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किसान तय करेंगे 2019 के चुनाव के बाद कौन बैठेगा गद्दी पर

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डॉ. एम. एस. बसु

मैंने ऐसे परिवार में जन्म लिया है जो पीढ़ियों से खेती से जुड़ा रहा है, इसलिए किसानों और उनसे जुड़े मुद्दों पर मेरे मन में स्वाभावत: सहानुभूति रहती है। भारत एक कृषि प्रधान देश है जहां खेती की उपेक्षा खतरनाक साबित हो सकता है। जवाहर लाल नेहरू ने सही कहा था, “ खेती के अलावा हर चीज इंतजार कर सकती है,” उसी समय गांधी जी ने भी कहा था, “भारत का भविष्य उसके गांवों में है।” इन बयानों को हमेशा चुनावों के समय तो याद किया जाता है लेकिन इसके अलावा इन्हें कभी तवज्जोह नहीं दी गई। वर्तमान सरकार के समय में भी यही हो रहा है। पहले ही दिन से सारा जोर स्मार्ट गांवों या स्मार्ट खेती से ज्यादा स्मार्ट शहरों पर था, किसानों के उत्पाद लाभकारी दामों पर खरीदकर आधुनिक भंडारण सुविधाओं की मदद से बफर स्टॉक बनाने की जगह भारतीय किसानों की उपेक्षा करके अफ्रीका से दाल मंगाई जा रही है, दूरदराज के गांवों में प्राइमरी/सेकेंडरी स्कूल, बुनियादी सुविधाओं वाले हेल्थ सेंटर खोलने की जगह आईआईएम/आईआईटी और एम्स खोले जा रहे हैं।

मेरा पूरा परिवार कृषि विज्ञान के क्षेत्र में काम कर रहा है, मैं स्वयं 20 साल से ज्यादा गुजरात में गुजार चुका हूं जहां कृषि की विकास दर 14 फीसदी रही है। मेरा विचार है कि जांचे-परखे गुजरात मॉडल को देश भर में लागू किया जाए, यह इसलिए भी सामयिक होगा क्योंकि जिस नेता ने गुजरात में यह इतिहास रचा वही अब देश को विकास के नए युग में ले जाने की अगुआई कर रहा है। हालांकि, ऐसा लग रहा है कि कृषि मंत्रालय और नीति आयोग गुजरात मॉडल की मजबूती को समझ नहीं पाए हैं तभी इसे देश भर में लागू करने में असफल रहे। पिछले चार वर्षों में हमें उम्मीद थी कि वॉटरशेड के मुद्दे पर बड़े स्तर पर काम होगा, गांव के स्तर पर तकनीकी मदद मिलेगी, वहां तक बाजार की पहुंच होगी, किसानों के लिए जरूरी मशीनें बनेंगी, फसल कटने के बाद उसके प्रसंस्करण पर काम होगा, उसकी गुणवत्ता में सुधार किया जाएगा, किसानों की क्षमता में सुधार करने के कदम उठाए जाएंगे और कृषि उद्यमियों को बढ़ावा मिलेगा। लेकिन अफसोस ऐसा कुछ नहीं हुआ।

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इससे भी ज्यादा हैरानी की बात है कि सरकार ने खेती में हो रही दिक्कतों की तरफ से आंखें मूंद रखी हैं। खेती में होने वाले नुकसान और कर्ज से तंग आकर किसान आत्महत्या कर रहे हैं, एक तरफ भुखमरी से लोगों की मौत हो रही है दूसरी तरफ अनाज खुले में सड़ रहा है लेकिन सरकार बेपरवाह है। देश के नीति निर्माता अपनी आत्ममुग्धता में ग्रामीण भारत से आने वाले नतीजों और किसानों के उस गुस्से को भांपने में असफल रहे जिसकी परिणति 35 हजार किसानों के पैदल मार्च में हुई। इस आंदोलन को देखकर नेताजी सुभाषचंद्र बोस के “दिल्ली चलो” वाले आह्वान की याद आ गई। इसी तरह के आंदोलन दूसरे राज्यों में भी हो सकते हैं जो केंद्र की मौजूदा सरकार के लिए बड़ा धक्का साबित होंगे। आने वाले चुनाव सत्तारूढ़ सरकार के लिए आसान साबित नहीं होंगे, हाल ही में हुए गुजरात चुनावों से यह साफ हो गया है।

इस आंदोलन को देखकर सुभाषचंद्र बोस के “दिल्ली चलो” वाले आह्वान की याद आ गई

भारत की आम जनता को नरेंद्र मोदी को एक और मौका देना चाहिए बशर्ते उनकी सरकार किसानों की उपेक्षा, उनके परिवार की तकलीफों, भूमिहीन श्रमिकों, वनवासियों और गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की समस्याओं को हल करने के लिए युद्ध स्तर पर कदम उठाए। आईसीएआर संस्थान और राज्य कृषि विश्वविद्यालय गुजरात के कृषि महोत्सव की तर्ज पर संबंधित राज्य में गांव-गांव अभियान चला सकते हैं।

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केंद्र सरकार कृषि मंत्रालय और आईसीएआर को निर्देशित कर सकती है कि वे राज्यवार योजना बनाकर प्रत्यके किसान परिवार तक पहुंचें। इसके लिए मौजूदा संसाधनों के आंकड़े जुटाकर, उपयुक्त अनुपूरक कार्यक्रम बनाए जा सकते हैं ताकि किसानों की स्थायी आय की व्यवस्था की जा सके। इस हेतु उन्हें मछली पालन/मुर्गी पालन की जानकारी, कृषि औजार, बीज, जैव उर्वरक आदि मुहैया कराए जा सकते हैं। इनसे जुड़ी ट्रेनिंग दी जा सकती है, जानवरों को पालने के लिए वित्तीय मदद भी दी जा सकती है। छोटे किसानों की मदद के लिए स्थानीय कृषि उद्यमियों को प्रोत्साहित भी करना जरूरी है। पुरानी, ठप्प हो चुकी योजनाओं को बंद करके इस कार्यक्रम के लिए फंड जुटाया जा सकता है। ग्रामीण व्यवस्था को मजबूत करने के लिए बड़े स्तर पर वर्षाजल के संग्रहण व वॉटरशेड विकास के जरिए पानी के समुचित इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जा सकता है। इस तरह के कदम उठाने से खेती सुधरेगी और शाइनिंग इंडिया का नारा भी सार्थक होगा न कि केवल किसानों की आय दोगुनी करने की नारेबाजी से।

(डॉ. एम. एस. बसु आईसीएआर गुजरात के निदेशक रह चुके हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)

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