हमारे गाँव से चार पाँच किलोमीटर की दूरी पर बाबागंज के पास के गाँव का रहने वाला पप्पू कारपेंटर का काम करता है। वह एक कुशल कारपेंटर है, भले ही अर्ध शिक्षित है और उसने घर में ही सीखा है । उसको काम पर लगाने के लिए 15 से 20 दिन पहले अपॉइंटमेंट लेना पड़ता है।
ऐसे ही पड़ोस के जिला सीतापुर के गड़िया गाँव का जगत और एक दूसरे गाँव का उमेश भी कुशल कारपेंटर है और यह तीनों लगभग 20000 रुपए प्रति माह कमा रहे हैं। क्या हम कहेंगे कि यह लोग बेरोजगार हैं? उनकी विशेषता यह है कि यह शारीरिक मेहनत करने से शर्माते नहीं है, सच्चे अर्थों में श्रमजीवी हैं। ऐसे ही करोड़ों कारीगर देश में होंगे जो अपनी रोटी-रोजी कमा रहे होंगे, सरकारी नौकरी के मोहताज नहीं, लाइन में खड़े नहीं।
इसी प्रकार गदेला गाँव का लल्लू और करुआ गाँव का मैकू जुड़ाई (राजमिस्त्री) का काम करते हैं। इन्हें भी कभी घर पर बैठना नहीं पड़ता, पहले से ही बुकिंग रहती है। इसी तरह लोहार जो आजकल वेल्डिंग आदि का काम करते हैं, उन्हें भी फुर्सत नहीं मिलती। यह व्यावसायिक वर्ग इनका जाति से सीधा संबंध नहीं रह गया है, अब वह व्यवसाय से जुड़े हैं। पहले के जमाने में कुम्हार, माली और ऐसे ही न जाने कितने छोटे व्यवसाय करने वाले समाज के द्वारा पोषित होते थे और कुछ हद तक अभी भी गांव में होते हैं। गाँव के मजदूर भी आजकल 10000 से 15000 रुपये महीना आसानी से कमाते हैं। इतना ही नहीं यह खेती भी करते हैं और इसलिए सीजन पर मजदूर मिलने नहीं आते क्या हम कहेंगे कि यह बेरोजगार हैं?
थोड़ा कम परिश्रम करने वालों में; दर्जी, छोटी दुकान चलाने वाले या फिर सब्जी उगाने और बेचने वाले लोग आते हैं। इनकी आय, घर चलाने के लिए आज की तारीख में पर्याप्त रहती है भले ही ऐशो-आराम के लिए ना हो। मांस-मछली की दुकान सब लोग तो नहीं चलाते लेकिन जो चलाते हैं, उनके लिए जीविका की व्यवस्था बन जाती है। इसी प्रकार गाँव में जो परिश्रम करने वाले किसान हैं उनके लिए, पशुपालन मुर्गी पालन, शूकर पालन (पिगरी) जैसे छोटे व्यवसाय भी उपलब्ध हैं बशर्ते कोई करना चाहे। न करने का एक कारण होता है, मार्केटिंग की कठिनाई, क्योंकि हमारे गाँव में मार्केटिंग व्यवस्था व्यवस्थित नहीं है। यह सब असंगठित रूप से रोजगार के साधन रहे हैं लेकिन, 90 के दशक में नरेगा नाम से एक संगठित कार्य योजना आरंभ की गई थी। सन 2000 में इसका नाम बदलकर मनरेगा अर्थात महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के रूप में चालू किया गया। क्योंकि यह पंचायत द्वारा चलाया जा रहा था, जो स्वयं अपने में चुस्त-दुरुस्त नहीं है, इसलिए यह कार्य योजना सफल नहीं हुई। इसमें ऐसा लगता है इच्छाशक्ति की कमी रही अन्यथा मार्शल टीटो की लैंड आर्मी की योजना की तरह इसे कामयाब बनाया जा सकता था। जिन्होंने बेरोजगारों की लैंड आर्मी बनाकर सारे देश में सड़कों का जाल बिछा दिया था, ऐसा ही हमारे देश में भी हो सकता था। इसी तरह चीन के अध्यक्ष माओत्से तुंग ने 1948 में चीन की आजादी के बाद गाँव-गाँव अपने वालंटियर भेज दिए थे। यह वॉलिंटियर न केवल गाँव वालों को काम बताते थे बल्कि काम पूरा करने का तरीका भी बताते थे, नतीजा यह हुआ कि चीन विकास में भारत से आगे निकल गया।
