कोविड-19 महामारी ने देश में मौजूदा आपदा संचालन के स्वरूप और इसके तंत्र के लिए कई चुनौतियां खड़ी की हैं। इसकी शुरुआत केंद्र सरकार द्वारा पिछले साल अचानक किए गए लॉकडाउन की घोषणा के साथ हुई।
इसके बाद संबंधित राज्य सरकारों द्वारा उठाए गए कदमों ने राज्यों में कोविड-19 का मुकाबला करने के लिए आपदा के स्वरूप के तंत्र की कमी को उजागर किया। इस दौरान लिए गए निर्णय की वजह से नागरिकों को भुगतना पड़ा। सामान्य तौर पर जब भी कोई आपदा आती है तो निचले तबके के समुदाय ही सबसे पहले प्रतिक्रिया देते हैं।
जब हम शासन के क्षेत्रों को देखते हैं तो यह ग्राम पंचायतों, नगर पालिकाओं, नगर निगमों, नगर पंचायतों जैसे निर्वाचित स्थानीय सरकारी संस्थान हैं, जो समुदायों के करीब हैं और इसलिए किसी भी आपदा को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं और प्रतिक्रिया दे सकते हैं।
तमिलनाडु में ग्राम पंचायतों की स्थिति
पिछले साल जब कोविड-19 महामारी शुरू हुई थी, तब तत्कालीन अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (एआईएडीएमके) सरकार ने तमिलनाडु में शहरी स्थानीय निकाय चुनाव नहीं कराए थे। साथ ही राज्य के 38 जिलों में ग्रामीण स्थानीय निकायों को पर्याप्त अधिकार नहीं भी दिए थे।
ग्राम पंचायतों की बात करें तो तमिलनाडु के 29 जिलों में ही पंचायत चुनाव हुए और शेष नौ जिलों में निर्वाचित प्रतिनिधियों के बिना रह गए।
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निर्वाचित बनाम गैर-निर्वाचित पंचायतें: एक अध्ययन
तिरुपुर में स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ ग्रासरूट गवर्नेंस (IGG) ने ‘पंचायती राज संस्थाओं द्वारा कोविड -19 का मुकाबला तमिलनाडु के चयनित जिलों में निर्वाचित बनाम गैर-निर्वाचित ग्राम पंचायतों का एक तुलनात्मक अध्ययन’ शीर्षक से एक शोध अध्ययन करने का निर्णय लिया। जिसके लिए अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय द्वारा अपने कोविड-19 अनुसंधान अनुदान कार्यक्रम के तहत फंड उपलब्ध कराया था।
शोध दल ने इस शोध अध्ययन के लिए आसपास के सांस्कृतिक रूप से एक जैसे जिलों कुड्डालोर व विलुप्पुरम और तिरुनेलवेली व थूथुकुडी को चुना। कुड्डालोर और थूथुकुडी में पंचायत अध्यक्ष चुने गए, जबकि विलुप्पुरम और तिरुनेलवेली में नहीं।
2020 में अक्टूबर से दिसंबर के बीच तमिलनाडु के चार चुने गए जिलों में 100 ग्राम पंचायतों में फील्ड रिसर्च की गई।
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (MGNREGS) के तहत पंचायत अध्यक्षों, पंचायत सचिवों, खंड विकास अधिकारियों (BDO), आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं, ग्राम स्वास्थ्य नर्स और दैनिक वेतन भोगी कर्मियों सहित विभिन्न लोगों से सीधी बात और ग्रुप डिस्कशन किया गया।
अध्ययन में शामिल कुछ शोध प्रश्न थे – ग्राम पंचायतों द्वारा कोविड-19 को लेकर सुरक्षात्मक और जागरूकता उपाय क्या किए गए, पंचायत प्रशासन द्वारा दिन-प्रतिदिन की गतिविधियों को कैसे लागू किया गया, ग्राम पंचायतों द्वारा शिकायतों का समाधान कैसे किया गया, ग्राम पंचायतों में मनरेगा के कार्यों को किस प्रकार क्रियान्वित किया गया, ग्राम पंचायतों के लिए उपलब्ध वित्तीय स्रोत क्या थे।
इस शोध अध्ययन के निष्कर्ष जमीनी स्तर पर निर्वाचित पंचायत प्रतिनिधियों के महत्व और किसी भी आपदा के दौरान विकेंद्रीकृत शासन की गतिशीलता को समझने के लिए आवश्यक हैं।
क्या निकले इस सर्वे के नतीजे
शोध के निष्कर्षों से पता चला है कि कुड्डालोर और थूथुकुडी जिलों की ग्राम पंचायतों (यहां प्रतिनिधि चुने गए थे) ने तिरुनेलवेली और विल्लुपुरम जिलों की ग्राम पंचायतों (यहां प्रतिनिधि नहीं चुने गए थे) की तुलना में कोविड-19 संबंधित समस्याओं से निपटने में बेहतर प्रदर्शन किया।
पंचायत अध्यक्षों द्वारा समुदाय के सक्रिय सहयोग से जागरूकता गतिविधियां जैसे पैम्फलेट का वितरण, चिकित्सा शिविरों का आयोजन, मुनादी सक्रिय रूप से की गईं। इनमें से अधिकांश निर्वाचित प्रतिनिधि पहली बार चुने गए थे और प्रशिक्षण की कमी और संघ और राज्य वित्त आयोग से धन की कमी जैसी चुनौतियों के बावजूद वे अपनी मौजूदा नेतृत्व क्षमताओं का उपयोग करके अच्छा प्रदर्शन करने में सक्षम थे।
