से लड़ने में मदद के लिए नियम बनाए गए हैं।

भारत में, किसानों का तनावग्रस्त वातावरण स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। जबकि देश के अलग-अलग हिस्सों में हर दूसरे दिन किसानों की आत्महत्या की खबरें आती रहती हैं, लेकिन तथ्यों में दिखाया जाता है कि आत्महत्याओं की संख्या सिचाईं क्षेत्रों में ज्यादा है सूखे की अपेक्षा। जितना अधिक लोन उतना ही अधिक किसानों को ऋणात्मकता की तरफ धकेला जा रहा है। पंजाब के एक छोटे किसान ने कहा, "ये भी कोई जिंदगी है, शुरुआत से अंत तक उधार की जिंदगी जीना एक श्राप की तरह है।"

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