अशिक्षित और अर्ध शिक्षित ग्रामीणों के मुकाबले शिक्षित नागरिकों को रोजगार के लिए अधिक माथापच्ची करनी पड़ती है। इसका कारण यह है कि जैसा अंग्रेज शिक्षाविद मैकाले ने कहा था, हमें क्लर्क पैदा करना है, उसी का अनुसरण करते हुए देश की आजादी के 75 साल बाद भी हम क्लर्क ही पैदा कर रहे हैं। आजादी के बाद विकास की पंचवर्षीय योजनाएं चलाई गई लेकिन शिक्षा के मामले में कोई योजना नहीं थी, कि हमें किस क्षेत्र में किस विशेषज्ञता और निपुणता वाले कितने लोग चाहिए, इस पर कभी विचार नहीं हुआ। रूस जैसे देश ने योजना बनाई थी कि उसे आने वाले वर्षों में कितने डॉक्टर, इंजीनियर, कारीगर और टेक्नीशियन चाहिए होंगे, उसी के हिसाब से विद्यालय, टेक्निकल इंस्टिट्यूट और प्रशिक्षण संस्थान उन्होंने खोले थे। लेकिन हमारे देश में ऐसा कुछ नहीं हुआ और ऐसा लगा कि बस शिक्षा एक टाइम पास है और विद्यार्थी ने 10 पास किया फिर 11वाँ और 12वाँ किया और कुछ नहीं तो फिर उसने बी.ए. और एम.ए. कर डाला। यह डिग्रियां उसके लिए ज्ञान के वास्ते नहीं बल्कि समय गुजारने के लिए करनी पड़ी थी। इनको करने के बाद वह क्लर्क के अलावा और कुछ बन भी नहीं सकता था, लेकिन अब तो चार या छह लड़कों का काम अकेला एक कंप्यूटर कर लेता है। इसलिए क्लर्कों की माँग भी बेहद घट गई है और मैंकाले भी होता तो भी उन्हें नौकरी नहीं दे पाता।
यह सच है कि कौशल विकास के लिए अब अनेक संस्थान खोले गए हैं। फिर भी इन संस्थाओं से शिक्षा पाने वाले लोगों को नौकरी या रोज़गार की कोई गारंटी नहीं है। देश में विकास आरंभ हुआ और अधिक से अधिक इंजीनियर और डॉक्टरों की माँग बढ़ी भी लेकिन इतनी नहीं कि पैसे वाले लोग विदेश से डिग्रियां लेकर या फिर दक्षिण भारत के संस्थानों से कैपिटेशन फीस देकर और मार्केट में आ जाएं। इंजीनियर इसलिए बेकार या बेरोजगार हैं कि उनके लिए उपयुक्त काम उपलब्ध नहीं है, लेकिन डॉक्टर भी बेरोजगार हैं, क्योंकि वह गाँव जाना ही नहीं चाहते। वे तो केवल शहरों में शहरी जिंदगी बिताना चाहते हैं, वह भी उनके बीच में जो अच्छी फीस दे सके, अन्यथा कोई कारण नहीं कि गाँव में चिकित्सा व्यवस्था इतनी जर्जर हालत में हो और शहरों में डॉक्टर बेरोजगार रहें।
