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कठोर कानून से भी अपराधियों के हौसले पस्त नहीं हुए

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बलात्कारियों को फांसी की सजा निर्धारित तो हो गई लेकिन उससे अपराधियों को भय नहीं लगा क्योंकि कड़े कानून के जाल से भी निकलना उनके लिए कठिन नहीं, वकील जो बैठे हैं। अदालतों में मुकदमा दायर होने के बाद भी अपराध प्रमाणित हो सकेगा इसकी कोई गारंटी नहीं। पेशी पर पेशी होती रहेगी और पैसे के बल पर अपराधी टाइम पास करते रहेंगे। फरियादी कभी-कभी इंसाफ सुनने के पहले ही इस दुनिया से विदा हो चुकेंगे। गुनाह चाहे यौन उत्पीड़न का हो, साम्प्रदायिक दंगों में कत्ल का या सरकारी अत्याचार का या अन्य कोई, सभी की एक ही दशा है न्याय बहुत देर से मिलता है।

यौन उत्पीड़न के मामले पहले भी हुआ करते थे लेकिन लोक-लाज के कारण घर वाले ही गुनाह छुपा देते थे। दिल्ली का निर्भयाकांड 2012 में होने के बाद समाज में क्रोध का उफान आ गया। संसद के भीतर और बाहर इतना दबाव पड़ा कि तत्कालीन सरकार ने बलात्कार और हत्या की दशा में फांसी की सजा निर्धारित कर दी। उसके बाद भी सैकड़ों कांड हो चुके हैं। सात साल से लेकर 70 साल की लड़कियों और महिलाओं का बलात्कार हुआ है लेकिन किसी को फांसी मिली हो ऐसा मीडिया में नहीं आया, निर्भया के गुनहगारों को भी नहीं।

साम्प्रदायिक दंगों की बात करें तो हाशिमपुरा कांड का फैसला अभी जल्दी में करीब 40 साल बाद आया और सभी गुनहगार बरी हो गए। भागलपुर कांड में दर्जनों लोगों को तेजाब डालकर अंधा बना दिया गया था, पता नहीं किसी को सजा मिली या नहीं। सिखों के खिलाफ 1984 में दिल्ली के दंगों का फैसला अभी आना बाकी है और गोधरा, नरोदा पाटिया, मुजफ्फरनगर को फैसले के लिए और इंतजार करना होगा। समाज तो ऑनर किलिंग कर सकता है लेकिन राहत नहीं दे सकता। इसके विपरीत इस्लाम में तीन तलाक की व्यवस्था भी कोई अच्छा विकल्प नहीं है।

षणमुगम मंजूनाथ जैसे सच्चे अधिकारी का 2005 का कत्ल और अवैध खनन रोकने वाले ईमानदार सिपाहियों की मौत जिसमें कभी-कभी तो लाश के टुकड़े कर दिए जाते हैं या तन्दूर की भट्टी में जलाकर राख कर दिया जाता है, मगर इंसाफ यदि मिलता है तो बहुत देर हो जाती है। नोएडा का आरुषि कांड बहुतों को याद होगा, प्रकरण अदालत में लम्बित है। अपराधियों को दंडित न होना या न्यायिक प्रक्रिया में अत्यधिक विलम्ब लगना अपराधियों का दुस्साहस बढ़ाता है। बलशाली अपराधी तो सबूतों को ही नष्ट करा देते हैं और सबूतों के अभाव में इंसाफ नहीं हो पाता।

चुनावों की रंजिश हो, सम्पत्ति का झगड़ा हो, यौन दुराचार की नाकामी हो, जमीन जायदाद का झगड़ा हो, ऑनर किलिंग या कुछ और, हमारे देश में लोग अदालती फैसले का इंतजार नहीं करना चाहते, एक- दूसरे की जान ले लेते हैं। कुछ लोग कहते हैं इस्लामिक देशों में लोग कानून से डरते हैं क्योंकि वहां अपराधों का फैसला जल्दी होता है और अपराधी को दंड जरूर मिलता है लेकिन उसी व्यवस्था में अलकायदा, आइसिस, अलफतह और हरम जैसे संगठन पैदा होते हैं जिनको इस्लामिक न्याय व्यवस्था भी दंड नहीं दे पाती।

भू-माफिया चाहे बाहुबल के सहारे या फिर सरकारी अधिकारियों की मिलीभगत से गरीबों की जमीन पर कब्जा कर लेते हैं और किसान का जीवन अदालतों के चक्कर लगाते बीत जाता है। जमीन से जुड़े अपराध बढ़ते रहते हैं। जमीन से जुड़े मसले चूंकि दीवानी की श्रेणी में आते हैं उनके समय की कोई सीमा नहीं हो सकती। राम जन्मभूमि का इंसाफ मामला पिछले 68 साल से अदालतों में लटका पड़ा है।

पुलिस तंत्र जो अदालत में सबूत नहीं पेश कर पाता, सीबीआई जो जांच की दिशा का फोकस बदलता रहता है और दौलतमन्द जिसके बूते गुनहगार मुकदमे को मंजिल तक पहुंचने ही नहीं देते, जिम्मेदार हैं न्याय में विलम्ब के लिए।

sbmisra@gaonconnection.com

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