हमारे देश में चुनाव का 70 साल पुराना इतिहास तो हो ही चुका है और इस प्रक्रिया में चुनाव संचालन करने वालों के बहुत से अनुभव रहे हैं, जिनके फलस्वरूप ईवीएम मशीन लाना पड़ा है और ‘एक देश एक चुनाव’ की अच्छी प्रणाली को इसी बीच में समाप्त भी किया गया था, अब नए सिरे से इन दोनों विषयों पर चर्चाएं हो रही हैं। आलोचनाएं और उनका प्रतिवाद भी चल रहा है।
इसी तरह 70 के दशक में जब श्रीमती इन्दिरा गाँधी की सरकार थी और वह बम्पर वोटों से जीती थीं, तब के विरोधी पार्टियों ने एक इल्जाम यह लगाया था कि सरकार ने रूस से इनविजुअल इंक यानी अदृश्य हो जाने वाली स्याही मंगाई है और उसका प्रयोग करने के बाद कुछ समय बाद उंगली का निशान मिट जाता है और लोग दोबारा चुनाव कर सकते हैं। यह प्रामाणिक नहीं था और ना इसे कोई साबित कर पाया ठीक उसी प्रकार जैसे ईवीएम पर इल्जाम लगा रहे हैं।
आजाद भारत का पहले आम चुनाव 1952 में हुआ था, इसके पहले 1947 से 1952 तक बिना चुनाव के आम राय वाली सरकार चलती रही थी। 1952 के आम चुनाव में सम्पूर्ण देश में एक साथ देश और प्रदेश के चुनाव हुए थे, आम आदमी के लिए यह पहला अनुभव था, उस समय जो वोटर थे उन्हें कठिनाइयां भी हुई होगी। उस चुनाव में पर्चियाँ पड़ती थी जिन पर मोहर लगानी होती थी, लेकिन उन पर्चियों पर चुनाव चिन्ह और नाम तो थे नहीं, अलग-अलग पार्टियों के लिए अलग-अलग बैलट बॉक्स थे जिन पर पार्टी का चुनाव चिन्ह बना हुआ था उन्हें पार्टियों के बैलट बॉक्स में अपना वोट डालना होता था लेकिन बहुत लोगों को शायद यह नहीं समझ आया कि इन्हें डालें कैसे? जिसके कारण बहुत से लोगों ने अपना वोट बैलेट बॉक्स के अन्दर न डालकर उसके सामने ही डाल दिया।
हमारे गाँव के जानकी प्रसाद मिश्रा बताया करते थे कि जब वह वोट डालने गए, तो उन्होंने जब वोट की पर्चियाँ बक्सों के सामने बहार पड़ी हुई देखी तो उन सारी पर्चियों को बटोर कर उन्होंने दो बैलों की जोड़ी वाले बक्शे में डाल दिया क्योंकि वह खुद कांग्रेस के समर्थक थे और दो बैलों की जोड़ी कांग्रेस का चुनाव चिन्ह हुआ करता था। इस तरह की गलतियां हुई होगी लेकिन चुनाव शान्तिपूर्ण था और ऐसा भी नहीं कि देशव्यापी चुनाव में क्षेत्रीय या छोटी पार्टियाँ नहीं थी, उस समय भारतीय जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टी, किसान मजदूर प्रजा पार्टी, जमींदारों की लढ़िया निशान वाली पार्टी और हसिया हथौड़ा वाली कम्युनिस्ट पार्टी ऐसी ही तमाम पार्टियाँ मैदान में थीं। इसलिए यह कहना कि राष्ट्रव्यापी चुनाव होने से क्षेत्रीय पार्टियाँ अथवा छोटी पार्टियाँ समाप्त हो जाएंगी तर्कसंगत नहीं लगता।
