हमारे देश में जब किसी सरकार की आर्थिक उपलब्धि या फिर उसकी आलोचना की बात होती है तो एक ही पैरामीटर सामने होता है कि इकोनॉमिक ग्रोथ कितनी बढ़ी या कितनी घटी। इससे ज्यादा न कोई पूछना चाहता है और न ही सरकार बताना चाहती है। अगर ग्रोथ बढ़ी है, भले ही लोग भुखमरी एवं कुपोषण से मर रहे हैं, पूरा का पूरा युवा समुदाय रोजगार के बिना सड़कों की दूरियां नाप रहा है, फिर भी यही मान लिया जाएगा कि सरकार ने आर्थिक क्षेत्र में खूब तरक्की कर ली है। हालांकि एनडीए सरकार की पिछली 4 साल की उपलब्धियों का आकलन करते समय ग्रोथ के साथ-साथ विमुद्रीकरण और जीएसटी को सामने रखने की जरूरत होगी क्योंकि इनमें से पहले के जरिए प्रधानमंत्री देश से भ्रष्टाचार और आतंकवाद की चूलें हिला देने वाले थे, वह भी सिर्फ 50 दिन में और दूसरे को तो बाकायदे राष्ट्रीय जश्न के जरिए जमीन पर उतारा गया था क्योंकि उसके जरिए भारत का भाग्य फिर से लिखा जाना था। लेकिन क्या ऐसा हुआ?
जीडीपी एक आंकड़ाशास्त्रीय विषय है, जिन्हें हर सरकार उस समय प्रदर्शित करना चाहती है जब उसकी ऊपर उठने की गति तेज हो लेकिन जैसे ही ये नीचे की ओर खिसकना शुरू होती है तो सरकार को लगवा मार जाता है या फिर सारी युक्तियां उसे छुपाने में प्रयुक्त हो जाती हैं। यह उस ट्रिकिल डाउन का एक हिस्सा अथवा बाइप्राडक्ट है जो यह बताता है कि अगर अमीर को और अधिक अमीर बना दिया जाए तो उसकी अमीरी का कुछ हिस्सा टपक-टपक कर नीचे यानि गरीबों तक पहुंच जाएगा। भले ही यह सिद्धांत पूरी दुनिया में असफल हो गया हो, लेकिन पूंजीवाद, पूंजीवादी सरकारें और उनके पैरोकार इसे ढोने के लिए आज भी प्रतिबद्ध हैं, वह भी बहुत से आडम्बरों के साथ। हमारे देश की सरकारें भी इसी की पिछलग्गू बनी हुयी हैं। इस सिद्धांत को चलाने वाले ड्राइवर्स चाहे जो हों लेकिन इसकी नब्ज को स्पंदित करने का काम जीडीपी यानि सकल घरेलू उत्पाद करता है। यही वजह है वर्तमान समय में दुनिया के देशों के वित्त मंत्रियों और सरकारों की योग्यताएं इस बात में निहित नहीं होती कि उसे देश में कितनी खुशहाली आई बल्कि इसमें होती है जीडीपी कितनी दर से बढ़ गयी। यह अच्छी बात है कि ग्रोथ दर सुधरी हुयी है। भारत सरकार के मुताबिक वर्ष 2017-18 की तीसरी तिमाही में भारतीय अर्थव्यवस्था 7.2 प्रतिशत की दर से आगे बढ़ी है, जो भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर एक सकारात्मक संकेत है। इन आंकड़ों ने सरकार को और नकारात्मक माहौल से बचा लिया जिसकी आशंकाएं व्यक्त की जा रही थीं। लेकिन इससे खुशी से फूलकर कुप्पा होने की जरूरत नहीं क्योंकि ये सिर्फ एक तिमाही के आंकड़ें हैं, पूरे वर्ष भर के नहीं।
प्रश्न यह उठता है कि अर्थव्यवस्था को लेकर अनिश्चितता के माहौल में क्या ये आंकड़ा भारत को राहत देगा? हमारा आकलन कहता है कि नहीं। कारण यह है कि अमेरिका को छोड़कर दुनिया की बाकी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में तेज़ी नहीं हैं। दूसरा प्रमुख तथ्य है कि अमेरिका व चीन व्यापार युद्ध में उलझ रहे हैं। इससे वैश्विक मांग पर नकारात्मक असर पड़ सकता है। स्वाभाविक भारत का निर्यात भी प्रभावित होगा। खास बात यह है कि भारतीय कृषि क्षेत्र सिर्फ़ दो प्रतिशत की वृद्धि हुयी है और रोजगार के क्षेत्र में तेजी नहीं दिख रही है। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि 7.2 प्रतिशत की जीडीपी ग्रोथ होने के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था के समक्ष बहुत सी चुनौतियां हैं।
