किसानों को चिंता करने की जरूरत नहीं

Ravish Kumar

टीवी में तो ग्राउंड रिपोर्टिंग खत्म ही हो गई है। इक्का-दुक्का संवाददाताओं को ही जाने का मौका मिलता है। दिनभर उन पर लाइव का इतना दवाब होता है कि वे डिटेल में काम ही नहीं कर पाते हैं। जब तक रिपोर्ट बनाने की नौबत आती है, चैनल को उनकी ज़रूरत ही समाप्त हो चुकी होती है क्योंकि बहस की बकवासबाज़ी का वक्त हो चुका होता है।

कुछ रिपोर्टर इसी में अच्छा काम कर जाते हैं, बहुत से यही रोने में अपनी प्रतिभा निकाल देते हैं क्या करें ये करें कि

वो करें। रिपोर्टिंग बंद होने और जनता के मुद्दों पर बहस बंद होने का दबाव मैं दूसरी तरह से झेल रहा हूं। हर दिन आफिस में दस चिट्ठियां आती हैं। बहुत मेहनत से दस्तावेज़ों के साथ भेजी गई होती हैं। बहुत से आर्थिक घोटालों को समझने की मुझ में क्षमता भी नहीं है और न ही स्वतंत्र रूप से जांच कराने का संसाधन है। बग़ैर सत्यापित किए चलाने का ख़तरा आप समझते ही हैं।

मन मचल कर रह जाता है। दिनभर व्हाट्सअप भी दूरदराज़ के इलाकों से ख़बरें आती रहती हैं जिन्हें करने के लिए लगन, वक्त और संसाधन की ज़रूरत होती है। जो है नहीं। नतीजा आप देख कर अनदेखा करते हैं और उलाहना सुनते हैं कि आपसे ही उम्मीद है। बाकी सब तो बिक गए हैं। जब सब बिक गए हैं तो मैं सारी उम्मीद नहीं पूरी कर सकता।

ये भी पढ़ें- प्रधानमंत्री मोदी अमेरिका, पुर्तगाल और नीदरलैंड की यात्रा पर रवाना

मगर लोग नहीं मानते हैं। वे अपना बोझ मुझ पर डाल देते हैं और मैं अपराध बोध में शर्मिंदा होता रहता हूं। ख़ुद को अपराधी समझने लगता है। स्टोरी के साथ न्याय भी करना पड़ता है मगर यहां तो न कर पाने का बोझ अन्याय की तरह लगने लगता है।

कहीं अखबारों में उन्हें कवर भी हुआ है तो कुछ नहीं हुआ है। अख़बार से हार कर वो टीवी की तरफ देखते हैं। टीवी के ज़्यादातर हिस्सों में अब वैसी ख़बरों के प्रति रूझान नहीं रहा। योग पर फालतू तस्वीरें दिन भर दिखा सकते हैं मगर मुरैना के मज़दूरों की व्यथा कोई नहीं दिखाएगा। ऐसा कोई विषय होगा जिसमें कोई मुसलमान हो, पाकिस्तान हो और राष्ट्रवाद हो तो ही टीवी उसे जगह देगा। मुझे लगता है कि चैनलों ने जनता का गला घोंट दिया है।

वो जनता जिसे सिस्टम विस्थापित करता है। वो जनता तो इसी चैनलों के सामने मज़े लेती है, जिसका जनता से ही कोई सरोकार नहीं है। हर समय कुछ न कर पाने के अहसास लिए आप कब तक जी सकते हैं। समाज ने भी इसी टीवी को स्वीकार किया है। समाज को इस टीवी के बारे में जितना बताना था, बोलना था, बोला ही, मगर किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा।

एक अकेला एंकर सारी खबरों का विकल्प नहीं हो सकता और न ही सारी ख़बरें कर सकता है। न तो मैं सौ रिपोर्टर रख सकता हूं और न ही सौ ख़बरें कर सकता हूं। इस बोझ को हल्का करने का यही उपाय है कि दूसरे की अच्छी रिपोर्ट का हिन्दी अनुवाद करें या हिन्दी में है तो आपसे साझा करें।

आप इंडियन एक्सप्रेस के हरीश दामोदरन की खेती-किसानी पर रिपोर्ट पढ़ सकते हैं। हरीश जी बहुत ही शानदार रिपोर्टिंग कर रहे हैं। हिन्दी के युवा पत्रकारों को उन्हें फोलो करना चाहिए। हिन्दी के भी पत्रकार करते हैं मगर अखबार का चरित्र ही ऐसा है कि वे भी क्या करें।

हिन्दी पत्रकारों के बीच अंग्रज़ी अख़बारों की कुलीनता का मज़ाक उड़ाया जाता है लेकिन आप ही बताइये कि इंडियन एक्सप्रेस के द रूरल पेज की तरह कौन सा हिन्दी अख़बार खेती-किसानों को इस तरह जगह देता है। गाँव कनेक्शन जैसा अखबार पूरी तरह से खेती-किसानी पर ही समर्पित है मगर कितने हिन्दी भाषी पत्रकार उसे पढ़ते हैं या उसकी ख़बरों को साझा करते हैं।

ये भी पढ़ें- 17 साल का ये छात्र यू ट्यूब पर सिखा रहा है जैविक खेती के गुर

आप जानते हैं कि पिछले साल अरहर का भाव 9000-10000 प्रति क्विंटल चला गया। सरकार ने किसानों से कहा और किसानों ने खूब अरहर बो दिया। नतीजा यह हुआ कि अरहर का भाव क्रैश कर 3500 रुपए प्रति क्विंटल से भी नीचे आ गया।

