गाँव, किसान, बजट और सपना

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देश में सूखे के हालात, पिछले दो चुनाव में बीजेपी की हार और गाँव में घटती लोकप्रियता के मद्देनजर मैं ऐसे ही बजट की उम्मीद कर रहा था। यकीन मानिए, पूरे बजट भाषण में मैंने खेती और ग्रामीण विकास के बाद जेटलीजी का भाषण सुनना छोड़ दिया।

किसान यह सुनने के लिए तरस गए थे कि कोई सरकार अगले पांच साल में उनकी आमदनी को दोगुना करने की बात संसद में करेगी। किसानों के कर्ज माफ कर देना, उपचार है। फिर भी अगले पांच साल में किसानों की आय को दोगुना करने का सरकार का संकल्प एक सपने सरीखा मालूम पड़ता है। काश सरकार बता पाती कि यह लक्ष्य कैसे हासिल करेगी। इस मकसद को पाने के लिए अगले पांच साल तक खेती से होने वाली आय में करीब 14 फीसदी सालाना बढ़ोतरी की जरूरत होगी। सरकार ने सूखे को देखते हुए खेती और किसानों के कल्याण के लिए 35,984 करोड़ रुपए दिए हैं। सरकार जल संसाधन मंत्रालय की 89 रुकी हुई परियोजनाओं को जल्द पूरा करके देश के 80 लाख हेक्टेयर ज़मीन को सिंचित करने की दिशा में काम कर रही है। बहरहाल, खेती को समस्या से दूर करने के लिए सरकार ने बजट में 9 लाख करोड़ रुपए का प्रावधान किया है। जिससे किसानों को सही वक्त पर और पर्याप्त कर्ज मिले।

किसानों के ऋण भुगतान का बोझ कम करने के लिए वित्त मंत्री ने ब्याज छूट के लिए 2016-17 के बजट में 15,000 करोड़ रुपए का प्रावधान भी किया है। टिकाऊ विकास के लिए जैविक खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है और इसके तहत 5 लाख एकड़ वर्षाजल क्षेत्रों को लाने के लिए परंपरागत कृषि विकास योजना का एलान किया गया है। देश का किसानों इस वक्त जिन हालात से गुजर रहा है वह छिपा नहीं है। आर्थिक सर्वे की रिपोर्ट में इस बात का जिक्र है कि एक किसान की औसतन सालाना आमदनी 20 से 30 हजार रुपए है। तो क्या ये मानें कि पांच साल बाद इस किसान की सालाना आमदनी 40 हजार से 60 हजार रुपए हो जाएगी।

लगातार आपदा की वजह से किसान भीषण कर्ज के बोझ तले दबे हुए हैं। अंदाजा है कि खेती के घाटे का सौदा होने की वजह से हर रोज ढाई हजार किसान खेती छोड़ रहे हैं और रोज़ाना 50 के करीब किसान मौत को गले लगा रहे हैं। देश की संस्थाओं के पास किसान की कोई एक परिभाषा भी नहीं है। वित्तीय योजनाओं में, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो और पुलिस की नजर में किसान की अलग-अलग परिभाषाएं हैं। राष्ट्रीय अपराध रेकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के पिछले 5 साल के आंकड़ों के मुताबिक सन 2009 में 17 हजार, 2010 में 15 हजार, 2011 में 14 हजार, 2012 में 13 हजार और 2013 में 11 हजार से अधिक किसानों ने आत्महत्या की राह चुन ली।

यह उस देश के लिए बहुत दुर्भाग्य की बात है जहां 60 फीसद आबादी खेती-बाड़ी से गुजारा करती है। आने वाले दशकों में खाद्य जरूरतों में बढ़ोत्तरी की वजह से वैकल्पिक खाद्य वस्तुओं, मसलन डेयरी, मछली और पोल्ट्री उत्पादों के विकल्पों पर भी ध्यान देने की जरूरत है। उमा भारती ने दावा भी किया है कि अगर हम सारी सिंचाई योजनाएं बावक्त शुरू कर पाएं तो खेती एक बार फिर जीडीपी में 40 फीसद का योगदान करने लगेगी। हम भी यही चाहते हैं, किसान भी। आमीन।

(लेखक पेशे से पत्रकार हैं ग्रामीण विकास व विस्थापन जैसे मुद्दों पर लिखते हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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