समय-समय पर चुनाव सुधारों की चर्चा होती रही है और इन्ही चर्चाओं में एक सुझाव जयप्रकाश जी का था जिसमें उन्होंने कहा था कि वोटर को अपना प्रतिनिधि वापस बुलाने का अधिकार होना चाहिए यानी ‘’राइट टू रिकॉल’’ का प्रावधान उन्होंने सुझाया था। यह सुझाव आगे चलकर माना तो नहीं गया लेकिन नोटा का प्रावधान यानी नन ऑफ़ द एबव अर्थात लिस्ट में से कोई भी योग्य नहीं है, ऐसा प्रावधान मौजूद है और यदि नोटा की संख्या सर्वाधिक वोट पाने वाले से अधिक हो जाए तो फिर चुनाव दोबारा कराना होगा। यह यह सारे सुझाव इसीलिए आते रहे कि अनेक खराबियाँ, कमियाँ, गड़बड़ियाँ होती रहीं और उनका निराकरण सोचा जाता रहा। इसी क्रम में बाकी के सुझाव जैसे ईवीएम मशीन आदि लाए गए, इसलिए उन सुझावों की आलोचना करने के बजाय उनमें और अधिक सुधार का प्रयास होना चाहिए ना की पीछे मुड़कर वह तरीके स्वीकार किए जाएं जिन्हें उपयुक्त नहीं पाया गया।
आजकल जो लोग पर्चियाँ लेकर वोट डालने की परम्परा फिर से वापस लाना चाहते हैं उन्हें दूसरे चुनाव के बाद से जो बूथ कैपचरिंग का रोग चला था उसे भी ध्यान में रखना चाहिए। बाहुबली लोग बूथ पर कब्जा करके अपने मनपसन्द कैंडिडेट के चुनाव चिन्ह पर मोहर लगाकर और सारे के सारे वैलेट पेपर डाल देते थे और उन लठैतों के खिलाफ कोई कुछ कर नहीं पता था। ऐसे रोग से छुटकारा पाने के लिए ईवीएम मशीन की कालान्तर में आवश्यकता पड़ी और आरम्भ किया गया। जहाँ तक देश में अभी चुनाव का सवाल है; एक साथ वर्ष 1952 में 1957 और 1962 तथा 1967 में इसी पद्धति से चुनाव हुए थे, लेकिन किसी कारणवश जब कांग्रेस का विभाजन सन 1969 में हुआ, कांग्रेस आई और कांग्रेस ओ बनी तो इन्दिरा गाँधी जी देश की प्रधानमन्त्री थीं और उन्हें लगा कि सारे देश के साथ प्रान्तीय चुनाव कराने से उनकी पार्टी को नुकसान होगा और उन्होंने यह तर्क दिया कि देश के मुद्दे अलग और प्रदेशों के अलग होते हैं, इसलिए उनके चुनाव भी अलग-अलग होने चाहिए और इसलिए इस प्रथा का आरम्भ प्रधानमन्त्री श्रीमती गाँधी के समय में हुआ कि देश में केन्द्रीय चुनाव तो एक साथ होते थे लेकिन प्रान्तों के चुनाव लगभग हर साल कहीं ना कहीं किसी न किसी कारणवश होने लगे।
इस परिस्थिति में धन-जन और व्यवस्था की समस्याएं आने लगी बहुत बड़ी संख्या में राजनीति से जुड़े हुए कार्यकर्ता हर समय राजनीति ही करने लगे और एक बहुत बड़ी फौज ऐसे लोगों की बनकर तैयार हुई जो सभी पार्टियों में मौजूद थी, कुछ काम ना करें चाहे पढ़े हो चाहे अनपढ़ उन्हों ने राजनीति की। सालों साल जो देश भर में चुनाव होते रहते हैं; उनमें ग्राम पंचायत के चुनाव का दुष्परिणाम स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है । पंचायत चुनाव में दावत देना और शराब पिलाना यह एक साधारण बात हो गई है और इतना ही नहीं जाति आधार पर कास्ट प्राइड या जातीय अभिमान बहुत बढ़ गया है। पुराने समय का परस्पर सम्मान और सहयोगकी ग्रामीण संस्कृति लगभग समाप्त हो गई है, इसके लिए केवल पंचायती