देश के सभी नेता कहते हैं हमें कालेधन को समाप्त करना चाहिए लेकिन कालाधन समाप्त करने का मोदी का नोटबन्दी का तरीका गलत है। आखिर सही तरीका क्या है यह भी बताना चाहिए। यदि बेहतर तरीका पता होता तो 70 साल में कालाधन बाहर आ गया होता। नोटों के इंतजार में शांत खड़ी जनता पर कुछ प्रदेशों में पुलिस के लोग लाठी भांजते दिखाई पड़े, कुछ बुजुर्ग तकलीफ नहीं झेल पाए और दुनिया से चले गए, बैंकों में नोट नहीं और लॉकर खाली हो गए तो इसके लिए प्रदेशों की पुलिस और बैंक प्रशासन को दोष देना चाहिए था न कि नोटबन्दी को। संसद में प्रधानमंत्री जवाब देंगे या वित्तमंत्री इसका फैसला विपक्षी दल स्वयं करना चाहते हैं। यह अभिव्यक्ति की आजादी नहीं उस आजादी का दुरुपयोग है।
इसका मतलब यह नहीं कि आम जनता को तकलीफ नहीं है या फिर सरकार सब ठीक कर रही है। जो आदमी न तो नोट बदलना चाहता है और न पुराने नोट जमा करना चाहता है, अपना पैसा निकालना चाहता है तो उसके लिए एटीएम खाली क्यों हैं। यह बैंक प्रशासन के लिए शर्म की बात है। जो पुराने नोट आप को केवल सौंपना चाहता है उससे धनराशि पूछो और तारीख बताकर टोकन दो, धूप में लाइन क्यों लगवाते हो। मजदूरों और किसानों के काम के कितने घंटे बरबाद हो रहे हैं इसका कोई हिसाब नहीं। इसका विरोध हो ठीक है लेकिन योजना का विरोध ठीक नहीं।
इतनी समझ की जरूरत है कि हमारे पास वह सब कहने या करने का अधिकार है जिसे हम सही समझते हैं लेकिन अपने स्वार्थ के लिए दूसरों को दुख पहुंचाने की आजादी नहीं है। अभिव्यक्ति की आजादी का रचनात्मक उदाहरण हम सन्त कबीर में पाते हैं जिन्होंने हिन्दू और मुसलमान दोनों को खूब खरी खोटी सुनाई पर जिनके मरने के बाद दोनों ने उनका अन्तिम संस्कार अपने अपने ढंग से करना चाहा। कबीर ने बिना लाग लपेट और बिना भेदभाव के अन्याय और कुरीतियों की आलोचना की थी, बिना भय के निस्वार्थ भाव से अपनी बात कही थी। ऐसी अभिव्यक्ति का सदा सम्मान होता है।
यदि आप एक किताब लिखें और उसका नाम तलाशें तो क्या उसका नाम भगवत गीता, बाइबिल या कुरान शरीफ़ रख देंगे, यह जानते हुए भी कि हिन्दू धर्म के मानने वाले भगवत गीता की, इस्लाम के मानने वाले क़ुरान शरीफ़ की और ईसाई धर्म के मानने वाले बाइबिल की इज्जत करते हैं। ये उनके धर्मग्रंथ हैं। अनावश्यक विवाद पैदा करने से बचा जा सकता है और अभिव्यक्ति की आजादी की दुहाई देने की जरूरत नहीं।
फिल्म जगत में तो कुछ लोग ऐसे भी हैं जो मानते हैं कि उन्हें सेन्सुअलिटी और सेक्सुअलिटी अराउज़ करने यानी उभारने की आजादी है। शायद हो भी, लेकिन उसका परिणाम भी हमारे सामने है। आए दिन रेप, लूट, कत्ल, ठगी, भ्रष्टाचार आदि के अनेक मामले देखने सुनने में आते हैं। क्या कारण है कि यह मामले आज से 30-40 साल पहले नहीं थे, है कोई स्पष्टीकरण? दूसरे कारण भी होंगे परन्तु एक कारण है तब देश में अभिव्यक्ति की इतनी आजादी नहीं थी।
कुछ कलाकार अश्लीलता परोसने के लिए तर्क देते हैं कि भारत ऐसा देश है जहां शिवलिंग पूजा जाता है और जहां खजुराहो और दूसरे मन्दिरों में कामुक मूर्तियां बनाने की आजादी थी। यह सच है कि आजादी थी परन्तु उस आजादी का दौलत कमाने के लिए दुरुपयोग नहीं किया गया। कुछ लोग नोटबन्दी का विरोध कर रहे हैं यह देखते हुए भी कि आतंकवादियों के पास नए नोट पहुंच रहे हैं, आम जनता से पहले। यदि आप आतंकियों के मित्र हैं तो नोटबन्दी का विरोध करेंगे लेकिन यदि सैद्धान्तिक विरोध है तो विकल्प जरूर बताएंगे। विरोध के लिए विरोध तो अभिव्यक्ति की आजादी नहीं है।
आर्थिक मामलों में भी इस देश में चारवाक जैसे लोगों को आजादी थी जिसने कहा था, जब तक जियो सुख से जियो कर्जा लेकर घी पियो। क्या नोटबन्दी के विरोधी चारवाक के रास्ते पर चलने की आजादी चाहते हैं।
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