गाँव में तो शिक्षा की यह हालत है कि कक्षा पाँच या छह पास करके भी बच्चों को ठीक से हिंदी लिखना नहीं आता। अध्यापकों को मोटा वेतन जरूर मिलता है, लेकिन बच्चों की नींव बालू से भी अधिक कमजोर रहती है। ऐसे बच्चे गाँव से निकलकर लेखपाल प्राइमरी स्कूल के अध्यापक या ऐसी ही छोटी नौकरी पा जाएं तो अपने को धन्य समझते हैं। बेरोजगारी का एक कारण यह भी है की शिक्षा पद्धति कुछ ऐसी बनी है कि सभी को सफेद कॉलर वाली नौकरी चाहिए । मुझे याद है 1963 में जब मैं तेल एवं प्राकृतिक गैस कमीशन में कार्यरत था, तो रूस के दो वैज्ञानिक वी वी डेनी सोव और वी एम् कुजमिन मदद के लिए आए हुए थे। जहाँ कहीं भी, जब कभी भी, आवश्यकता होती थी, वह शारीरिक रूप से जुट जाते थे जब कि हमारे देश के सीनियर कर्मचारी खड़े रहते थे। यह मानसिकता ही मुख्य रूप से बेरोजगारी का कारण है। रोज़गार तो काम से मिलता है और काम जिस भाषा में होगा उसी भाषा के पढ़ने वालों को रोजगार मिलेगा। मुगलों के जमाने में उर्दू पढ़ने वालों को आसानी से नौकरी मिल जाती थी और यहां तक की मेरे बाबा ने मुझे भी उर्दू पढ़ने के लिए ठाकुर छत्रपाल सिंह के पास भेजा था। यह बात अलग है कि मुझे उर्दू से लगाव पैदा नहीं हुआ, हमने बाबा से कह दिया, मैं उर्दू नहीं पढ़ूंगा। अंग्रेजों के जमाने में अंग्रेजी पढ़ने वालों या जानने वालों को खूब नौकरी मिलती थी, इसलिए शहरों के लोग जो अंग्रेजी पढ़े होते थे, उन्हीं को नौकरी मिलती गई। गाँव के लोग अंग्रेजी की कौन कहे ठीक प्रकार से हिंदी भी नहीं जानते थे, इसलिए वह बेकार ही रहे, बेरोजगार रहे।
हमारे देश का दुर्भाग्य यह रहा कि जिन लोगों के हाथ में बागडोर आई वह अंग्रेजी के अलावा और कुछ जानते ही नहीं थे। उन्होंने अंग्रेजों के बीच में शिक्षा पाई थी, पले-बढ़े थे, अंग्रेजी मानसिकता को लेकर चल रहे थे और चलना चाहते थे। दुर्भाग्य यह भी है कि जो लोग हिंदी जानते थे या देश की भाषाएं जानते थे, उन्हें आरंभ में देश चलाने का मौका ही नहीं मिला। नतीजा यह हुआ कि सारा सरकारी कामकाज या व्यावसायिक काम सब अंग्रेजी के माध्यम से होता रहा, यहाँ तक कि आज भी हो रहा है। तब भारतीय भाषाओं को जानने और बोलने वालों को नौकरी कैसे मिलेगी? यही कारण है कि, गाँव के गरीब लोग भी लंबी फीस देकर अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ाना चाहते हैं, लेकिन गाँव में ढंग के अंग्रेजी स्कूल भी तो नहीं है। इस प्रकार बेरोजगारी की जड़ में जहाँ और कारण है, वही भाषा भी एक कारण है। हमारी आजादी के प्रारंभिक वर्ष बहुत ही महत्वपूर्ण थे और उन दिनों जो देश के कर्णधार थे वह कम्युनिज़्म से या कम्युनिस्ट व्यवस्था से प्रभावित होकर सारा व्यवसाय, कामकाज सरकारी हाथों में रखना चाहते थे। नतीजा यह हुआ कि जितने भी सरकारी संस्थान थे सब घाटे में चलने लगे और 60-70 के दशक में या थोड़ा उसके बाद यह होश आया कि नेहरूवियन अर्थव्यवस्था से जान छुड़ानी चाहिए, तब डिशइन्वेस्टमेंट जैसी योजनाएं आरंभ हुई । रोजगार तो इन्हीं सबसे आ सकता था, लेकिन जब वह संस्थान घाटे में चलेंगे तो रोजगार के अवसर बढ़ने के बजाय घटते चले जाएंगे और यही हुआ।