निर्वाचित प्रतिनिधियों के साथ ग्राम पंचायतों ने अधिक जागरूकता अभियान चलाया और आपदा प्रबंधन समितियों के माध्यम से विभिन्न सुरक्षात्मक उपाय किए। इसके विपरीत तिरुनेलवेली और विल्लुपुरम जिलों में ऐसी कोई समिति नहीं बनाई गई थी, ऐसे में वहां जागरूकता गतिविधियां कम थीं।
शोध से यह भी पता चला कि पंचायत अध्यक्ष दिन-प्रतिदिन की समस्याओं/शिकायतों को दूर करने के लिए बेहतर स्थिति में थे। निर्वाचित प्रतिनिधियों के बिना पंचायतें महामारी के दौरान शिकायतों का शीघ्र समाधान करने में विफल रहीं। निर्वाचित प्रतिनिधियों के बिना ग्राम पंचायतों में फील्ड अवलोकन से यह भी पता चला कि ऐसी पंचायतों में स्वच्छता का हाल भी बेहतर नहीं था।
विकेंद्रीकृत शासन और मनरेगा कार्यकर्ता
हालांकि सभी ग्राम पंचायतों ने महामारी में धन के लिए संघर्ष किया। ग्रामीण स्थानीय निकाय अनुदान के मिलने में देरी के कारण पंचायतों को बाहरी एजेंसियों से फंड लेने के लिए मजबूर होना पड़ा। कुछ मामलों में पंचायत अध्यक्षों ने कोविड-19 से निपटने के लिए अपना पैसा खर्च किया।
मनरेगा कार्यकर्ताओं के साथ एक साथ बात करने से पता चला कि निर्वाचित प्रतिनिधियों के साथ ग्राम पंचायतों ने सहयोग किया और ग्राम स्वास्थ्य नर्स, आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं आदि के साथ प्रभावी ढंग से सहयोग किया। निर्वाचित प्रतिनिधियों के बिना ग्राम पंचायतों में यह सहयोग काफी हद तक नहीं या कम था।
इसी तरह मनरेगा के तहत नए जॉब कार्डों बनाने की प्रक्रिया बिनी निर्वाचित प्रतिनिधियों वाली ग्राम पंचायतों की तुलना में निर्वाचित प्रतिनिधियों वाली ग्राम पंचायतों में तेज थी। निर्वाचित प्रतिनिधियों के बिना ग्राम पंचायतों में नए जॉब कार्ड बनाने में देरी काम के ज्यादा भार के कारण हुई। 15 से अधिक ग्राम पंचायतों में विकासात्मक गतिविधियों की देखरेख और क्रियान्वयन के लिए बीडीओ नियुक्त किए गए, जिसने उन्हें ठीक से काम करने से रोका।
विकेंद्रीकृत शासन का महत्व
सर्वे में पाया गया कि विकेंद्रीकृत शासन ने कोविड-19 से निपटने के लिए सार्थक और प्रभावी समुदाय आधारित उपाय किए, लेकिन राज्य सरकार की ओर से ग्राम पंचायतों को दिए गए अधिकारों की कमी के कारण यह पर्याप्त नहीं था। ग्रामीण तमिलनाडु में कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर तेजी से फैल रही है और पिछले कुछ हफ्तों में ग्रामीण राज्य के कई जिलों में पॉजिटिविटी रेट 20 प्रतिशत से अधिक बढ़ गई है, जिसमें कृष्णागिरी, विरुधुनगर, कुड्डालोर, नागपट्टिनम सहित कई ग्रामीण इलाके शामिल हैं।
ऐसे में तमिलनाडु में नई द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK) सरकार को कोविड-19 का प्रभावी ढंग से मुकाबला करने के लिए निर्वाचित ग्राम पंचायत प्रतिनिधियों को और अधिक शक्तियां प्रदान करनी चाहिए।
कोविड-19 का मुकाबला करने के लिए राज्यों द्वारा अपनाई गई विभिन्न विकेन्द्रीकृत शासन नीतियां जैसे- केरल में पंचायत वार रूम, कर्नाटक में पंचायत स्तर की टास्क फोर्स, ओडिशा में लॉकडाउन लागू करने में सरपंच को सशक्त बनाना आदि सामुदायिक भागीदारी को बढ़ाती हैं। तमिलनाडु में भी इस तरह के कदम उठाने की जरूरत है।
केरल, ओडिशा और कर्नाटक के मुख्यमंत्रियों ने अपने पंचायत प्रतिनिधियों के साथ बातचीत की और ग्रामीण क्षेत्रों में कोविड-19 से निपटने के लिए आवश्यक निर्देश जारी किए। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन ने अभी तक राज्य के 9,622 ग्राम पंचायत अध्यक्षों के साथ बातचीत नहीं की है। इन निर्वाचित प्रतिनिधियों के साथ बातचीत से उनका मनोबल बढ़ेगा और उन्हें वायरस के प्रसार को रोकने के लिए उपाय करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकेगा।
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राज्य सरकार को मानक संचालन प्रक्रियाओं (एसओपी) को विकसित करना चाहिए और ग्रामीण स्थानीय निकायों के अनुदान को पंचायतों को सीधे 54,848 लाख रुपये (5484.8 मिलियन रुपये) का समय पर हस्तांतरण सुनिश्चित करना चाहिए, जो उन्हें प्रभावी ढंग से कोविड-19 का मुकाबला करने में मदद करेगा।
नोट- लेखक एम. गुरुसरवनन इंस्टीट्यूट ऑफ ग्रासरूट गवर्नेंस के अध्यक्ष हैं। पूरी शोध रिपोर्ट यहां पढ़ें।