अपने 250 वें जन्मदिन पर गोपनीयता का आवरण उतार देना चाहता है एसओआई

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अपने 250 वें जन्मदिन पर गोपनीयता का आवरण उतार देना चाहता है एसओआईसर्वे ऑफ इंडिया का मुख्यालय अब देहरादून में है। भारत का आधिकारिक नक्शा निर्माता होने के नाते और देश की अंतरराष्ट्रीय सीमाओं के सटीक रिकॉर्ड रखते हुए इस संगठन ने बीते 250 साल में बेहतरीन सेवा दी है।

पल्लव बाग्ला

हैदराबाद (भाषा)। भारत का प्राचीनतम वैज्ञानिक संगठन सर्वे ऑफ इंडिया (एसओआई) वर्ष 1767 में स्थापित हुआ था। यानी दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र अमेरिका के जन्म से भी 10 साल पहले। भारत के आधिकारिक नक्शा निर्माता ने उस समय उपमहाद्वीप की भौगोलिक जानकारी को जुटाना भी शुरु कर दिया था, जब अमेरिकी खूनी गृहयुद्ध में ही उलझे थे। लंबे समय तक सार्वजनिक चर्चा से दूर चुपचाप काम करने वाली यह एजेंसी अब चाहती है कि उसके बारे में लोग जानें। वह अब पारदर्शी हो जाना चाहती है और अपनी नई स्वतंत्रता का दावा करने के लिए माउंट एवरेस्ट पर भी चढ़ जाना चाहती है।

सर्वे ऑफ इंडिया का मुख्यालय अब देहरादून में है। भारत का आधिकारिक नक्शा निर्माता होने के नाते और देश की अंतरराष्ट्रीय सीमाओं के सटीक रिकॉर्ड रखते हुए इस संगठन ने बीते 250 साल में बेहतरीन सेवा दी है।

संगठन के 250वें जन्मदिवस के मौके पर भारतीय महासर्वेक्षक स्वर्ण सुब्बाराव ने यहां जियोस्पेशियल वर्ल्ड फोरम में पिछले सप्ताह दावा करते हुए कहा था, ‘‘सर्वे ऑफ इंडिया 250 साल तक शांत रहा है। अब उसे जनता के साथ खुले तौर पर बात करनी चाहिए।''

भौगोलिक जानकारी को भारतीय नागरिकों से दूर रखने वाली एजेंसी की ओर से कहे गए ये शब्द वाकई उत्साहजनक हैं। सैन्य प्रतिबंधों एवं कई अन्य वजहों के चलते अधिकतर नक्शों को छिपाकर रखा जाता रहा है लेेकिन आज इंटरनेट की पहुंच, गूगल मैप्स और इसरो के भुवन ने इन प्रतिबंधों को पूरी तरह से अप्रासंगिक कर दिया है।

इस साल भारत की राष्ट्रीय मानचित्रण एजेंसी ने पहली बार इंटरनेट को इतने व्यापक तौर पर अपनाया है कि जल्द ही 4800 गुणवत्तापूर्ण नक्शे आधार नंबर के इस्तेमाल से मुफ्त में डाउनलोड किए जा सकेंगे। राव का कहना है, ‘‘इससे इसके उत्पादों का महत्व बढाने में क्राउडसोर्सिंग के जरिए नागरिकों की भागीदारी को प्रोत्साहन मिलेगा।'' अब तक इन नक्शों को खरीदने का एकमात्र तरीका कागजी कार्यवाही का था और सीमा क्षेत्रों एवं तटीय क्षेत्र से जुड़ी अधिकांश जानकारी तो पहुंच से बाहर ही थी।

डिजिटल इंडिया और पारदर्शिता में इस नए विश्वास की शुरुआत विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री हर्षवर्धन ने 13 जुलाई 2016 को तब की थी, जब वह एसओआई के दौरे पर गए थे।

बहुत लोगों को यह जानकर हैरानी हो सकती है कि माउंट एवरेस्ट की वास्तविक उंचाई का आकलन असल में एसओआई ने वर्ष 1855 में किया था और तब से 8,848 मीटर की उंचाई उस समय ‘पीक 15' के रुप में पहचानी जाने वाली चोटी के लिए एक मानक बनी हुई है। हमारे एसओआई ने ही वर्ष 1865 में अपने योग्य अधिकारी जॉर्ज एवरेस्ट के सम्मान में इस चोटी को आधिकारिक तौर पर माउंट एवरेस्ट का नाम दिया।

लेकिन दुनिया की सबसे उंची चोटी की वास्तविक उंचाई का पता लगाने वाला व्यक्ति एक भारतीय था, जिसका नाम था राधानाथ सिकदर। इस मशहूर सर्वेक्षक को आधिकारिक तौर पर ‘चीफ कंप्यूटर' की उपाधि दी गई थी। तो क्या हम ‘कंप्यूटर' शब्द लाने के लिए सर्वे ऑफ इंडिया को श्रेय दे सकते हैं?

इस बात में कोई संदेह नहीं है कि सिकदर ऐसे इंसानी कंप्यूटर थे, जिन्होंने दृश्य और यांत्रिक उपकरणों की मदद से माउंट एवरेस्ट की सटीक उंचाई मापने का असंभव काम कर दिखाया। इतिहास रचते हुए पहली बार इंसानों ने वर्ष 1953 में माउंट एवरेस्ट पर कदम रखा। हालांकि इससे लगभग सौ साल पहले ही ‘इंसानी कंप्यूटर' ने इस चोटी की वास्तविक उंचाई माप दी थी।

पिछले 162 साल में दुनिया मानती आई है कि माउंट एवरेस्ट की समुद्रतल से उंचाई 8,848 मीटर है। लेकिन अब वैज्ञानिक समुदाय में यह चर्चा है कि माउंट एवरेस्ट की उंचाई शायद बदल गई है क्योंकि हिमालय हर साल पांच मिलीमीटर बढता है। इसका अर्थ यह हुआ कि पर्वत पिछले 162 साल में संभवत: लगभग एक मीटर बढ़ गया होगा।

राव का कहना है कि लोगों को संदेह है कि वर्ष 2015 में नेपाल में आए 7.8 तीव्रता के भीषण भूकंप ने संभवत: क्षेत्र में व्यापक उथल-पुथल पैदा की होगी। एसओआई के 250वें जन्मदिन के अवसर पर राव चाहते हैं कि माउंट एवरेस्ट की सटीक उंचाई को एक बार फिर से आंकने के लिए भारतीय-नेपाली पर्वतीय दल भेजा जाए।

तीस पर्वतारोहियों वाला यह दल जीपीएस समेत अत्याधुनिक सर्वेक्षण उपकरणों से लैस होगा, जो माउंट एवरेस्ट की सटीक उंचाई के आकलन में मददगार होंगे। इसके लिए पांच करोड़ रुपए की राशि आवंटित की गई है और उम्मीद है कि यह दल इस साल ही शिखर तक पहुंच जाएगा। राव का कहना है कि माउंट एवरेस्ट पर दोबारा जाने की वजहों में से एक वजह उपग्रहों की मदद से आंकी गई उंचाई और जमीनी तौर पर आंकी गई उंचाई के बीच का अंतर पता लगाने की कोशिश करना है।

     

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