आजादी की लड़ाई के समय और आजाद भारत के प्रारंभिक वर्षों में भी खादी के कपड़े सम्मान की वस्तु होते थे, खादी बनाने वालों की संख्या बहुत बड़ी थी खादी एक उद्योग था। देश में तो खपत थी ही, इसका निर्यात होता था, लेकिन ज्यों-ज्यों कांग्रेस की साख गिरती गई, खादी की माँग घटती गई। इसका मुख्य कारण यह था, कि पहले कांग्रेस सरकार में शर्त थी खादी वस्त्र धारण करना, लोगों के लिए आकर्षण था और कांग्रेस की सदस्यता के लिए आवश्यक, लेकिन शायद 70 के दशक में यह शर्त हटा ली गई। खादी की दुकानों पर सन्नाटा छाने लगा और खादी उद्योग में लगे हुए लोग बेरोजगार हो गए। सच तो यह है कि हमारे प्रारंभिक आजाद भारत के नेता गाँधी का नाम तो जपते रहे, गांधी की दुहाई देते रहे और गांधी के नाम पर टिकट मांगते रहे, वोट मांगते रहे, लेकिन उनके मन में गांधी और गांधीवाद के लिए कोई जगह नहीं थी। जहाँ तक गाँव का संबंध है, उसके लिए गांधी जी का ग्रामोत्थान का विषय यदि अपनाया गया होता, तो गाँव में तो बेरोजगारी हो ही नहीं सकती थी।
आजादी के बाद जहाँ कुटीर उद्योगों की गाँव-गाँव में आवश्यकता थी, वहाँ बहुत बड़े-बड़े बांध बनाए गए, चाहे टिहरी भाखड़ा नांगल झमरानी जैसे बांध बने और न जाने कितने कितने बड़े-बड़े उद्योग चलाए गए जिनका गांधीवाद से कुछ भी लेना-देना नहीं था। चिंता शायद रोजगार सृजन की नहीं बल्कि दुनिया में अपनी हेकड़ी दिखाने की थी और विकसित देशों की लाइन में खड़े हो पाए, भले ही हमारे महल की न्यू रेतीले मिट्टी पर बनी हो। तो हर हाथ को काम और हर खेत को पानी वाली बात जो लोग करते थे वह भी गांधी जी के रास्ते पर नहीं चल पाए। इसके विपरीत जापान जैसे देश ने गाँव-गाँव में छोटे-छोटे कारखाने लगाकर और घरों में कल पुर्जों का उत्पादन आरंभ किया जिन्हें नजदीक के शहरों में ले जाकर असेंबल किया जाता था और संयंत्र बन जाते थे। अधिक से अधिक लोगों को रोजगार देने का यह अच्छा तरीका था; जो चीन, जापान, कोरिया और ऐसे तमाम घनी आबादी वाले देशों ने अपनाया था। लेकिन हमारे शुरू के नेता साम्यवादी व्यवस्था की नकल करते-करते ना तो हमारे सनातन व्यवस्था को संभाल पाए और ना नई व्यवस्था खड़ी कर पाए। इस सबके चक्कर में घनी आबादी और वह भी असंगत शिक्षा लेकर बेरोजगार होती चली गई।
प्रारंभिक वर्षों में कुटीर उद्योगों के बजाय भारी उद्योगों की तरफ आकर्षित होना बहुत महंगा पड़ा है। जहाँ आजादी के समय खेती से 90% लोग जुड़े थे आज 60 या 70% रह गए हैं लेकिन बाकियों को क्या रोजगार मिला कुछ कहा नहीं जा सकता। खेती के साथ दूसरे उद्योग जैसे पशुपालन, मछली पालन , लगाने में उन्हें संकोच होता है। आजकल गाँव जाता हूं तो आधे से अधिक घरों में ताले पड़े हुए दिखाई पड़ते हैं। पूछने