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कभी अपने शहर की पुरानी बस्ती भी घूम आएं

Pollen

हर छोटे और बड़े शहरों की असली ज़मीनी खूबसूरती वहां के पुराने बाजारों और गली मोहल्लों में होती है। पुरानी बस्तियों और बाजारों की चमक शहर के मल्टीप्लेक्स और मॉल वाले इलाकों से बिल्कुल परे होती है। नयी जानकारियों को समेटने और पुराने शहर की आबोहवा से रूबरू होने का मुझे बेजा शौक है। अहमदाबाद शहर के बीचों-बीच साबरमती का चौड़ा पाट है, पाट के एक तरफ नया-सा अहमदाबाद जबकि दूसरी तरफ पुराना शहर, पोल और संकरी गलियों में सजे चमक दमक लिए बाज़ार पुराने शहर की अनोखी पहचान हैं।

बीते रविवार एक बार फिर पुराना शहर घूमने गया और वहां मुलाकात हुई महमूद भाई से। यहां की रीलीफ रोड पर अक्सर टूटे-फूटे यंत्रों, सर्किट्स, की-बोर्ड, टेलीफोन, खराब चार्जर, ट्रांसिस्टर्स, घड़ियां, मोबाइल फोन के अलावा खराब सीडी, डीवीडी, विडियोगेम वगैरह हाथ ठेले में लिए हुए महमूद भाई दिख जाते हैं। इनके हाथ ठेले पर ई-गार्बेज या सारे खराब इलेक्ट्रॉनिक आयटम्स खरीदे नहीं जाते, बल्कि बेचे जाते हैं। नोकिया का मोटी पिन का खराब चार्जर 10 रुपए में या फिर खराब डीवीडी एक रुपए में, जिसे खरीदना हो खरीद ले जाए। अब सवाल ये उठता है कि इसे खरीदता कौन है? यकीन मानिए, खूब खरीददार हैं यहां..ये गुजरात है जहां दुनिया के अनोखे से अनोखे बिजनेस आइडियाज़ देखे जा सकते हैं।

इन खराब सामान के खरीददार दरअसल इलेक्ट्रॉनिक, कम्युनिकेशन या हार्डवेयर रिपेयरिंग सीखने के शौकीन लोग इन खराब सामानों को खरीदकर इन्हें ठीक करने में अपनी सारी जुगत लगा देते हैं। महमूद भाई के इस बिज़नेस को देखकर मैं यकीनन कह सकता हूं कि काम की कमी या रोजगार नहीं मिलने की रट लगाने वाले लोग मक्कार होते हैं।

शहर के इसी हिस्से में आप कभी जाएं तो लकी टी हाउस जरूर होकर आएं। कब्रिस्तान पर बना हुआ ये रेस्तरां आपको जीवन और मृत्यु के बीच का अंतर समझा देगा। एक तरफ बैठकर आप मस्का-बन, दोसा, इडली या चाय की चुस्कियां ले रहे हों और आपकी ठीक बगल में एक कब्र, एक नहीं बल्कि ढेर सारी कब्रें दिखाई देंगी। कब्रगाह पर बने करीब 150 साल पुराने इस रेस्तरां को अहमदाबाद का बड़ा लैंडमार्क माना जाता है।

यहां आकर आपको ये जरूर महसूस होगा कि जिंदगी थमती भी है, और थमती भी नहीं…ये हम इंसान ही हैं जो सारी उम्र अपने स्वार्थ, अपनी खुद की खुशियों, पैसा और जमीन पर अपने मालिकाना हक के लिए जिन्दगी के बेहतरीन पल खो देते हैं। मैं जब-जब इस टी स्टाल पर जाता हूं, अक्सर एक सवाल खुद से जरूर करता हूं। क्या सच में जमीन या धरती पर हमारा किसी तरह का मालिकाना हक है?

जमीन को तो यहीं रहना है, हम इंसान जरूर चल देंगे, आज नहीं तो कल और तो और हमारा शरीर भी मिट्टी में विलीन हो जाएगा और वो भी जमीन का हिस्सा हो जाएगा। सच्चाई तो यह हुई कि हम जमीन के हिस्से हैं ना कि जमीन हमारा हिस्सा। धरती मृत होकर मानव शरीर नही बनने वाली, मानव जरूर मरकर धरती का हिस्सा बन जाता है।

किसी ने सच कहा है, ‘इंसान जिस जगह पर खड़ा होता है, सिर्फ़ उतनी ही जगह उसकी है और हर कदम आगे बढ़ाने पर पिछला मालिकाना हक खत्म होता जाता है, वो जिस जगह पर जाएगा, वो जगह ही उसकी होगी, जितना कि उसके पैरों तले हो।’ क्या बाज़ जिस हवा में उड़ता है, उस पर अपना मालिकाना हक दिखाता है? क्या मछलियां नदी या झीलों की मालिक होती हैं? क्या मधुमक्खी के पास किसी फूल के परागकणों का मालिकाना हक है? मालिकाना हक की बात सिर्फ मनुष्य करता है और ये पूरी बात एक स्वांग की तरह समझ पड़ती है।

पुराने अहमदाबाद के इंडस्ट्रियल एरिया ओढ़व का नीलकमल लेसर सिनेमा भी कमाल की जगह है। शहर भले ही रफ्तार से भाग रहा है लेकिन इस सिनेमा में रोज शाम जिन्दगी थम सी जाती है। इसी सिनेमा में ‘लड़ाई’ फिल्म देखकर आया। मिथुन, रेखा, मंदाकिनी, डिम्पल, आदित्य पंचोली की 1989 की फिल्म, फ़ुल एक्शन, डांस और धमाल के साथ। हमारे गाँव में ऐसे ही वीडियो हॉल हुआ करते थे, जहां हम लोग कभी कभार गोविंदा-मिथुन-धर्मेंद्र जैसे स्टार्स की फिल्म देख आया करते थे। अपने गाँव देहात को याद करने का ये भी एक ठीक-ठाक सा तरीका है।

प्लास्टिक की कुर्सी में बैठकर चने खाते हुए 10 रुपए की टिकट वाली पुरानी एक्शन क्लासिक देखना और फिर आस-पास बैठे कामगार मजदूरों और युवाओं को मिथुन के पैर थिरकाने पर सीटी मारते देखना, मजेदार होता है और फिर कभी चलते-चलते अचानक फिल्म रुक जाए तो वो हो-हल्ला और गालियां भी कानों को लबरेज कर देती हैं जो किसी मल्टीप्लेक्स में देखने और सुनने ना मिले। जो भी हो, मजा आता है, चलिए कभी मेरे साथ पुराने अहमदाबाद को घूमने और समझने और हो सके तो अपने शहर की पुरानी बस्ती भी घूम आएं।

(लेखक हर्बल विषयों के जानकार और गाँव कनेक्शन के कंसल्टिंग एडिटर हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)

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