चुनाव जिम्मेदार नहीं हैं, बल्कि शहरी चमक-दमक का प्रभाव भी उत्तरदाई है। पंचायत के पास रिकमेंड करने का अधिकार तो है लेकिन पैसा देने का नहीं और इसलिए उनके अधिकार हैं मगर दायित्व या जवाब देही नहीं है । गाँव से आगे बढ़ते हैं तो ब्लॉक के चुनाव, जिला पंचायत के चुनाव भी काफी हद तक सामाजिक विघटन के लिए जिम्मेदार हो गए हैं । वर्तमान में एक सुधार जरूर हुआ है वह पंचायत का सुधार नहीं है, प्रशासनिक सुधार है कि लाभार्थियों का पैसा सीधे उनके खाते में जाता है जिससे बिचौलियों की भूमिका घटी है।
विधानसभा और लोकसभा के चुनाव बड़े स्तर पर होते हैं इसलिए वहाँ स्थानीय विद्वेष तो नहीं होता लेकिन काफी संघर्ष वहाँ भी होते हैं और जातियों के नेता वोटो के ठेकेदार बन जाते हैं। वहाँ पर 70 साल के अनुभव के बाद पर्ची वाला वोट बन्द करके ईवीएम् का सहारा इसलिए लिया गया है कि उसमें बाहुबलियों की भूमिका बहुत घट जाती है। ईवीएम् की आलोचना तो काफी हो रही है लेकिन वह तभी होती है जब व्यक्ति अथवा पार्टी चुनाव हार जाती है और जीत जाने पर कोई शिकायत नहीं रहती। यह गुण दोष को जानने समझने का अच्छा तरीका नहीं है। इसमें खराबियों का आरोप तो लगता है लेकिन उन खराबियों को किसी ने प्रमाणित नहीं किया है, ना ही चुनाव आयोग के सामने और ना ही सार्वजनिक रूप से। अब यदि कोई सुधार होता है तो वह समय घटाने का होना चाहिए अर्थात चुनाव पूरा होने में जो महीनों का समय लगता है उसको कम से कम समय में किया जाना चाहिए।
यदि पर्ची सिस्टम फिर से लाया गया तो जिन राजनीतिक दलों के पास बाहुबलियों, आतंकवादियों और मुस्टंडों की बड़ी जमात है, वे फिर से वही पुराने प्रयोग करना चाहेंगे और 70 साल का अनुभव भुला दिया जाएगा। कुछ लोग सोचते हैं कि विदेशों में पर्ची सिस्टम अभी तक चल रहा है, लेकिन वहाँ पर बूथ कैपचरिंग जैसा रोग कभी देखने में नहीं मिला या सुनने में नहीं आया। इसलिए अपने यहाँ चुनाव प्रक्रिया में जो सुधार हुए हैं उनके बाद और सुधार होने चाहिए ना कि सुधारो को भुला दिया जाए। रोचक बात यह है कि विदेश से सीखना तो चाहते हैं लेकिन भूल जाते हैं कि वहाँ पर केवल दो या तीन राजनीतिक पार्टियाँ होती हैं और यहाँ पर तो क्षेत्रीय पार्टियों का बोलबाला बनाए रखना चाहते हैं। इसका परिणाम यह है कि राष्ट्रीय सोच विकसित नहीं हो पाई और क्षेत्रीय खींचतान में कई बार आम आदमी का नुकसान होता है। आवश्यकता इस बात की है कि चुनाव कम खर्चीले हों, कम समय में सम्पन्न कराए जा सकें और शान्ति पूर्ण ढँग से बिना किसी प्रकार के वैमनष्यता के पूरे हो सकें। चुनाव का पुराना तरीका अपनाने से फिर से बूथ कैपचरिंग और बाहुबलियों के प्रभाव यानी कौन वोट डालने जाएगा, कौन नहीं जाएगा, कौन किसको वोट देगा यह फैसला फिर से बाहुबलियों के हाथ में नहीं जाना चाहिए।