ध्यान रहे कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल में भारतीय अर्थव्यवस्था वर्ष 2005 से 2008 के बीच 9 प्रतिशत विकास दर रही थी लेकिन उसके बावजूद 2011 से झटके लगने लगे और अंततः कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने में निर्णायक सिद्ध हुए। सच तो यह है कि यदि ग्रास वैल्यू एडीशन-डिफ्लेटर सिद्धांत पर आधारित आकलन को छोड़े दें और आधार वर्ष 2005 वाला कर दें तो अर्थव्यवस्था 2014 की स्थिति से भी खराब प्रदर्शन करेगी।
भारत में आर्थिक विकास को लेकर आई ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि आठ फीसदी की विकास दर हासिल करने के लिए साख, निवेश और भारत के निर्यात क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा बढ़ाने से जुड़े मसलों का समाधान करने के मकसद से लगातार सुधार लाना होगा। बैंक ने अपनी रिपोर्ट में कहा, “विकास दर बढ़ाने के लिए वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ लगातार अनुकूल माहौल बनाए रखना होगा। अब जरा राजकोषीय अनुशासन की बात करें तो वर्ष 2017-18 के लिए राजकोषीय घाटा जीडीपी के 3.5 प्रतिशत के बराबर रहा जो लक्ष्य से 0.3 प्रतिशत अधिक है। राजस्व घाटा जीडीपी के 2.6 प्रतिशत के बराबर रहा जो पिछले साल 1.9 प्रतिशत था। इसी राजस्व घाटे में हुई वृद्धि का एक प्रभाव यह रहा कि राजकोषीय घाटा बढ़ गया। राजस्व घाटा बढ़ना सरकार की अदक्षता और अदूरदर्शिता को प्रदर्शित करता है। एक बात और पिछले 4 साल का अंतर्राष्ट्रीय अनुकूल वातावरण सरकार को गिफ्ट में मिला था। अंतरराष्ट्रीय बाजार में बेंचमार्क माने जाने वाले ब्रेंट क्रूड का भाव सोमवार को 75 डॉलर प्रति बैरल को पार कर गया। कीमतों में तीव्र वृद्धि का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जनवरी 2015 के आखिर में ब्रेंट क्रूड करीब 27 डॉलर प्रति बैरल के स्तर पर था। वित्त वर्ष 2017-18 में भारत का तेल आयात बिल एक साल पहले की तुलना में 25 प्रतिशत बढ़कर 109 अरब डॉलर पर पहुंच गया है। बढ़ी तेल कीमतें भारत का व्यापार घाटा और चालू खाता घाटा बढ़ा सकती हैं। वित्त वर्ष 2017-18 के पहले नौ महीनों में चालू खाता घाटा सकल घरेलू उत्पाद का 1.9 प्रतिशत रहा था। संभव है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को पुनः ट्विन डिफिसेट यानि दोहरे घाटे का सामना करना पड़े।
बैंकिंग क्षेत्र अर्थव्यवस्था के संचालन में निर्णायक भूमिका निभाता है। लेकिन सार्वजनिक बैंकिंग क्षेत्र के कई बैंकों में कई बड़े घोटाले सामने आना यह बताता है कि पहले से स्ट्रेस्ड लोन (इसमें एनपीए के साथ वह ऋण भी शामिल होता है जिसकी संभावनाएं कम होती हैं लेकिन पुनर्वित्त के जरिए पाने का प्रयास किया जाता है) के दबाव में काम कर रहे ये बैंक वित्तीय संकट की बड़ी समस्या से गुजर रहे हैं और सरकार अभी तक इनका समाधान ढूंढने में न केवल नाकाम रही है बल्कि अपनी गलतियों से उस संकट को और बढ़ा दिया है। नोटबंदी ने बैंकों के ऊपर साइलेंट बर्डन डाला, कर्जमाफी ने वित्तीय शुष्कता बढ़ायी और नीरव मोदी जैसे लोगों ने सार्वजनिक बैंकिंग तंत्र के प्रति संशय और अविश्वास उत्पन्न कर दिया।
