हाल में ही हिंदी सिनेमा की रिलीज़ होने वाली फिल्म ‘पद्मावती’ को लेकर हुए विवाद के कारण अकारण ही मलिक मुहम्मद जायसी और उनकी कृति “पद्मावत” भी हिंदी साहित्य से इतर पुरे देश के लिए एक चर्चा-उत्सुकता का केंद्र बन गयी है। जायस के रहने वाले कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने 947 हिजरी में पद्मावत लिखा था। जायसी के ही शब्दों में-
सन् नौ से सैंतालिस अहै।
कथा अरंभ बैन कवि कहै।।
और जायस नगर धरम अस्थानू।
तहवां यह कवि कीन्ह बखानू।।
पद्मावत की रचना तिथि के बारे में विचार करते हुए डॉक्टर वासुदेवशरण अग्रवाल ने 927 हिजरी में रचना का प्रारम्भ काल माना है। उन्होंने हिंदी परिषद पत्रिका के 1962 के एक अंक में पद्मावत का रचना काल सन् 927 या 947 शीर्षक एक निबन्ध लिखा था, जिसमें उन्होंने 927 हिजरी काव्य के प्रारंभ करने की तिथि तथा शेरशाह की राज्य काल की किसी तिथि को उसकी पूर्ण होने की तिथि मानी है।
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हिंदुस्तानी एकेडमी इलाहाबाद से प्रकाशित जायसी ग्रंथावली के संपादक डाक्टर माताप्रसाद गुप्त ने भी पद्मावत (1963 ई.) की भूमिका में 947 हिजरी को ही स्वीकार किया है। इतिहास पर नजर डालें तो अफगान शासक शेरशाह सूरी के समय में जायसी ने अपने काव्य की रचना की थी।
सेरसाहि ढिल्ली सुलतानू,
चारिउ खंड तपइ जस भानू।
टोहि छाज छात और पाटू,
सब राजा भुइं धरहिं लिलाटू॥
सूफी प्रेमाख्यानों का अध्ययन पद्मावत से प्रारम्भ हुआ। पंडित सुधाकर द्विवेदी जार्ज ग्रियर्सन ने पहले-पहल पद्मावत के प्रारम्भिक खंडों को प्रस्तुत किया, किन्तु पद्मावत का पूर्ण एवं प्रामाणिक संस्करण प्राप्त न हो सकने के कारण कोई क्रमबद्ध अध्ययन सामने नहीं आ सका।
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हिन्दी संसार को पद्मावत से परिचित कराने का श्रेय आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को है। सूफी प्रेमाख्यानों का क्रमबद्ध अध्ययन वस्तुत: यहीं से प्रारम्भ हुआ। शुक्ल जी ने जायसी ग्रंथावली में पद्मावत तथा जायसी की अन्य प्राप्त कृतियों को संपादित कर एक आलोचनात्मक भूमिका भी दी है। इस भूमिका में उन्होंने पद्मावत के ऐतिहासिक आधार, प्रेम पद्धति, वस्तु वर्णन, मत और सिद्वान्त पर विचार किया है।
डॉक्टर माता प्रसाद गुप्त ने “जायसी ग्रंथावली” में पद्मावत का सर्वप्रथम सुसम्पादित और वैज्ञानिक पाठ प्रस्तुत किया है। उनके लेख जायसी का प्रेम-पंथ, लोरकहा तथा मैनासत आदि भी उल्लेखनीय हैं।
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आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी साहित्य की भूमिका में सूफी काव्य धारा पर विचार किया है। तो वहीं डॉक्टर वासुदेवशरण अग्रवाल ने “पद्मावत” की संजीवनी व्याख्या की है। उन्होंने एक विस्तृत भूमिका भी दी है, जो सूफी काव्यों के समझने में सहायक है। स्वयं जायसी ने अपने पद्मावत में कुछ इस प्रकार लिखा है-
सिंहल दीप पदुमनी रानी,
रतनसेन चितउर गढ़ ज्ञानी।
अलाउदीं दिल्ली सुलतानूं,
राधौ चेतन कीन्ह बखानूं।
सुना साहि गढ़ छेंका आई,
हिन्दू तुरकहिं भई लराई।
आदि अंत जस कथा अहै,
लिखि भाषा चौपाई कहै।
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यानी पद्मिनी सिंहल द्वीप की रानी थी। रत्नसेन उसे चित्तौड़़ ले आये। दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन से राघवचेतन ने उसकी चर्चा की। उसने आकर गढ़ घेर लिया। हिन्दू मुसलमानों में लड़ाई हुई। कथा के मुख्य दो खंड हैं। एक खंड में रत्नसेन अपनी पत्नी नागमती को छोड़कर योगी बन जाता है और सिंहल जाकर पद्मिनी को हस्तगत करता है। कथा का दूसरा खंड तब प्रारम्भ होता है जब चित्तौड़़ से निर्वासित किये जाने पर एक व्यक्ति राघवचेतन दिल्ली पहुंचता है और अलाउदीन खिलजी से उसके रूप सौंदर्य की प्रशंसा करता है। बादशाह पद्मावती को प्राप्त करने के लिए लालायित हो उठता है। चित्तौड़़ पर चढ़ाई करता है। रत्नसेन कैद कर दिल्ली लाया जाता है। पद्मावती का जीवन दुख के काले बादलों से घिर जाता है। वह गोरा और बादल के घर जाती हैं और कहती है:-