हरीश ने लिखा है कि अब किसान अरहर छोड़ नगदी की तलाश में वापस कपास की तरफ लौटने लगे हैं। इस बार किसानों ने जमकर कपास की बुवाई की है। नतीजा यह हुआ है कि दाल की बुवाई का क्षेत्रफल घट गया है। हरीश ने बताया है कि एक एकड़ कपास की बुवाई से लेकर कटाई में पचीस हज़ार रुपए की लागत आ जाती है। किसानों का अनुमान है कि अगर 5000 रुपए प्रति क्विंटल का भी भाव मिला तो एक एकड़ में होने वाले 12 क्विंटल कपास की कीमत 35000 मिल जाएगी।

बाज़ार में दाल का भाव गिर गया है। सरकार ने 400 रुपए न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाया है। सोयाबीन का भी दाम गिरा है। प्रति क्विंटल सोयाबीन का भाव था 300-3700 रुपया जबकि मिल रहा है 2400-2500 प्रति क्विंटल। हरीश बताते हैं कि एक एकड़ सोयाबीन की खेती में लागत आती है 10,000 रुपए।

आप अंदाज़ा कर सकते हैं कि किसानों की क्या हालत होती होगी। अभी तो आप यह जानते ही नहीं हैं कि दाल का आयात और भंडारण करने वाली कंपनियों ने कितना कमाया जबकि उगाने वाला किसान मर गया। हरीश ने इस सवाल पर भी 22 जून के रूरल पेज पर रिपोर्ट लिखी है कि क्या स्वामीनाथन फार्मूले के तहत किसानों को लागत का पचास फीसदी जोड़कर दाम दिया जा सकता है, जिसका वादा बीजेपी ने किया था।

ये भी पढ़ें- हिंदी और अंग्रेजी, दोनों भाषाओं में बनेंगे पासपोर्ट : सुषमा स्वराज

हरीश बताते हैं कि 2006 में जब किसानों पर बने राष्ट्रीय आयोग ने अपनी रिपोर्ट दी तो यही नहीं बताया कि औसत लागत किस फार्मूले से निकाली जाएगी। कृषि लागत और मूल्य आयोग ने तीन फार्मूले दिए हैं। A2, A2 +FL, C2 स्वामीनाथन ने सभी 14 फसलों के लिए A2 के तहत न्यूनतम मूल्य निकाला था। किसी फसल की बुवाई के लिए बीज, खाद, रसायन, मज़दूर, सिंचाई वगैरह की ज़रूरत होती है। आप नगद चुकाते हैं या फिर काम के बदले अनाज भी देते हैं। ये सब जोड़कर लागत का मूल्य तय किया गया था।

हरीश ने एक तालिका बनाई है और कहा है कि सरकार स्वामिनाथ के हिसाब से न्यूनतम समर्थन मूल्य तो देती है मगर उसमें लागत का पचास फीसदी नहीं जोड़ती है। जैसे तीनों फार्मूले के हिसाब से आप धान का समर्थन मूल्य निकालें तो यह 840, 1117, 1484 रुपए प्रति क्विंटल होता है जबकि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य देती है 1,550 रुपए प्रति क्विंटल।

न्यूनतम समर्थन मूल्य में लागत का पचास फीसदी जोड़कर किसी में भी नहीं दिया जाता है। सिर्फ तीन ही फसल हैं जिनमें लागत का डबल दिया जाता है। बाकी 12 फसलों में नहीं दिया जाता है।

अरहर की लागत मूल्य A2 के हिसाब से 2,463 रुपए है और न्यूनतम समर्थन मूल्य तय हुआ है 5050 रुपए प्रति क्विंटल। यह डबल तो है मगर यह भी किसानों को नहीं मिलता है। सरकार सभी किसानों की सभी दालें नहीं खरीदती है। बाज़ार में भी ये भाव नहीं मिलता है। और अगर आप C2 के हिसाब से लागत निकालेंगे तो किसी भी फसल में पचास फीसदी मुनाफे को सुनिश्चित नहीं किया जाता है।

C2 फार्मूलों को ज़्यादा बेहतर माना गया है क्योंकि इसमें ज़मीन किराये पर लेने की लागत भी होती है। उस पैसे के ब्याज़ को भी शामिल किया जाता है। अगर आप यह सब जोड़ लें तो किसान को उसकी फसल का दाम ही नहीं मिलता है। एक्सप्रेस अख़बार में हरीश की तालिका देखेंगे तो आपको खेल समझ आ जाएगा। किसानों को भी चिंता करने की ज़रूरत नहीं।

चुनाव में उन्हें पाकिस्तान और क़ब्रिस्तान का मुद्दा दे दिया जाएगा। उसके बाद फांसी का फंदा ख़ुद खोजते रहेंगे। गुरुवार को भी मध्य प्रदेश में दो किसानों ने आत्महत्या की है।

(लेखक एनडीटीवी में सीनियर एग्जीक्यूटिव एडिटर हैं। ये उनके निजी विचार हैं)

ताजा अपडेट के लिए हमारे फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए यहां, ट्विटर हैंडल को फॉलो करने के लिएयहांक्लिक करें।

Recent Posts



More Posts

popular Posts