सबकी निगाहें फिलहाल एनडीए सरकार के इस आखिरी पूर्ण बजट पर टिकी हैं और इसमें भी खास तौर पर देश का विशाल किसान समुदाय आशा भरी निगाहों से देख रहा है। प्रधानमंत्री ने खुद माना है कि खेती संकट में और उसे उबारने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को मिल कर और ठोस प्रयास की दरकार है। ऐसी दशा के बीच में वित्त मंत्री अरुण जेटली खेती बाड़ी के कायाकल्प के लिए क्या कुछ कदम उठाते हैं और क्या संसाधन देते हैं, इस पर देश भर के किसानों की निगाह है।
इस साल आठ राज्यों के विधान सभा चुनाव होने हैं और उसके तत्काल बाद देश लोक सभा चुनाव की तैयारियों में जुट जाएगा। लोक सभा चुनाव 2019 के दौरान अंतरिम बजट में किसी घोषणा की गुंजाइश नहीं होगी, इस नाते जो कुछ खास किसानों के हिस्से में आना है, उसके लिए 2018-19 के बजट से और कोई बेहतर मौका नहीं है। शायद इसी नाते जो संकेत मिल रहे हैं, उससे लगता है कि खेती बाड़ी बजट के केंद्र में रहेगी।
संसद के समक्ष अपने अभिभाषण में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने कहा है कि किसानों की तकलीफों का समाधान सरकारी की उच्च प्राथमिकता है। सरकारी योजनाएं किसानों की चिंता कम कर रही हैं। इससे खेती की लागत घटी है और कईसकारात्मक परिणाम मिले हैं। उन्होंने कहा भारत सरकार 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने और 2019 तक हर गांव को सड़क से जोड़ने के तहत सारे जरूरी कदम उठा रही हैं।
तमाम ज्वलंत सवालों के साथ राष्ट्रपति ने खेती बाड़ी की चुनौतियों और सरकारी प्रयासों को खास अहमियत दी और कहा कि अनाज और फल सब्जी उत्पादन में व्यापक बढोत्तरी सरकारी नीतियों और किसानों की कड़ी मेहनत का फल है।
राष्ट्रपति ने सिंचाई सुविधाओं के विकास की चर्चा करते हुए दशकों से लंबित 99 सिंचाई परियोजनाओं को पूरा करने की दिशा में चल रहे कामों को महत्व का बताया और दाल उत्पादन में 38 फीसदी से अधिक बढ़ोत्तरी के साथ रिकार्ड बनने पर खुशी जाहिर की। फसल कटाई की हानियों को कम करने के लिए शुरू की गयी प्रधानमंत्री किसान संपदा योजना और 11 हजार करोड़ रुपए लागत की डेयरी प्रसंस्करण विकास निधि का खास उल्लेख करते हुए राष्ट्रपति ने यूरिया के उत्पादन बढनेपर संतोष जताया। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत रबी और खरीफ में 5 करोड़ 71 लाख किसानों को सुरक्षा देने का मसला उठाते हुए राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क का दायरा चार सालों में 56 फीसदी गांवों से बढ़ कर 82 फीसदीगावों तक पहुंचने को अहम कदम बताया।
दूसरी ओर…
वहीं दूसरी ओर आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 में कृषि अनुसंधान एवं विकास के लिए अधिक आवंटन के साथ कई अहम मसलों को उठाया गया है। बीज से बाजार तक सरकार की ओर से की गयी पहल का उल्लेख करते हुए आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया कि भारतीय किसान पहले की तुलना में तीव्र गति से कृषि यांत्रिकीकरण अपना रहे हैं। ट्रैक्टरों की बड़ी तादाद में बिक्री हो रही है। आकलन है कि कुल श्रम बल में कृषि श्रमिकों का प्रतिशत 2001 के 58.2 फीसदी से गिरकर 2050 तक 25.7फीसदी तक आ जाएगा।
ऐसे में कृषि यंत्रीकरण को बढ़ाने की जरूरत है। रोजगार के लिए देहात से शहरों में पुरुषों के पलायन के नाते कृषि क्षेत्र में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ रही है। आज जरूरत इस बात की है कि महिलाओं तककृषि आदानों के साथ तकनीक पहुंचे। सरकार ने तमाम योजनाओं में महिलाओं के लिए 30 फीसदी हिस्सा तय किया है और कई कदम उठाए हैं। कृषि में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका को मान्यता देते हुए कृषि मंत्रालय ने 15 अक्टूबर को महिला किसान दिवस मनाना भी आऱंभ किया है।