तुम्ह गोरा बादल खंभ दोऊ।
जस मारग तुम्ह और न कोऊ।
दुख बिरिखा अब रहै न राखा,
मूल पतार सरग भइ साखा।
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गोरा-बादल रानी की व्यथा सुनकर पसीज जाते हैं। पद्मावती को वे आश्वासन देते हैं और धैर्य बंधाकर युद्ध की तैयारी करते हैं। वे दिल्ली पहुंचते हैं तथा रत्नसेन को मुक्त कराते हैं। लेकिन युद्ध में गोरा को वीरगति प्राप्त होती है। बादल राजा रत्नसेन को लेकर आगे बढ़ता है और चित्तौड़़ पहुंच जाता है।
घर पर आते ही पद्मावती से सूचना मिलती है कि कुंभलनेर के राजा देवपाल ने दूती भेजकर किस प्रकार कुदृष्टि का परिचय दिया है। उसकी दुष्टता का बदला लेने के लिए रत्नसेन देवपाल पर आक्रमण करता है। वह घायल होता है। घर वापस होते समय उसकी मृत्यु हो जाती है। पद्मावती और नागमती दोनों पत्नियां शव के साथ सती हो जाती हैं। इसी बीच अलाउदीन की सेना दुर्ग पर आक्रमण करती है। अलाउदीन को केवल निराशा ही हाथ लगती है। वह कह उठता है, यह संसार झूठा है।
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छार उठाइ लीन्ह एक मूठी,
दीन्ह उड़ाइ परिथमी झूठी।
“नामवर सिंह का आलोचना कर्म” पुस्तक में नामवर सिंह ने लिखा है कि कबीर, जायसी, सूर, तुलसीदास आदि की रचनाओं में चौदहवीं से सोलहवीं शताब्दी का सांस्कृतिक पुनर्जागरण प्रतिबिम्बत हुआ है और सामान्य जन-समूह की आशाओं-आकांक्षाओं का उभार लक्षित होता है। सोचने की बात है कि जायसी जो अलाउद्दीन से लगभग दो सौ वर्ष बाद हुए। तो भी क्या वे एक मुसलमान राजा के बारे में झूठी कथा लिख सकते थे। जायसी उसकी असफलता को कोसते हैं और अंत में कहते हैं क्या मिला उसे? एक मुट्ठी खाक।
आइ साह जब सुना अखारा।
होइगा रात देवस जो बारा॥
छार उठाइ लीन्हि एक मूंती।
दीन्हि उड़ाई पिरथमी झूठी॥
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हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार शिव प्रसाद सिंह ने अपने उपन्यास “दिल्ली दूर है” कि भूमिका में उल्लेखनीय बात लिखी है। उनके अनुसार, नारियां जौहर कर गयीं। इसी प्रसंग में विजय देव नारायण साही का उनकी पुस्तक “जायसी” में लिखा कथन बार-बार पढ़ना चाहिए। उन्होंने लिखा, कि ”सिंहल अगर कल्पनालोक था तो जायसी ने उसके मुकाबले दिल्ली लोक की रचना की। दिल्ली इतिहास लोक की दिल्ली है। अलाउद्दीन गंधर्वसेन से कम प्रतापी राजा नहीं है। कुछ अधिक ही हैं। गंधर्वसेन की प्रतापी सेना दीवार पर चित्रित आभूषण की तरह जगमगाती सेना है। लेकिन अलाउद्दीन की सेना वस्तु जगत की सेना है जो गांव उजाड़ती है, दुश्मनों के दांत खट्टे करती है। गढ़ों को चूर-चूर करती है। वह सेना काव्यात्मक अभिप्रायों की सेना नहीं है, वास्तविक सेना है।
“जायसी” शीर्षक इस पुस्तक में पृष्ठ-55 से लेकर 60 तक खुसरो की ‘तवारीख खजाइन फुतूह’ से कई अंश लिए गए हैं, जिसमें वह कट्टर इस्लाम का अलमबरदार लगता है। श्याम मनोहर पाण्डे “सूफी काव्य विमर्श” में लिखते हैं कि यह प्रश्न विचारणीय है कि पद्मावत के पूर्व की इस रचना में पद्मिनी और रत्नसेन का उल्लेख कहां से आया? जबकि “छिताई वार्ता” के पीछे इतिहास के सबल आधार हैं और यह एक स्वतंत्र परम्परा का काव्य है। छिताई वार्ता में सबसे पहले बादल का उल्लेख मिलता है और यह एक उत्कृष्ट काव्य है, जिसे नारायणदास ने संवत् 1583 विक्रमी सन् 1526 ईस्वी में ब्रज भाषा में रचा। इतिहासकार हरिहर निवास द्विवेदी ने “ग्वालियर दर्शन” पुस्तक में लिखा है कि छिताई चरित हिन्दी साहित्य की महत्वपूर्ण कृति है। हिन्दी की लौकिक आख्यान काव्य-धारा की यह श्रेष्ठ रचना अपने युग की सामाजिक, राजनीतिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से ओतप्रेात है।