राजनीति के नोटबंदी मॉडल पर चर्चा करनी आवश्यक है क्योंकि इसके द्वारा बड़े-बड़े सपने दिखाए गये थे। नोटबंदी के पीछे की आर्थिक सोच यह थी कि इससे असंगठित क्षेत्र की लाखों करोड़ों की नकदी संगठित क्षेत्र में आएगी और देश का करदाता आधार विस्तारित होगा जिससे कर संग्रह भी बढ़ेगा। नोटबंदी के डेढ़ साल बाद इनमें से कोई लाभ नजर नहीं आ रहा। बल्कि अब तो कौशिक बसु जैसे अर्थशास्त्री भी इसे सरकार की बड़ी चूक करार दे रहे हैं। हालांकि सरकार अब पिछले तर्कों को छोड़कर यह तर्क दे रही है कि नोटबंदी एवं जीएसटी से 18 लाख नए लोग आयकर के दायरे में आए हैं तथा 1 जुलाई 2017 से जीएसटी अर्थात माल एवं सेवाकर लागू करने से अप्रत्यक्ष कर दाताओं की संख्या में 50 प्रतिशत बढ़ेात्तरी हुई है। इस प्रकार सरकार द्वारा उठाए गए इन आर्थिक सुधारों से प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष कर दोनों ही कर राजस्व में वृद्धि हुई है। सरकार का तर्क है कि उसने नोटबंदी द्वारा सफलतापूर्वक नकदी लेनदेन में कमी लाकर डिजिटल लेनदेन को बढ़ावा दिया है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि भारत सरकार के वित मंत्रालय के अनुसार वित्त वर्ष 2015-16 में आयकर रिटर्न भरने वालों की संख्या 4.07 करोड़ थी, जिसमें से केवल 2.06 करोड़ व्यक्तियों ने इनकम टैक्स अदा किया, शेष 2.01 करोड़ लोग इनकम टैक्स छूट की सीमा में रहने के कारण टैक्स देने से बच गये। 2016-17 में इनकम टैक्स रिटर्न भरने वालों की संख्या बढ़कर 4.20 करोड़ हो गई, उनमें से 2.82 करोड़ इनकम टैक्स पेयर बने। यानि केवल 76 लाख व्यक्ति नए आयकर दाता बने। अगर मुद्रा स्फीति के खुदरा मूल्यों की सामान्य वृद्धि से ही लोगों की आय का आकलन करें तो करीब 4 से 6 प्रतिशत करदाता एक वर्ष में वैसे ही बढ़ जाने चाहिए (इनकम टैक्स स्लैब न बढ़ने के कारण) तो दो वर्ष में यह संख्या 10 से 12 प्रतिशत हो जाएगी। फिर नेट वृद्धि कितनी हुयी ? आप इसका सहज अनुमान लगा सकते हैं।
27 अप्रैल 2018 को वित्तमंत्रालय द्वारा जारी सूचना के अनुसार 1 जुलाई 2017 से 31 मार्च 2018 की 9 महीने की अवधि में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) की कुल राशि 7.41 करोड़ रुपए प्राप्त हुयी। इसमें सीजीएसटी (केन्द्रीय सीजीएसटी) 1.19 लाख करोड़ रुपए, स्टेट जीएसटी 1.72 करोड़, और इंटीग्रेटेड जीएसटी (आईजीएसटी) 3.66 लाख करोड़ रुपए तथा उपकर (सेस/सरचार्ज) 62,021 करोड़ रुपए हासिल हुए। आईजीएसटी में आयात शुल्क के 1.73 करोड़ रुपए तथा उपकरों से प्राप्ति में आयात पर सेस के 5702 करोड़ रुपए शामिल हैं। 