लेकिन राष्ट्रपति का अभिभाषण हो या फिर आर्थिक सर्वेक्षण ये खेती बाड़ी की जमीनी चुनौतियों की तरफ संकेत देने की जगह वास्तव में सरकारी योजनाओं पर केंद्रित है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि हाल के सालों में भारत सरकार ने खेती-बाड़ीऔर किसानों के हक में कई कदम उठाए हैं और कई योजनाओं के लिए आवंटन भी बढाया है। लेकिन कई क्षेत्रों में बढ़ता कृषि संकट और किसानों का असंतोष और आंदोलन यह साबित करता है कि इन योजनाओं के जमीनी क्रियान्वयन में कोई खोट है। इसी नाते खेती को नया जीवन देने के लिए कई स्तर पर प्रयासों की जरूरत है। इसमें पहला काम तो यह है कि खेती में सरकारी औऱ निजी निवेश बड़े पैमाने पर होना चाहिए। खेती की लागत कम करने और वर्षासिंचित इलाकों पर अलगसे ध्यान केंद्रित किए बिना खेती के कायाकल्प की गुंजाइश कम है।
प्रधानमंत्री सिंचाई योजना के लिए इस बजट में अधिक धन आवंटन हो सकता है लेकिन यह ध्यान रखने की बात है कि देश की 337 अधूरी पड़ी सिचाई परियोजनाओं को 4.22 लाख करोड़ रूपए की भारी राशि चाहिए। साथ ही बेहतर जल प्रबंधनके लिए मंहगी तकनीक को देहात तक पहुंचाने के लिए छोटे और मझोले किसानों को अधिक मदद की दरकार है।
आज जमीनी हकीकत यह है कि खेती तमाम इलाकों में वेंटीलेटर पर खड़ी है। सरकार ने कृषि ऋण का भारी भरकम महत्वाकाक्षी लक्ष्य रखा है तो भी सरकारी बैंकों से कर्ज हासिल करना आज भी किसानों के लिए टेढ़ी खीर है।
आज जमीनी हकीकत यह है कि खेती तमाम इलाकों में वेंटीलेटर पर खड़ी है। सरकार ने कृषि ऋण का भारी भरकम महत्वाकाक्षी लक्ष्य रखा है तो भी सरकारी बैंकों से कर्ज हासिल करना आज भी किसानों के लिए टेढ़ी खीर है। किसी भी देश केनीति निर्माताओं को उनके यहां खाद्य वस्तुओं के रिकार्ड उत्पादन पर खुशी होती है। लेकिन भारत में उल्टा ही होता है। खादयान्न उत्पादन के सारे रिकार्ड टूट जाने के बाद भी किसान खाली हाथ रहते हैं। हाल के महीनों में देश के कई हिस्सों मेंकिसानों ने फसलों का वाजिब दाम और स्वामिनाथन आयोग की रिपोर्ट लागू करने के साथ एकबारगी कर्ज माफी की मांग को लेकर आंदोलन किया। अन्न उत्पादन ही नहीं आलू प्याज पैदा करने वाले किसानों को साल-दो साल पर अपना उत्पादनसड़क पर फेंकने की नौबत आ जाती है।
ऐसा नहीं है कि सरकारें इस संकट से अंजान हैं। जन प्रतिनिधि सदनों में इस मसले को लगातार उठा रहे हैं और किसान संगठन भी। खेती की लागत लगातार बढ रही है और किसान की आय घट रह है। ऐसे में मानसून पर निर्भर होकर खेती करने वाले उन इलाकों के किसानों की दशा को समझा जा सकता है। गैर सिंचित इलाकों में भारी कृषि संकट और किसानों की आत्महत्याओं के बाद भी कोई ठोस रणनीति नहीं बनायी गयी है।
पिछले साल 2017-18 के आम बजट में वित्त मंत्री अरूण जेटली ने दस लाख करोड़ रुपए के कृषि ऋण का प्रावधान करने के साथ 4.1 फीसदी विकास दर का अनुमान लगाया था। प्रधानमंत्री फसल बीमा में 50 फीसदी इजाफा करने के साथ कईदूसरी घोषणाएं भी की गयी। बेहतर मानसून के चलते बीते सालों सा संकट तो नहीं दिखा लेकिन किसानों का आक्रोश यह बताता है कि बजट कोई भाषा बोले वे संतुष्ट नहीं है।
यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि खेतीबाड़ी आज भी देश की 58 फीसदी से ज्यादा आबादी को आजीविका दे रही है। भारत में 6.27 लाख गांव हैं। एक गांव में कमसे कम 50 किसान परिवार रहते हैं। लेकिन तमाम गांव आज भी बैलगाड़ीयुग में जी रहे हैं। देश में 7.2 करोड़ बैल तथा 0.8 करोड़ भैंसा कृषि कार्यों में लगे हैं जो आधुनिक ट्रैक्टरों से ज्यादा योगदान दे रहे हैं। इन किसानों पर सरकार का खास ध्यान नहीं है।
देश में बैकों के व्यापाक विस्तार के बावजूद एक तिहाई सेज्यादा किसान साहूकारों से कर्ज ले रहे हैं। सेठ साहूकारों से ही कर्ज लेना उनको सरकारी बैंको से आसान लगता है क्योंकि औपचारिकताएं काफी कम होती हैं। लेकिन वे भारी शोषण करते हैं। आज भी भारत के कुल कृषि क्षेत्र में से 60 फीसदीइलाका वर्षा सिंचित है। देश के तमाम हिस्सों में सूखा या विकराल बाढ़ सालाना आयोजन बन गया है। इसमें खेती को काफी नुकसान होता है। उचित जल प्रबंधन न होने से तमाम इलाकों में भूजल नीचे जा रहा है और ट्यूबवेल फेल हो रहे हैं।
एक दौर तक किसानी भारत में सबसे सम्मानजनक पेशा था लेकिन आज इतनी दयनीय़ दशा में है कि किसान समाज में सबसे निचले पायदान पर खड़ा है। किसानो और अन्य संगठित क्षेत्र के बीच 1970 के दशक में जो अंतर 1-2 का था वह अबबढक़र 1-8 का हो गया है।