देश ने अपने आने वाले पांच साल के भविष्य का फैसला कर लिया है। पिछली सरकार को ही पांच साल और दे दिए। गौरतलब है कि भाजपानीत एनडीए 352 सीटों के साथ बहुमत पा कर सरकार बनाएगा। यह इतना भारी बहुमत है कि बेहिचक कहा जा सकता हे कि ऐसी सरकार बनवाने में सभी क्षेत्रों की हिस्सेदारी रही होगी। हालांकि भारत जैसे बड़े देश में सिर्फ सीटों की संख्या के आधार पर किसी तबके की हिस्सेदारी का अंदाजा लगाना काफी मुश्किल माना जाता है।
क्षेत्रीय विभिन्नता की वजह से अलग अलग चुनावी मुद्दों में यह पता करना भी आसान नहीं होता है कि वोट किस आधार पर दिया गया है। यह मुश्किल तब और ज्यादा बढ़ जाती है जब ग्रामीण और शहरी भारत के मुद्दों का फर्क बहुत बड़ा हो। कई लोग तो ग्रामीण भारत और शहरी भारत को अलग अलग करके भी देखते हैं। गौरतलब है कि भारतीय लोकतंत्र में ग्रामीण भारत की भागीदारी पचास फीसद से ज्यादा है। इसे मानने में भी किसी को कोई अड़चन नहीं होनी चाहिए कि ग्रामीण और शहरी मतदाता की मांगें, समस्याएं, मुद्दे, सोच सब एक दूसरे से बिलकुल अलग है।
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गौरतलब यह भी है कि देश की चुनावी प्रक्रिया से पहले और उसके दौरान टीवी इन्टरनेट में सबसे ज्यादा नज़र आता है वह शहर का मतदाता होता है। ये ही लोग फेसबुक, ट्विटर और टीवी चैनलों में माहौल बना रहे होते हैं। ऐसे में गाँव और वहां रहने वालों के सरोकार के मुद्दे चुनावी प्रचार में मुख्य चुनावी मुद्दे कम ही बन पाते हैं। इसीलिए चुनाव नतीजों के बाद ही पता लग पता है कि ग्रामीण भारत ने कहाँ किसको किस आधार पर वोट दिए। इससे उस क्षेत्र के तय चुनावी मुद्दे सफल रहे या नहीं इसका अंदाजा भी लगता है।
अब तक के चुनावी विश्लेषणों के मुताबिक इस चुनाव में जो मुख्य मुद्दे जीते वे राष्ट्रवाद, आंतकवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा माने गए हैं। जबकि गाँव के सामने पानी का संकट, फसल की सरकारी खरीद, उचित मूल्य, अच्छे बाज़ार, गाँव में रोज़गार, सड़क, बिजली जैसे सवाल थे। इनमें से कुछेक बातें भाजपा के घोषणापत्र में शामिल भी थीं। अब जब इतने प्रचंड बहुमत से भाजपा को समर्थन मिला है तो यह भी मानना ही पड़ेगा कि इसमें ग्रामीण भारत का भी बड़ा योगदान रहा होगा। और इसीलिए चुनाव नतीजों के बाद भाजपा के घोषणा पत्र को याद जरूर किया जाना चाहिए। साथ ही साथ इस बात को भी दोहराया जाना चाहिए कि देश के किसान और गांव अपनी नई सरकार से क्या उम्मीद लगाकर बैठे हैं।
इस चुनाव में गांव की हिस्सेदारी की खास बात
इस चुनाव में सन सैंतालीस के बाद से सबसे ज्यादा वोट डाले गए। इस बार का मतदान प्रतिशत 67.11 फीसद रहा। यह पिछले चुनाव से डेढ़ फीसद ज्यादा है। यह आंकड़ा मुख्य रूप से उत्तर के राज्यों में बढ़ा। वैसे आम तौर पर माना जाता है कि ज्यादा मतदान सत्ता विरोधी लहर की स्थिति में होता है। लेकिन इस बार के नतीजे उस धारणा को गलत साबित कर रहे हैं। कई इलाकों में ग्रामीण मतदान ज्यादा ही बढ़ा है। वह किस पक्ष में गया?
