युवाओं के खेती से दूर जाने के लिए योजनाएं जिम्मेदार हैं

Devinder SharmaDevinder Sharma   19 April 2017 2:05 PM GMT

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युवाओं के खेती से दूर जाने के लिए योजनाएं जिम्मेदार हैंअगर एक युवक का पिता खेती से सिर्फ़ दो हज़ार रुपए महीना कमाता है तो वो युवक इसे अपना पेशा क्यों बनाएगा

जब मैंने गाँव कनेक्शन का सर्वेक्षण पढ़ा जिसमें पुष्टि हुई है कि ग्रामीण युवा खेती से दूर जा रहा है तो मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। आखिरकर मैं लंबे समय से कह रहा हूं कि अगर एक युवक का पिता खेती से सिर्फ़ दो हज़ार रुपए महीना कमाता है तो वो युवक इसे अपना पेशा क्यों बनाएगा।

अन्य राज्यों की तरह उत्तरप्रदेश के किसानों को भी दशकों से जानबूझ कर कंगाल बनाकर रखा है। 2016 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार भारत के 17 राज्यों के किसान परिवारों की आय मुश्किल से 20,000 रुपए सालाना है, जिसका मतलब है 1,770 रुपए महीना। इससे बेहतर राज्यों में भी स्थिति अपेक्षाकृत इससे बेहतर नहीं है। हरियाणा में, हरियाणा कृषि महाविद्यालय के अध्ययन के अनुसार गेहूं की खेती से होने वाली औसतन आय 800 रुपए प्रति एकड़ है। इतनी कम आमदनी या मैं ये कहूं कि ना के बराबर आमदनी होने पर हम क्यों अपेक्षा करते हैं कि युवा खेती से जुड़ा रहे।

कई वर्षों से देश गवाह है कि किस तरह से कृषि का गला दबाया जा रहा है। किसानों की आत्महत्या का विभत्स चित्रण इस बात का प्रतिबिंब है कि उन्हें अत्यधिक दर्द दिया गया है लेकिन अधिकतर शहरी समाज को इससे फ़र्क नहीं पड़ा । कभी-कभी मुझे लगता है कि किसी भी समाज में जो मानवीय संवेदना होनी चाहिए वो ग़ायब हो गई है । मुझे ये सुनकर बेहद तकलीफ़ होती है कि जानेमाने अर्थशास्त्री , शिक्षाविद , कृषिवैज्ञानिक और अन्य लोग किसानों पर ये लांछन लगाते हैं कि वे अपने बच्चों की शादी पर अनाप-शनाप खर्च करते हैं (पीने की आदत सहित) जोकि कृषि संबंधी संकट का कारण है।

इसलिए मैं समझ सकता हूं कि गाँव कनेक्शन की रिपोर्ट के अनुसार केवल नौ प्रतिशत ग्रामीण युवक खेती की तरफ़ नीति बदलाव के पक्ष में हैं। ये वायदे दोहराए जा रहे हैं कि “खेती में गर्व होगा” लेकिन बाकी ग्रामीण युवा को इन वायदों से कोई आशा नहीं है। पिछले अनुभवों के आधार पर ये खोखले वादे हैं जो सिर्फ़ काग़ज़ों तक सीमित हैं।

कई वर्षों से देश गवाह है कि किस तरह से कृषि का गला दबाया जा रहा है। किसानों की आत्महत्या का विभत्स चित्रण इस बात का प्रतिबिंब है कि उन्हें अत्यधिक दर्द दिया गया है लेकिन अधिकतर शहरी समाज को इससे फ़र्क नहीं पड़ा। कभी-कभी मुझे लगता है कि किसी भी समाज में जो मानवीय संवेदना होनी चाहिए वो ग़ायब हो गई है । मुझे ये सुनकर बेहद तकलीफ़ होती है कि जानेमाने अर्थशास्त्री , शिक्षाविद , कृषिवैज्ञानिक और अन्य लोग किसानों पर ये लांछन लगाते हैं कि वे अपने बच्चों की शादी पर अनाप-शनाप खर्च करते हैं (पीने की आदत सहित) जोकि कृषि संबंधी संकट का कारण है।

अक्सर मैं ये तर्क सुनता हूं कि किसान खेती के उद्देश्य से जो कर्ज़ लेता है उसे वो बच्चों की शादियों पर खर्च कर देता है। मैं इस बेवकूफ़ी वाले तर्क का ये जवाब देता हूं कि जब किसान की खेती से कोई आमदनी ही नहीं होती है तो अपनी जीवनशैली बनाए रखने के लिए (जो भी बची है) उसे पैसा उधार लेना ही पड़ेगा। अगर किसान की औसतन पारिवारिक आमदनी 1,700 रुपए प्रति माह है तो उस आय के साथ आप किसान से क्या करने की उम्मीद रखते हैं? क्या वो अपनी लड़की की शादी नहीं करे?