से पता चलता है कि वह सब रोजगार की तलाश में शहर को गए हुए हैं, ज़्यादातर मजदूरी करने के लिए। इस सब का अंत कहां होगा? कहना कठिन है, शायद जो 70% कृषि कार्य में लगे हुए लोग हैं, वह अमेरिका और इंग्लैंड की तरह 30 या 35% रह जाएँगे। यदि गाँव वालों को अपने गाँव या उसके पास पड़ोस में कोई काम मिल पाता तब वह मजदूरी करने शहर को क्यों जाते । केवल काम की कमी नहीं आई है, बल्कि गाँव की स्वास्थ्य में भी बहुत गिरावट आई है, प्रति व्यक्ति दूध की जो खपत आजादी के शुरुआती वर्षों में थी, वह आधे से भी कम है। यदि किसी ने आंकड़े इकट्ठा किए हो, तो इसका सत्यापन हो सकता है। बेरोजगारी और भुखमरी दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, इनका निदान एक ही है, कि गाँव के लोगों को गाँव में रोजगार मिले और गाँव में पौष्टिक भोजन खाकर उनका स्वास्थ्य बना रहे।
शिक्षित बेरोजगारों की संख्या घटाने के लिए आवश्यकता इस बात की है कि हमारे देश की शिक्षा नियोजित की जाए। ऐसा ना हो कि हाई स्कूल, इंटर और आखिर तक निरुद्देश्य पढ़ते चले जाएं, क्योंकि एम.ए. करने के बाद अगर लेखपाल या प्राइमरी स्कूल के अध्यापक की नौकरी चाहिए, तो उसके लिए विदेश में ऐसे लोगों को ओवर क्वालिफाइड कहा जाता है। वांक्षित से अधिक शिक्षा होने पर उन्हें अवसर नहीं मिलता और यदि यहां भी ऐसा हो जाए तो लोग बिना मतलब क्यों डिग्रियां हासिल करेंगे। एक और बात पर विचार करना होगा कि जब किसी छात्र ने हाईस्कूल या इंटर पास किया, तो उसके सामने विकल्प क्या है ? एक तो आगे कॉलेज में जाना दूसरा योग्यता अनुसार नौकरी पाना। यदि ऐसे अवसर मिल जाएं तो बहुत से छात्र जो पढ़ने में कमजोर हैं, ज़्यादा रुचि नहीं है, एकेडमिक अध्ययन के लिए तो वह जरूर अवसर का लाभ उठाएंगे, लेकिन अफसोस की बात है, कि हमारे यहाँ ऐसे विकल्प उपलब्ध नहीं कराए गए हैं । जब मैं 60 के दशक में कनाडा में रिसर्च के लिए गया था तो उच्च शिक्षा की कक्षाओं में चार या पाँच छात्र हुआ करते थे। अधिकांश छात्रों को यथा-समय काम मिल जाता था और वह आगे पढ़ाई नहीं करते थे, लेकिन हमारे यहाँ बड़ी कक्षाओं के लिए भीड़ रहती है और एम.ए., एम.एससी. की कक्षाओं में 30-35 या 40 छात्र हो जाते हैं। इन छात्रों पर सरकार ने जो खर्च किया वह अनावश्यक है, क्योंकि वह अपना योगदान अपनी डिग्री के हिसाब से कर ही नहीं पाएंगे।
बेरोजगारी का मुकाबला करने के लिए गांधी जी के ग्रामोत्थान सिद्धांत को लेकर प्रयास होने चाहिए जिसके अनुसार स्थानीय कच्चे माल का प्रयोग करके कुटीर उद्योगों के माध्यम से सामग्री बनाई और बेची जाय। नियोजित शिक्षा को लागू करने में कुछ प्रजातांत्रिक मूल्य का त्याग तो करना होगा, लेकिन वह बेरोजगारी बढ़ाने से बेहतर रहेगा। शिक्षित बेरोजगारों की संख्या बढ़ाने में अनेक दूसरे लोग जिम्मेदार हैं