नतीजों के बाद इसका अंदाजा कोई भी लगा सकता है। हालांकि पिछले दिनों देश भर में हुए किसान आंदोलनों और ग्रामीण रोष के परिप्रेक्ष्य में इस बात का तर्क ढ़ूढने में कई जानकार लगे हैं। लेकिन मीडिया में ग्रामीण मतदाताओं से जो बातचीत सुनवाई जा रही है उसमें सत्तादल के पिछले कार्यकाल में लाई गई नीतियों को लेकर विशवास दिखाया गया है।
इन साक्षात्कारों में गांव के लोग सरकार की नीतियों की तारीफ करते दिखाए जा रहे हैं। लेकिन उन नीतियों के क्रियान्वन से वे असंतुष्ट दिख रहे है। गौरतलब यह है कि अगले पांच साल में व्यवस्थाओं को दुरुस्त करने की उम्मीद लगाई जा रही है। फसल बीमा, किसान पेंशन, सम्मान निधि जैसी योजनाओं की सफलताओं का आकलन किसानों को मिले लाभ के आंकलन के बाद ही किया जा सकता है। सरकार के दूसरे कार्यकाल में हो सकता है कि इस नुक्ते पर गौर करने की जरूरत पड़े।
किसानों से किए कौन से वायदे हैं खास
सरकार के पिछले कार्यकाल में सबसे आकर्षक वायदा था सन 2022 तक सभी किसानों की आय दुगनी करना। यह समयबद्धता पिछले कार्यकाल के आगे की थी। सो जबाव देही नहीं बनती थी। लेकिन अब जब सरकार को दूसरा कार्यकाल भी हासिल हो गया है तो दो साल के भीतर यह वायदा पूरा करने का भारी दबाव सरकार पर रहेगा। किसान की आय बढाने के लिए सरकार किस तरीके से सरकारी खरीद और किसान मंडियों की व्यवस्था को दुरुस्त कर पाती है? इसे गौर से देखा जाएगा।
चुनावी घोषणा पत्र में दूसरी बड़ी बात थी कि पांच सालों में कृषि पर 25 लाख करोड़ खर्च किए जाएंगे। यानी हर साल 5 लाख करोड़ रुपए। जाहिर है दोबारा चुनाव जीतने के बाद सरकार को बजट के दौरान ही यह वायदा पूरा होते दिखाना होगा। यह भी गौरतलब है कि इस साल का पूर्ण बजट दो तीन महीने के भीतर ही पेश करना होगा।
चुनाव के कुछ पहले ही सरकार ने 2 हेक्टेयर से कम ज़मीन वाले किसानों के खाते में पांच सौ रुपए महीना डालने का काम शुरू किया था। लेकिन उसके कुछ दिनों बाद ही सत्तारूढ़ दल ने अपने चुनावी घोषणापत्र में एक और वायदा जोड़ दिया था कि दुबारा सत्ता आने के बाद इस योजना में हर किसान को शामिल कर दिया जाएगा। यानी हर किसान परिवार को यह रकम मिलेगी। जाहिर है इसे लागू करने में सरकार को जल्दी करनी पड़ेगी।
चुनावी घोषणापत्र में अनाज के भंडारण और कोल्ड स्टोरेज की संख्या बढाने का संकल्प था। वायदा है कि राष्ट्रीय राजमार्गों के किनारे वेयरहाउसिंग ग्रिड बनाए जाएंगे। और ग्राम भंडारण व्यवस्था बनाई जाएगी। पिछली सरकार को एक बार और मौका मिला है तो 30 फीसद अनाज की बर्बादी करने वाले देश में शायद अब बेहतर भण्डारण की व्यवस्था हो पायेगी।
जैविक उत्पादों की बढती मांग को देखते हुए 20 लाख हेक्टेयर ज़मीन पर जैविक खेती को बढ़ावा देने का वायदा उतना बड़ा भले न हो, लेकिन इस तरह की खेती की जटिलता का मसला आड़े जरूर आएगा। इस काम के लिए कुछ ज्यादा ही सरकारी मदद की जरूरत पड़ेगी। सिर्फ जागरूकता अभियानों के जरिए ऐसे काम हो पाना बहुत मुश्किल माने जाते हैं।
किसान क्रेडिट कार्ड पर क़र्ज़ मुक्त लोन, फसल बीमा को स्वैच्छिक बनाने जैसे और भी वायदे किसानों से किए गए थे। बहरहाल, आने वाले समय में गाँव बड़ी उम्मीदों से अपनी सरकार को देखेगा कि वह इन वायदों को कितनी तेज़ी से पूरा कर पाती है।
सबसे बड़ी चुनौती क्या है नयी सरकार के सामने
इस समय सबसे बड़ी चुनौती जल संकट के रूप में पूरे देश के सामने खड़ी है। चुनाव के शोर में किसी का ध्यान नहीं गया लेकिन आधा देश भीषण सूखे से जूझ रहा है। पश्चिम भारत में जल संकट अब आपातकाल की स्थिति में पहुँच चूका है। पूर्व मानसून भी 22 फीसद कम हुआ है। बारिश में देरी के अंदेशे भी लगाये जा रहे हैं। कई बाँध और जलाशय पिछले कई दशक के निचले स्तर पर पहुँच चुके हैं। कई क्षेत्रों में भूजल समाप्त होने की कगार पर है। ऐसे में किसान के लिए यह सबसे भीषण समय है।
भाजपा ने अपने संकल्प पत्र में इस साल दिसम्बर तक अधूरी पड़ी जल परियोजनाओं को पूरा करने की बात कही थी। लेकिन फिलहाल जैसे हालात हैं उसमें सब छोड़ छाड़ कर प्राथमिकता पर पानी की गम्भीर किल्लत से जूझते ग्रामीण भारत को हर मुमकिन राहत पहुँचाने के काम में लग जाना चाहिए।