परिजात घोष/दिब्येंदु चौधरी
पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के हजारों किसान दिल्ली में कृषि क़ानूनों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं। देश के कई किसान संगठन भी इसे अपना समर्थन दे रहे हैं। किसानों का कहना है कि वे दिल्ली से तब तक नहीं जायेंगे जब तक कि कृषि बिल वापस नहीं ले लिए जाते। समाज के दूसरे वर्ग के लोग भी किसानों का समर्थन कर रहे हैं और सोशल मीडिया के माध्यम से भी बहुत से लोग किसानों का समर्थन कर रहे हैं।
दूसरी तरफ़ सरकार का कहना है कि कृषि बिलों के बारे में किसानों को विपक्षी पार्टियां गुमराह कर रही हैं और ये कृषि बिल किसानों के लिए फ़ायदेमंद हैं। सरकार इन बिलों का अमल कुछ दिनों के लिए टालने का प्रस्ताव तो दे रही है लेकिन क़ानूनों पूरी तरह वापस लेने के लिए तैयार नहीं है।
वास्तविकता में छोटे और सीमांत किसान, जो देश के कुल किसानों का 85% हैं, उनकी की स्थिति है क्या? जिन किसानों के पास दो हेक्टेयर (5 एकड़) से कम खेती की ज़मीन है वे छोटे और एक हेक्टेयर से कम (2.5 एकड़) ज़मीन वाले किसान सीमांत कहलाते हैं। भारत में सीमांत किसान, जिनकी हिस्सेदारी 65% है, के पास औसतन एक एकड़ (0.4 हेक्टेयर) और छोटे किसानों के पास औसतन तीन एकड़ (1.21 हेक्टेयर) ज़मीन ही है।
किसी किसान के पास एक एकड़ ज़मीन होने के क्या मायने हैं? इसे धान उगाने वाले क्षेत्र के उदाहरण से समझते हैं। भारत में प्रति एकड़ औसतन 1,000 किलो धान का उत्पादन होता है। अच्छी गुणवत्ता वाले धान से मिलिंग के बाद औसतन 65-70 किलो चावल निकलता है। इसका मतलब यह है कि सब कुछ होने के बाद एक एकड़ धान के खेत से लगभग 670 किलो चावल मिलता है।
पांच सदस्यों वाले एक ग्रामीण परिवार में जहां चावल ही मुख्य उपज है, वहां औसतन दो किलो चावल की खपत प्रतिदिन होती है। इस तरह देखें तो ऐसे परिवार को सालाना 730 किलो चावल की जरूरत पड़ती है। इसके अलावा, ग्रामीण क्षेत्रों में, लोहार, नाई, चरवाहा और इस तरह के कई लोग जो धान उत्पादन वाले क्षेत्रों में रहते हैं, उन्हें काम के बदले पैसे की बजाय धान देने की प्रचलन है। इस तरह देखें तो देश में रहने वाले सीमांत किसान अपने खाने भर के लिए भी पर्याप्त अनाज पैदा नहीं कर पाते।
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मध्य भारतीय पठारी क्षेत्र में तो धान की औसतन पैदावार बहुत कम है, लगभग 800 किलो प्रति एकड़। यहां तक कि छोटे किसान अपने परिवार के लिए एक साल का पर्याप्त अनाज पैदा नहीं कर पाते हैं। इसमें से ज्यादातर किसानों की ज़मीन तक सिंचाई के साधन नहीं हैं और वे एक साल में एक ही फसल उगा पाते हैं।
छोटे और सीमांत किसानों को एमएसपी और पीडीएस का सहारा
इनमें से 90 फीसदी किसान सिर्फ अपने भरण-पोषण के लिए न केवल अधिक अनाज खरीदते हैं, बल्कि वे अपनी उपज का एक हिस्सा राशन और अन्य जरूरी सामान खरीदने के लिए बेचते भी हैं। सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP), और सरकार की ख़रीद प्रणाली से इन किसानों को धान और गेहूं के बदले एक सामान्य कीमत मिल जाती है। नहीं तो फसल कटाई के बाद बाजार में फ़सलों की कीमत इतनी गिर जाती है कि किसानों को उनकी लागत के बराबर भी कीमत नहीं मिलती। बाजार का यही नियम है, जब एक ही उत्पाद बहुत से लोग बेचने लगते हैं तो उसकी कीमत गिर जाती है।
इनमें से ज्यादातर किसान गरीबी की रेखा से नीचे की श्रेणी में आते हैं और इन्हें अनाज (गेहूं और चावल) सब्सिडी रेट पर सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के तहत मिलता है। ये किसान एमएसपी और सरकार की खरीद प्रणाली का लाभ लेते हुए धान और गेहूं ज्यादा कीमत पर बेचते हैं, और फिर वही अनाज कम कीमत पर पीडीएस (राशन की दुकानों से) के तहत लेते हैं।
छत्तीसगढ़ में भाजपा की पिछली सरकार ने रमन सिंह के नेतृत्व में इस दोहरी व्यवस्था का क्रियान्वयन बड़ी सफलता से किया था, और इसने राज्य में छोटे और सीमांत किसानों की परेशानियों को काफी हद तक कम कर दिया।
नए क़ानूनों के पक्ष में क्या तर्क है?