जिसमें वे लोग हैं जिनके पास अथाह पैसा है और वह आमदनी का जरिया मानकर शिक्षण संस्थानों को; दुकान, मॉल या ईट भट्ठे की तरह चलाते हैं। हमारे देश में विद्यादान सबसे बड़ा दान था, लेकिन यह लोग संस्थाओं को त्याग और सेवा भाव से नही चलाते हैं, अफसोस है कि हमारी सरकारों का इनके ऊपर कोई नियंत्रण नहीं है। ऐसी संस्थाओं से लाभ केवल धनी लोगों का हो सकता है, क्योंकि फीस पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है और गरीब आदमी उनकी फीस दे नहीं सकता है। एक दूसरा वर्ग भी है जो अपनी हेकड़ी के बल पर बच्चों को विदेश भेज कर वहां से डिग्रियां हासिल करवाता है, लेकिन हमारे देश के बच्चे जब बाहर जाते हैं, उनके पास अगर पोस्ट ग्रेजुएट की डिग्री है तो दोबारा वहाँ पर पोस्ट ग्रेजुएट करना पड़ता है । ऐसी स्थिति में विदेशी डिग्रियों को भारत में मान्यता नहीं देनी चाहिए जैसा कि विदेशी संस्थान करते हैं। एक और तीसरा वर्ग है जो कैपिटेशन फीस देकर और ऐसी शिक्षा संस्थानों में बच्चों का एडमिशन करता है, जहां पर गरीब आदमी नहीं जा सकता। इन सब को देखते हुए आवश्यकता इस बात की है कि व्यावसायिक संस्थाएं केवल और केवल सरकार के द्वारा खोली जाएं और जो सेवा भाव से शिक्षा दान करना चाहते हैं, वह स्कूल कॉलेज और डिग्री कॉलेज खोलने के लिए अधिकृत किये जा सकते हैं। जब तक इस बात की गारंटी नहीं होगी कि सही तरीके से चयन होगा और सही लोगों का चयन होगा, नौकरियों में तब तक शिक्षा के प्रति आस्था नहीं आएगी।
शिक्षित बेरोजगारों की भीड़ को कम करने के लिए सरकार अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती, उसे अपना दायित्व निभाना ही होगा। शिक्षा को प्रांतीय विषय के स्थान पर राष्ट्रीय विषय बनाया जाना चाहिए और अखिल भारतीय स्तर पर शिक्षा की गुणवत्ता का पैमाना एक होना चाहिए। धन कमाने के लिए जो लोग शिक्षा संस्थान खोलते हैं, उन पर कठोर नियंत्रण होना चाहिए। शिक्षा को नॉन प्रोडक्टिव कार्यक्रम मानकर चलने से काम नहीं चलेगा। शिक्षा किसी भी देश के समग्र विकास की आधारशिला है और इस पर राष्ट्रीय बजट का कम से कम 10% व्यय होना ही चाहिए। अंग्रेजियत की गुलाम मानसिकता छोड़कर स्वाधीन स्वाभिमान, चिंतन सनातन, आधारित होना चाहिए। अब हमें क्लर्क पैदा करने की आवश्यकता नहीं बल्कि कुशल कारीगर और टेक्नोक्रेट पैदा करने की आवश्यकता है। कौशल विकास के अंतर्गत प्रवेश लेने वालों को काम की गारंटी दी जाने चाहिए और उच्च शिक्षा को नियंत्रित करना आवश्यक है। अनावश्यक रूप से उच्च शिक्षा की डिग्रियां लेकर बेकार घूमने से कोई लाभ नहीं, क्योंकि वह राष्ट्र निर्माण नहीं कर सकते। शिक्षा के हर स्तर पर विकल्प रहना चाहिए कि हमें अकैडमिशियन बनाना है, या फिर टेक्नोक्रेट। उच्च शिक्षा उन्ही को परमिट की जानी चाहिए, जो उसके योग्य हो।