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लोकतंत्र के लिए प्रखर और मुखर विपक्ष जरूरी

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इस वक्त सत्तापक्ष को लेकर भले दो से लेकर तीन राय हो सकती हैं मगर विपक्ष को लेकर एक ही राय सुनाई देती है। विपक्ष नकारा है। विपक्ष में दम नहीं है। विपक्ष का कोई चेहरा नहीं है। विपक्ष की सबसे बड़ी हार ये है कि भले ही उसमें तमाम दल हों मगर विपक्ष के रूप में किसी एक दल की पहचान नहीं है। आज छवियों की राजनीति है। आप आंखें बंदकर बीजेपी के बारे में सोचेंगे तो पार्टी का झंडा भी नज़र नहीं आएगा। नज़र आएंगे सिर्फ और सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी। यही प्रयोग आप विपक्ष के बारे में कीजिए कि आंखें बंद करने के बाद कौन नज़र आता है। आपको जवाब मिल जाएगा।

लोकतंत्र के लिए ज़रूरी है कि प्रखर और मुखर विपक्ष हो। हम अक्सर विपक्ष को सत्ता पक्ष के सामने रखकर देखते हैं मगर विपक्ष बनता है अपने विपक्ष से। अपनी जड़ताओं से लड़कर विपक्ष बनता है। अपने नेताओं को बदलकर विपक्ष बनता है। बग़ैर इन तक़लीफ़देह प्रक्रियाओं से गुज़रे विपक्ष नहीं बन सकता है। एक पार्टी आधार कार्ड लांच करती है। एक पार्टी आधार की आलोचना करती है। वही पार्टी हर बात में आधार कार्ड ज़रूरी कर देती है। भारतीय राजनीति गवर्नेंस की खाल ओढ़कर दुरंगा सियार होती जा रही है। उसमें विपक्ष और विकल्प नहीं दिखता है। अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार इतनी ताकतवर हो गई है कि उनकी पार्टी में भी लोग नीतियों की आलोचना करने की साहस नहीं कर पाते हैं तो क्या इसके विकल्प में यही सुविधा किसी और दल में मौजूद है? अगर राहुल गांधी बीजेपी में सिर्फ मोदी मोदी की आलोचना करते हैं तो उन्हें अपनी पार्टी का रिपोर्ट कार्ड देना चाहिए कि कैसे उनके यहां राहुल राहुल नहीं है। कांग्रेस के पास तो अब चवालीस सांसद ही हैं। दो चार को छोड़ किसका चेहरा आपको याद आता है। क्या उन नेताओं में स्वतंत्र नेतृत्व के रूप में उभरने की प्रतिभा है? उनमें साहस और आग है कि आयकर विभाग से डरे बिना वे विपक्षी तेवर में आ सकते हैं। विपक्ष जब तक इन सवालों से नहीं टकराएगा, सत्ता के सामने खड़े होने की नैतिकता हासिल नहीं कर सकता है।

विपक्ष की समस्या यह है कि इनमें से कई दल राज्यों में सत्ता पक्ष हैं। उन राज्यों में भी इस विपक्ष ने कोई विकल्प या आदर्श कायम नहीं किया है। इसलिए उसे सूचना अधिकार सेल और आयकर विभागों से डरना पड़ता है। विपक्ष अपने अंदरख़ानों के गुनाह से कांपता रहता है क्योंकि अब अघोषित राजनीतिक सहमति थोड़ी टूट गई है कि सत्ता बदलेगी तो विपक्ष के ख़िलाफ़ बदले की कार्रवाई नहीं होगी। कांग्रेस भले अपने प्लेटफार्म पर नेता न पैदा कर पा रही हो लेकिन वो एक ऐसी पार्टी है जिसने बीजेपी को सबसे अधिक नेताओं की सप्लाई की है। बीजेपी में हर दल से नेता गए हैं। कुछ ने अलग दल बनाकर तालमेल किया। अपनी पार्टी के प्लेटफॉर्म को फ्रेंचाइज़ी की तरह इस्तेमाल करने की इस प्रक्रिया का अध्ययन होना चाहिए। जिन क्षेत्रों में बीजेपी के टिकट से पूर्व कांग्रेसी या पूर्व सपाई जीते हैं, वहां बीजेपी के अपने नेताओं का लोकतांत्रिक विकास कैसे हो रहा है। बीजेपी में आकर कांग्रेसी पूरी तरह से भाजपाई हो जाते हैं या बीजेपी का कांग्रेसीकरण कर देते हैं, इन सब सवालों का जवाब बेहतर शोध से ही मिल सकता है।

