गाँवों का किसान सरल और कम जरूरतों वाला जीवन जीता है परन्तु वह भी पूरी नहीं होतीं। वह चाहता है रोजगार, पैसा देकर खाद-बीज-पानी, कुटीर उद्योग, पशुओं के चरागाह, बच्चों के खेल के मैदान, फीस देकर अच्छी शिक्षा, समय पर इलाज, आसानी से कर्जा, दलहन-तिलहन-फल-सब्जी का समर्थन मूल्य और सबसे पहले नीलगायों से छुटकारा।
स्कूलों में मिड-डे मील और गाँवों में मनरेगा अपना उद्देश्य पूरा नहीं कर पाए हैं, ग्रामीणों को स्वरोजगार चाहिए। पिछले साल बेमौसम बरसात और बरसात में सूखा इतना भारी पड़ा कि पेट भरना भी कठिन हो गया। किसान को हर बात के लिए सरकार पर निर्भर होना पड़ता है। सिंचाई, खाद-बीज, कृषि उपकरण, बच्चों की शिक्षा, दवाई इलाज, मकान और शौचालय, डेयरी आदि सब के लिए सरकार का मुंह देखता है किसान। खाद-बीज मिलते तो हैं लेकिन जब बुवाई का समय निकल जाता है।
सिंचाई के लिए सरकार ने नहरें बनवाई हैं ऊपर उनमें पानी नहीं, ट्यूबवेल बनवाए हैं। उन्हें चलाने के लिए बिजली और ऑपरेटर नहीं। सरकार पानी मुफ्त में देती है परन्तु नहरों में पानी तब आता है जब फसल सूख जाती है। जमीन के अन्दर के पानी पर कोई नियंत्रण नहीं उसे धनवान हड़प लेते हैं अपने नलकूप लगाकर। जरूरत है पानी का प्रबंधन, पानी पंचायत अथवा अन्य स्थानीय व्यवस्था द्वारा जिससे आवश्यकतानुसार समय पर पानी मिल सके, भले ही उसका उचित दाम देना पड़े। समस्या संसाधनों की नहीं, व्यवस्था की है। स्थानीय स्तर पर योजनाएं चलाने के लिए सरकारी नौकर नहीं, स्थानीय स्वरोजगार के इच्छुक समाजसेवी प्रोत्साहित किए जाएं।
गाँवों की बेरोजगारी मिटाने के लिए हुनर सीखने के साधन गाँवों में चाहिए। कल-कारखाने और अपना रोजगार खड़ा करने में मार्केटिंग में मदद चाहिए। पारम्परिक व्यवसाय जैसे लोहार, बढ़ई, कुम्हार, दर्जी, बुनकर वगैरह के कामों को समयानुकूल बनाकर आधुनिकता देने की आवश्यकता थी। दुर्भाग्य से उन व्यवसायों को अपनी मौत मरने दिया गया।
यदि उनका काम प्रासंगिक नहीं था तो उन कारीगरों को वैकल्पिक रोजगार चाहिए। किसान को समय पर सहकारी केन्द्रों से खाद बीज नहीं मिल पाते जबकि गाँवों के शिक्षित बेरोजगारों को किसान मित्र बनाकर उन्हें खाद बीज बेचने के लिए दिए जा सकते हैं। उन्हें उचित प्रशिक्षण देकर मिट्टी स्वास्थ्य और अन्य विविध काम भी दिए जा सकते हैं। कोटेदार की तरह नहीं, प्रत्येक पंचायत में अधिकृत दुकानदार की तरह। खाद बीज की उपलब्धता सुनिश्चित हो जाएगी।
गाँवों में कुटीर उद्योग लगाकर विविध सामान बनाए जा सकते हैं। दलिया, सूजी, बेसन, पापड़, बड़ी, अचार या फिर अनाज, दालें और चावल प्रसंस्करण के लिए कच्चा माल गाँवों में है इसलिए उद्योग भी वहीं होने चाहिए । इसके साथ ही गुड़, जाम, जेली, सॉस आदि बनाने और सरकारी क्रय केन्द्रों तक पहुंचाने में शिक्षित बेरोजगारों को प्रोत्साहित किया जा सकता है।
मार्केटिंग की समस्या तो हल होगी ही ग्रामीण रोजगार के अवसर बढ़ेंगे। चोकर के बिस्कुट और आटे के नूडल अब सुनाई पड़े हैं। इसी प्रकार कम तापमान पर गाँवों में पिराई से निकला खाद्य तेल, पिसा आटा, पिसे मसाले आदि अधिक गुणवत्ता वाले होते हैं इसका प्रचार होना चाहिए। परन्तु यह ज्ञान गाँवों में नहीं शहरों में आना चाहिए जहां मैदा की बनी चीजें प्रयोग में लाई जाती हैं और स्वास्थ्य बिगाड़ती हैं।
किसान के बच्चे भी अच्छी शिक्षा पा सकते हैं यदि प्रत्येक प्राइमरी स्कूल में पांच अध्यापक कर दिए जाएं। इस प्रकार अनेक विद्यालय बिना अध्यापक हो जाएंगे। ऐसे बिना अध्यापक विद्यालयों को स्थानीय शिक्षित बेरोजगारों को चलाने के लिए दे दिया जाय, उन्हें फीस लेने की अनुमति दी जाय और वे धीरे-धीरे सरकार को भूमि भवन की लागत वापस कर दें। लागत वापस न कर पाएं या शिक्षा स्तर कायम न रख पाएं तो स्कूल किसी दूसरे इच्छुक बेरोजगार को दिया जाय। सम्पत्ति पर प्रधान का और शिक्षा स्तर पर सरकार का नियंत्रण रहे। पचास हजार वाले अध्यापक की शिक्षा से इनकी तुलना भी हो सकेगी।
आवश्यकता है विकास के पूर्ण विकेन्द्रीकरण की और सेवाओं के प्राइवेटाइजेशन की। सरकार केवल निरीक्षण और नियंत्रण पर ध्यान दे बाकी काम शिक्षित बेरोजगारों को सौंप दिया जाय। भ्रष्टाचार घटेगा, काम में सुविधा और गति आएगी और शिक्षित बेरोजगारी समाप्त होगी। सरकार को समाज पर भरोसा करने की जरूरत है।