2017-18 के 8 महीनों में केन्द्र सरकार द्वारा राज्यों को क्षतिपूर्ति के रूप में कुल 41,147 करोड़ रुपए दिए गए हैं, यह इसलिए कि जीएसटी कानून के तहत इस नई कर व्यवस्था के कारण राज्यों के राजस्व में होने वाली राजस्व में कमी की क्षतिपूर्ति केन्द्र सरकार करेगी। देखिए नोटबंदी से आयकर दाताओं की संख्या में वृद्धि हुई है इसमें दो राय नहीं है। लेकिन एक तो इसमें नेट आंकड़ा नहीं होगा और दूसरी बात यह कि सरकार नोटबंदी करके काला धन निकालने, जाली नोटों पर रोक तथा आंतकवादियों के धन पूर्ति पर नियंत्रण में असफल रही है। खास बात तो यह है कि नोटबंदी के 6 माह बाद पुनः व्यक्तिगत व व्यवसायिक लेनदेन नकदी के माध्यम से होने लगे हैं। आज भी लोग डिजिटल व ऑन लाइन भुगतान की बजाय एटीएम से नकदी प्राप्त करके नकदी में भुगतान करते हैं। यही कारण रहा कि अभी हाल ही में कैश संकट की समस्या एटीएम में देखी गयी। इस दृष्टि से सरकार का यह दावा गलत साबित हो जाता है कि उसने बड़ी मात्रा में डिजिटल लेनदेन से नकदी लेन देन को प्रतिस्थापित कर दिया है। वास्तविकता तो यह है कि देश भर के छोटे बड़े दुकानदारों को लाखों की संख्या में दी गई पीओएस मशीनें अब उनकी अलमारियों और टेबल की ड्रावरों में बंद हो गई हैं। एक दूसरा पक्ष भी जिससे जानना एक नागरिक के लिए बेहद जरूरी है। नोटबंदी से भारत की सालाना जीडीपी वृद्धि दर 7.5 से गिरकर 5.9 बाजार तक पहुंच गयी थी जो 2017-18 में भी सुधरकर 7.3 प्रतिशत तक वापस आ पाई है।
बहरहाल यहां अर्थव्यवस्था के सभी पहलुओं को समेट पाना मुमकिन नहीं है लेकिन इतना स्पष्ट है कि लगभग हर स्केल पर भारत की अर्थव्यवस्था ने पिछले 2 वर्षों में अच्छा प्रदर्शन नहीं किया है। यह अलग बात है कि सरकार उन रिपोर्टों को आगे करती है जो उसकी उपलब्धि के रूप में सामने आती हैं लेकिन बिजनेस डूइंग इंडेक्स (जो केवल भारत के दो शहरों यानि मुंबई और दिल्ली की कारोबारी गतिविधियों पर आधारित होती हे) जहां भारत सौंवे स्थान पर आ गया लेकिन वह हंगर रिपोर्ट पर मौन रहती है जिसमें भी भारत 100वें नम्बर पर रहा और इस लिहाज से वह घाना, चाड, सोमालिया, सूडान जैसे देशों की कतार में खड़ा है। लेकिन ऐसा नहीं है कि भारत में निवेश करने वाले निवेशक भारत की हंगर इंडेक्स को नहीं देखते होंगे। यही वजह है कि हमारे देश में अपेक्षाकृत निवेश कम आता है। इसी तरह से जब मूडीज ने भारतीय अर्थव्यवस्था की क्रेडिट रेटिंग बढ़ा दी तो श्रेय सरकार ने ले लिया लेकिन जब एसऐंडपी ने उसे पहले वाली स्थिति में ही बरकरार रखा तो सरकार मौन साध गयी। यानि हमारी सरकारें वास्तविकता का सामना नहीं करना चाहती जबकि वैश्वीकरण का मतलब ही है वास्तविकता से हमारा सामना। इसका मतलब तो यह हुआ कि आंकडे़ उतना ही सच बोलते हैं जितना सरकारें बोलवाना चाहती हैं। फिलहाल तो 4 साल की ऐसी कोई उपलब्धि नहीं है जिसकी पूरे मन और विश्वास के साथ प्रशंसा की जाए क्योंकि 2014 और 2018 में सकारात्मक अंतर नहीं दिख पा रहा है या तो वह उसी अवस्था में है अथवा आंकड़ों में मौसम गुलाबी दिखाने की कोशिश हो रही है, जो अब तक हो नहीं पायी है बल्कि किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला बढ़ा है। पहले का रोजगारविहीन विकास अब ग्रोथ विद् निगेटिव एम्प्लॉयमेंट में जरूर बदल गया है।