जब मैंने दैनिक जागरण (16 अप्रैल 2017) में ह्रदय विदारक समाचार पढ़ा तो अपने आंसू रोकना मुश्किल हो गया। काश वो लोग जो किसानों को इस संकट के लिए दोषी ठहराते हैं , वे इस बेचैन कर देने वाले समाचार रिपोर्ट को पढ़ते जो एक मार्मिक संदेश देता है। महाराष्ट्र के एक किसान की 21 साल की जवान बेटी शीतल यंकट ने आत्महत्या कर ली। उसके पिता उसकी शादी को लेकर भारी तनाव से गुज़र रहे थे, वो ये सहन नहीं कर पाई और अपने ही खेत में बने कुएं में कूद कर उसने अपनी जान देदी (लातूर / महाराष्ट्र में)।

आत्महत्या के समय छोड़े गए पत्र में लिखा था : “मेरे माता-पिता बहुत ग़रीब हैं और मेरी शादी के लिए धन नहीं जुटा पाए । मैं आत्महत्या कर रही हूं क्योंकि मैं अपने माता-पिता को कर्ज़े के भार में नहीं दबाना चाहती। इसी के साथ, मैं आशा करती हूं कि मेरे समाज में फैली दहेज प्रथा समाप्त हो जाएगी। पिछले पांच वर्षों में फ़सल ख़राब होने के कारण मेरे परिवार की आर्थिक दुर्दशा हो गई है । मेरी दो बहनों की शादी किसी तरह सादगी से संपन्न हो गई। मेरे पिता मेरी शादी के लिए पूरी कोशिश कर रहे हैं क्योंकि बिचौलिए पैसे उधार देने में असमर्थ है, मेरी शादी दो साल के लिए रुक गई है । इसलिए इस आशा से मैं अपना जीवन समाप्त कर रही हूं कि मेरे पिता पर अब कर्ज़े का और भार नहीं होगा और शायद मेरी मृत्यु से दहेज प्रथा ख़त्म हो जाएगी।’

खेती-किसानी, कृषि नीति और किसानों की समस्याओं पर आधारित देविंदर शर्मा के अऩ्य लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

ये जो दु:खद घटना इस किसान परिवार के साथ हुई है, यह पूरे किसान समाज की त्रासदी का प्रतीक है। खेतों के संकट को हम अपनी विशिष्टता के संकीर्ण नज़रिए से देखना बंद करें। मैंने देखा कि लोग अपनी-अपनी विशिष्टता के आधार पर अलग-अलग समाधान बताते हैं। कुछ कहते हैं कि ड्रिप सिंचाई इसका समाधान है तो कुछ का कहना है कि ठेके पर देना इसका समाधान है। कुछ कहते हैं कि पॉल्ट्री फ़ार्मिंग इसका समाधान है। मैं ऐसे विशेषज्ञों से थक चुका हूं।

ये मुझे फिर से महाराष्ट्र के किसान के कॉलेज जाने वाले बेटे के छोड़े गए आत्महत्या पत्र की ओर ले जाता है। कुछ महीने पहले महाराष्ट्र में यवतमाल के एक किसान के 22 साल के ग्रेजुएट बेटे गोपाल बाबाराव राठौर , जिसकी मृत्यु अगस्त के आखिरी सप्ताह में हुई , द्वारा छोड़े गए आत्महत्या पत्र में जो सवाल उठाया था वो हमें त्रुटिपूर्ण आर्थिक नीतियों की याद दिलाती है। उसने अपने पत्र में स्पष्ट किया है कि किस तरह से ग्रामीण युवा की भी अपनी उम्र के शहरी युवाओं की तरह आकांक्षाएं हैं। उसने पूछा , ‘एक अध्यापक का बेटा इंजीनियर बनने के लिए एक लाख रुपए फ़ीस आसानी से देने में समर्थ है लेकिन मुझे बताइए क्या एक किसान का बेटा इतनी फ़ीस देने में सक्षम है?’ वो आगे कहता है , ‘ऐसा क्यों है कि नौकरीपेशा वेतन पाने वालों को बिना मांगे महंगाई भत्ता दिया जाता है और वहीं किसान को अपनी पैदावार के लिए पर्याप्त मुआवज़ा भी मना कर दिया जाता है।’

सच्चाई ये है कि किसान को भी जीविकोपार्जन के लिए आमदनी चाहिए। अगर एक चपरासी 18,000 रुपए मासिक मौलिक वेतन पा सकता है तो पढ़े-लिखे लोग ऐसा क्यों सोचते हैं कि किसान के लिए 1,700 रुपए (भारत के 17 राज्यों में) कुल आमदनी जीने के लिए काफ़ी होगी, ये बात समझने में मैं असमर्थ हूं। पैदावार के खर्चे को घटाना , पैदावार को बढ़ाना , सॉइल हेल्थ कार्ड आदि किसानों की आमदनी बढ़ाने के प्रस्तावित सुझाव हैं। दुर्भाग्य से ये कोई नहीं मान रहा है कि ये प्रस्ताव वही हैं जिनके कारण किसान इस चरम सीमा पर पहुंचा है।

दरअसल किसान को सीधी आमदनी चाहिए लेकिन सिर्फ़ इसलिए कि हमें जनता को सस्ता खाना उपलब्ध कराना है और सरकार स्फ़ीतिदर को कम रखना चाहती है इसलिए ये सारा बोझ चुपचाप किसान के कंधों पर डाल दिया गया है। उसकी पैदावार की कीमत जानबूझ कर कम रखी जाती है। अनेक अध्ययन ये बताते हैं कि अगर हम स्फ़ीतिदर का समायोजन करें तो किसान को अपनी पैदावार का उतना ही पैसा मिल रहा है जो उसे बीस साल पहले मिलता था, दूसरे शब्दों में पैदावार की कीमत बीस वर्षों से बर्फ़ की तरह जमी हुई है।

ग्रामीण युवा खाद्य की आर्थिक राजनीति को शायद न समझ रहा हो लेकिन उन्हें इतना पक्का पता है कि कृषि से उसका जीविकोपार्जन नहीं हो सकता। जन्म से उन्होंने देखा है कि ग़रीबी असलियत में क्या होती है। चुनावी वायदे अब उन पर असर नहीं डालते। वो इसकी बजाए शहर में रिक्शा चलाना ज़्यादा पसंद करेंगे।

(लेखक प्रख्यात खाद्य एवं निवेश नीति विश्लेषक हैं, ये इनके निज़ी विचार हैं।)

        

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