केंद्र सरकार का दावा है कि इन क़ानूनों से कृषि क्षेत्र स्वतंत्र हो जाएगा। पिछले कुछ दशकों से कृषि क्षेत्र का विकास ठहरा हुआ है, ऐसे में स्वतंत्रता का मतलब नये कानून को लागू करना जो इस क्षेत्र में विकास लाएगा। उदाहरण के तौर पर जैसे ही एपीएमसी मंडी के बाहर सभी उत्पादों की ख़रीद-बिक्री होने लगेगी,किसानों को कोई मंडी फ़ीस नहीं देगी, खरीदारों के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और किसानों को संभवत: अपनी उपज की सबसे अच्छी कीमत मिलेगी। स्थानीय उद्यमी कृषि उपज के व्यापार के लिए आगे आ सकते हैं। कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग से किसानों को उत्पादन का जोखिम कम होगा क्योंकि कॉर्पोरेट आधुनिक तकनीकों के साथ आएँगे और किसानों को एक सुनिश्चित रकम मिलेगी।
देखते हैं इन क़ानूनों की संभावनाएं कि कैसे ये कानून किसानों को प्रभावित करेंगे और किसान क्यों चाहते हैं कि इन्हें वापस लिया जाे।
किसानों को क्या लगता है?
एमएसपी कभी कानून नहीं था। जबकि केंद्र सरकार सूचनाओं के माध्यम से देश भर की 23 फ़सलों के एमएसपी की घोषणा करती है। नया कानून एमएसपी को खत्म नहीं करता। जबकि ये कानून खरीदारों को बिना किसी नियम कानून के एपीएमसी मंडी के बाहर सीधे किसानों से उत्पाद खरीदने की छूट देते हैं। ऐसी स्थिति में एमएसपी को एक कानून बनाया जाना चाहिए था, इससे किसानों को ज्यादा मोलभाव करने की शक्ति मिलती। एमएसपी एक मानक कीमत तय कर सकता है जहां से मोलभाव की शुरुआत होती। ऐसे में जब मंडी के आसपास कोई कानून नहीं रहेगा, किसानों को नुकसान होने संभावनाएं ज्यादा हैं।
यदि छोटे और सीमांत किसान अनुबंध खेती (कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग) में जाते हैं तो उनके जीवन पर प्रभाव पड़ेगा। पहला जब किसान अपनी पसंद के अनुसार फसल चुनते हैं तो उनके लिए छह से नौ महीने का भोजन, चारा, ईंधन और यहां तक की दवा की भी व्यवस्था हो जाती है। अनुबंध खेती में कॉर्पोरेट्स बाजार की मांग के अनुसार फसल का चयन करेंगे, वे यह नहीं देखेंगे कि किसान परिवार की जरूरत क्या है। यह आर्थिक रूप से कमजोर किसानों को और दयनीय बना देगा।
दूसरा, पूंजीवाद में पिछली बार की तुलना में कम कौशल वाली नौकरियों को व्यवस्थित करने की व्यापक प्रवृत्ति होती है। इस प्रवृत्ति को डीस्किलिंग कहते हैं। कारख़ानों में यह श्रम विभाजन के आधार पर किया जाता है। कृषि में यह किसानों से बीज, कीटनाशक, उर्वरक और निगमों का नियंत्रण लेकर कॉरपोरेट के हाथों में चला जाता है, जो कॉरपोरेट को ये अधिकार देता है कि वे कृषि कार्यों को नियंत्रित कर सकें।