हेमंत शर्मा ने बीजेपी में जाकर राहुल गांधी को कितना कोसा। इसी हेमंत शर्मा के भ्रष्टाचार के बारे में बीजेपी के नेताओं के पुराने आरोप आप निकाल कर देखिये। लेकिन कांग्रेस चुप रही क्योंकि उसने सत्ता में रहकर किसी नैतिकता पर ध्यान ही नहीं दिया। अपने वैचारिक और राजनीतिक आदर्शों को छोड़ दिया। कांग्रेस पुराने नेताओं को लेकर इन तत्वों का विकास कर ही नहीं सकती है। उसके ज्यादातर नेता समझौतावादी बातें करते हैं। तेवर हमलावर का होता है मगर बातें गोलमोल होती हैं। टीवी पर बोलते हुए विश्वसनीय नहीं लगते। कांग्रेस डरी हुई पार्टी है इसीलिए विपक्ष के रूप में कांग्रेस के पास भले ही दस करोड़ वोटर होंगे लेकिन राजनीति में वो अपनी प्रासंगिकता प्राप्त नहीं कर पा रही है। इंडियन एक्सप्रेस में शरद यादव की एक बात से सहमत नहीं हूं कि बीजेपी को सरकार चलाना नहीं आता। ये अहंकारी बात है। तमाम राज्यों में पंद्रह-पंद्रह साल से बीजेपी जमी है लेकिन उनकी दूसरी बात आधी सही है कि कांग्रेस को विपक्ष की भूमिका नहीं आती।

अगर बीजेपी के नेता रेड्डी ने कथित रूप से पांच सौ करोड़ की शादी की तो केरल में भी कांग्रेस के एक मंत्री के बेटे की शादी शराब कारोबारी के बेटे से हो रही है। क्या राहुल गांधी ने अपने इस नेता के यहां होने वाली भव्य शादी को लेकर कुछ किया? जब प्रधानमंत्री से कहा जाता है कि क्या उन्होंने रेड्डी से पूछा है कि इतने पैसे कैसे आए तो राहुल गांधी कैसे बच सकते हैं। प्रधानमंत्री को भी मंत्री,सांसद, विधायक और कार्यकर्ताओं को आदेश देना चाहिए कि सादी शादी करें। जैसी सत्ता वैसा विपक्ष। दूसरों की ग़लती से फ़ायदा उठाने का इंतज़ार करने वाला विपक्ष औसत दर्जे का अवसरवादी बन सकता हैं, विकल्प नहीं बन सकता है। यह तभी सक्रिय नज़र आता है जब सरकार की पकड़ ढीली होती है। नोटबंदी पर उसे अपनी राय विस्तार से जनता के बीच रखनी चाहिए थी। विपक्ष संसद में विरोध कर रहा है और प्रधानमंत्री जनता के बीच जाकर उसके फायदे बता रहे हैं। होना तो यह चाहिए था कि विपक्ष जनता के बीच होता और प्रधानमंत्री संसद में। तो यह सवाल पूछिये कि विपक्ष के वैकल्पिक राजनीतिक कार्यक्रम क्या हैं। क्या उसके पास कोई नया आदर्शवाद है जिसके सहारे वो सरकार पर प्रहार करते हुए नई प्रतिभाओं को अपनी ओर खींच सकता है।

छोटे-छोटे तालाब की तरह विपक्ष नज़र आने लगा है। कभी कोई सत्ता के साथ हो जाता है तो कभी कोई विपक्ष के ख़िलाफ़ हो जाता है। विपक्ष के पास रचनात्मकता की घोर कमी है। ठीक है कि बीजेपी संसद नहीं चलने देती थी लेकिन अब संसद को रोक देना वो भी कई हफ्तों तक रोक कर रखना बेतुका आइडिया है। एक समय के बाद किसी का ध्यान भी नहीं रहता कि संसद क्यों नहीं चल रही है। इससे तो आप बीजेपी से बदला ले रहे हैं, विकल्प नहीं बन रहे हैं।

विपक्ष को लेकर ज़्यादा निराशा है। क्योंकि भारत का विपक्ष समझौतावादी नेताओं की गिरफ़्त में है। उसे अपने गुनाहों की फाइलों के भय से आज़ाद होना होगा। अपने घर से ख़ुद ही निकाल बाहर करना होगा या फिर साहस कर सत्ता पक्ष के पोल खोल देने होंगे। विपक्ष को सबसे पहले अपना विपक्ष बनना होगा। विपक्ष को याद रखना चाहिए। जनता अगर अपनी सरकार चुन सकती है तो अपना विपक्ष भी बना सकती है. उसे इस हद तक लाचार न करे कि आवाज़ की तलाश में कोई नया विपक्ष खड़ा कर दे।

(लेखक एनडीटीवी के सीनियर एग्जीक्यूटिव एडिटर हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)

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