ग्लोबल वॉर्मिंग पर ठंडा रुख़

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ग्लोबल वॉर्मिंग पर ठंडा रुख़गाँव कनेक्शन

ग्लोबल वॉर्मिंग यानी वैश्विक तापवृद्धि की वजह से दुनियाभर के निचले इलाके डूब जाएंगे और सुन्दरवन से लेकर मालदीव जैसे इलाकों का अस्तित्व खत्म हो जाएगा, यह बातें हम सबने पर्यावरणविदों की ज़ुबानी सुनी है। बांग्लादेश के तटीय इलाके हों, या फिर साल 2005 में चक्रवातीय अपरदन और खारे जल की बढ़त से पापुआ न्यूगिनी के कार्टरेट द्वीप के एक हजार निवासियों को विस्थापित करके कहीं और बसाना, मिसालें कई हैं। साल 2006 में हुगली नदी डेल्टा का लोहाछारा टापू पूरी तरह डूब गया था और करीब 10 हज़ार लोगों को विस्थापित करना पड़ा था।

पेरिस में कोप-21 में भी जलवायुविक वजहों से जबरिया पलायन के इन पहलुओं और उसके समाधान की दिशा में चर्चाएं हुई हैं। उन चर्चाओं से क्या निकला है, क्या हासिल होने वाला है इस पर आखिरी समझौते के बाद ही कोई टिप्पणी होगी। लेकिन फिलहाल, इस स्तंभ के लिखे जाने तक, उम्मीद तो बनाए ही रखना चाहिए।

इस विस्थापन की वजह से सामाजिक समस्याओं का अलग आयाम भी है। अगर सीरिया की शरणार्थी समस्या की बात करें तो याद रखना चाहिए कि वहां तीन साल से अकाल की समस्या भी थी। दार्फुर हो या सूडान, इस सबके मूल में पर्यावरण प्रबंधन की कमी और जलवायु परिवर्तन की समस्या ही है। और इस बरबादी का सबसे बड़ा शिकार वह कतार का आखिरी आदमी है, जिसने जलवायु परिवर्तन की इस परिघटना में सबसे कम योगदान दिया है।

जलवायु शरणार्थी या जबरिया विस्थापितों को जाहिर है, कोई अधिकार नहीं मिलते व स्थानीय लोगों के शत्रुतापूर्ण व्यवहार का सामना भी उन्हें करना होता है। पलायन की इस समस्या से निबटने को दुनियाभर में बमुश्किल ही कोई प्रयास होता है। दहशत, नस्लवाद व नफरत ने ऐसे पलायनों को प्रभावितों के लिए और बदतर बना दिया है।

अब बड़ा सवाल है कि इन विस्थापितों के लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किस तरह की मदद की जाए और उन्हें किस तरह के अधिकार मिलने चाहिए।

सन् 1990 में जलवायु परिवर्तन पर गठित अंतर सरकारी पैनल (आईपीसीसी) ने कहा था कि जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव इंसानी पलायन का होगा। तब से लेकर आज तक दुनिया के तमाम देश जलवायु परिवर्तन से हुए पलायन, विस्थापन और उसके परिणामों पर ही सौदेबाज़ी में मशगूल रहे हैं। कानकुन में हुए कोप-16 में आकर ही एक ठोस सहमति बन पाई जब एक ऐसा अनुकूलन फ्रेमवर्क तैयार किया जा सका ताकि राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय या क्षेत्रीय स्तर पर किसी किस्म के पलायन, विस्थापन वगैरह समस्याओं के संदर्भ में समन्वय और सहयोग किया जा सके। लेकिन, जलवायुविक विस्थापन से जुड़ी बातें समझौते के बाद कहीं खो गईं।

असल में, पलायन और विस्थापन तभी होता है जब समस्या की सरहद पर खड़े देशों में परिस्थितियों के मुताबिक अनुकूलन नहीं होता है। इसलिए परिस्थितियों के हिसाब से अनुकूलन न हो पाने को भी नुकसान का अंश माना जाना चाहिए। इस तर्क को वारसा अंतरराष्ट्रीय क्रियाविधि में शामिल किया गया, ताकि देशों को जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान, जिसमें विस्थापन और पलायन की वजह से होने वाले नुकसान भी शामिल हैं, का आकलन किया जा सके।

अब, इस दफा, यानी कोप-21 में चार दिसंबर को जारी किए गए पेरिस समझौते में, नुकसान या ध्वंस से जुड़े अनुच्छेद में वारसा अंतरराष्ट्रीय क्रियाविधि का विस्थापन के संदर्भ में जिक्र है और इसके मुताबिक, जलवायु परिवर्तन विस्थापन समन्वय सुविधा की स्थापना वारसा अंतरराष्ट्रीय क्रियाविधि के तहत होनी चाहिए, ताकि जलवायु परिवर्तन से हुए विस्थापन, पलायन और योजनाबद्ध पुनर्वास की निगरानी की जा सके।

लेकिन, अगर आप इस पूरे अनुच्छेद का मूल रूप में यानी अंग्रेजी में पढ़ें तो पाएंगे कि यह पूरा अनुच्छेद कोष्ठकों में है, इसलिए नुकसान को लेकर किसी भी पार्टी का क्या रूख होगा यह उनके अपने नज़रिए पर निर्भर करेगा। और यह भी डर है कि कहीं यह अनुच्छेद मूल समझौते में शामिल ही न हो।

अगले हफ्ते तक, यह तय हो जाएगा कि पेरिस में इस शीर्ष बैठक से किस देश को क्या हासिल हुआ। यह भी तय हो जाएगा कि आखिर कतार के आखिरी आदमी को क्या मिलेगा, जिसे समुद्री जलस्तर या सूखे की वजह से अपना घर छोडऩा पड़ता है। मैं आपको एक किस्सा उड़ीसा के सतभाया का भी सुनाऊंगा, जो संभवतया, भारत मे ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से हुए पहले अनाथ हैं।

(लेखक पेशे से पत्रकार हैं ग्रामीण विकास व विस्थापन जैसे मुद्दों पर लिखते हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

 

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