इस पूरी प्रक्रिया की वजह से किसान खेती में अपनी जानकारी का उपयोग नहीं कर पाते, बल्कि वे बीज और कीटनाशकों के पैकेट पर लिखे निर्देशों का पालन करते हैं। अनुबंध खेती किसानों में को कम करेगी। सब कुछ कॉर्पोरेट्स के नियंत्रण में होगा और किसान मज़दूर बन कर रह जाएगा।
धीरी-धीरे किसानों की रुचि कम होने लगेगी और वे गांवों से पलायन करने लगेंगे जहां वे खुद के खेती को भी नियंत्रित नहीं कर सकते। और फिर एक स्तर पर सभी छोटे और सीमांत किसानों की ज़मीनें कुछ कॉर्पोरेट्स के हाथों में चली जाएंगी।
धान, आलू और प्याज जैसी कृषि उपज को अब आवश्यक वस्तुओं की श्रेणी में नहीं माना जाएगा, और इनके स्टॉक की अब कोई सीमा नहीं होगी। जिसकी वजह से धान, आलू, प्याज और अन्य खाद्य पदार्थों की कीमत इस हद तक बढ़ सकती है कि किसान जो शहरी मज़दूर बन चुका होगा, उन खाद्य पदार्थों को ख़रीद पाने में सक्षम नहीं होगा।
पंजाब और हरियाणा के किसान विरोध में सबसे आगे क्यों?
पंजाब और हरियाणा की ज्यादातर उपज की बिक्री एपीएमसी मंडियों में होती है। किसानों को अच्छी कीमत मिलती है, आढ़तियों को कमीशन और राज्य सरकार को इस लेन-देन से राजस्व की अच्छी प्राप्ति होती है। नये कृषि क़ानूनों की वजह से इन राज्य सरकारों का राजस्व 13 फीसदी तक कम होगा। आढ़ती, जिनका किसानों से लंबा संबंध है, और जो किसानों को फ़सल के लिए कर्ज़ देते हैं और उनकी फ़सल ख़रीदने की गारंटी देते हैं, वो अपना कमीशन खो देंगे।
किसानों ने आशंका जताई कि चूंकि राज्य सरकार को अब कोई राजस्व नहीं मिलेगा, इसलिए एमएसपी की ख़रीद प्रणाली को समाप्त कर दिया जाएगा। किसान कॉरपोरेट्स की दया पर होंगे, आढ़तियों की तरह फसल के उत्पादन में उनकी मदद नहीं करेंगे, बल्कि एपीएमसी मंडियों के बाहर उनका शोषण करेंगे।
इन क़ानूनों की मांग किसने की?
निश्चित रूप से, किसान नहीं! इन बिलों का मसौदा तैयार करते समय किसान संगठनों के साथ सरकार ने कोई चर्चा नहीं की। भूमिहीन कृषि मज़दूर लंबे समय से कृषि में न्यूनतम मज़दूरी के लिए कानून की मांग कर रहे हैं, जिसे कभी नहीं माना गया। अब हमारे पास ऐसे क़ानूनों हैं जो छोटे और सीमांत किसानों को और दयनीय हालत में पहुंचा देंगे। ये कानून उस भविष्य की तरफ़ इशारा करते हैं जहां हमारे विधि निर्माता देश को ले जाना चाहते हैं, और वह दिशा व्यावसायिक घरानों को खेती और कृषि व्यापार के क्षेत्र में काम करने की अधिक स्वतंत्रता देता है, जो छोटे और सीमांत किसानों के हितों के खिलाफ है।
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(लेख में जो कुछ भी लिखा है, ये लेखकों के अपने निजी विचारों हैं।)
अनुवाद- इंदु सिंह