पलायन की मार से गाँव के गाँव खाली हो रहे हैं। बढ़ते शहरीकरण के मद्देनजर राष्ट्रीय कौशल विकास परिषद ने खेती-किसानी में लगी आबादी की तादाद 52 फीसदी से घटाकर 38 फीसदी करने की योजना बनाई है। इसके मायने पांच साल में तकरीबन 10 करोड़ लोग गाँव छोड़कर शहरों में आ बसेंगे।
केंद्रीय शहरी विकास मंत्री एम. वेंकैया नायडू ने एक कार्य योजना बनाई है। विशेषज्ञों के हवाले से उन्होंने कहा कि देश को बेंगलुरु की तर्ज पर 22 शहर विकसित करने की जरूरत है। इसके अलावा मौजूदा 3041 शहरों को जीवन यापन के लायक बनाना होगा। आर्थिक वृद्धि पाने के लिए यह महत्वपूर्ण है।
संयुक्त राष्ट्र ने अपने एक अध्ययन में खौफनाक तस्वीर पेश की है। 2050 तक जो लोग पलायन कर शहरों में जा बसेंगे उन्हें रहने के लिए सिर्फ दो फीसदी जमीन मिलेगी। जैसे-जैसे गाँव खाली होंगे शहर लोगों की भीड़ से पटते जाएंगे। अब से 30 साल बाद जब देश के बहुत बड़े हिस्से में आबादी रहने लगेगी तो पता नहीं उस वक्त जीवन जीना कैसा होगा? मुख्य धारा के अर्थशास्त्री इसकी सराहना करेंगे लेकिन इससे ज्यादा डरावना कुछ नहीं हो सकता।
अर्थशास्त्रियों के लिए यह सर्वश्रेष्ठ आर्थिक सुधार होगा। इस वक्त आरबीआई के पूर्व गवर्नर डॉ. रघुराम राजन का वह बयान याद आ रहा है जब उन्होंने कहा था कि सर्वश्रेष्ठ आर्थिक सुधार तब होगा जब खेती में लगी आबादी शहरों में आकर बस जाए। नीति आयोग के डिप्टी चेयरमैन अरविंद पनगढ़िया ने भी यही बात दोहराई थी। मुझे इसमें जरा भी हैरानी नहीं है क्योंकि 1996 के दशक में वर्ल्ड बैंक ने भारत से ऐसा ही कुछ करने के लिए कहा था। उसने भारत की आर्थिक तरक्की के लिए कार्ययोजना तैयार की थी जिसमें बताया गया था कि 20 साल में यानि 2015 तक 40 करोड़ लोग खेती-किसानी छोड़ देंगे। वर्ल्ड बैंक के मुताबिक इतने वृहद स्तर पर आबादी के स्थानानांतरण से ही गरीबी दूर होगी। मुख्यधारा के अर्थशास्त्री वर्ल्ड बैंक की लीग का अनुसरण कर रहे हैं।
गाँवों से पलायन को वृद्धि के सूचक के तौर पर देखा जा रहा है। उत्तरोत्तर सरकारें इसी निर्देश का पालन करती आई हैं। ग्रामीण अर्थव्यवस्था की ओर ध्यान देने की बजाय ऐसी विषम आर्थिक परिस्थितियां पैदा की गईं जिससे ज्यादा से ज्यादा किसान खुद ही खेती छोड़कर शहर में आकर मामूली नौकरी करें।
यह मानते हुए कि 70 फीसदी आबादी गाँवों में रहती है जिसमें 52 फीसदी खेती में लगी है, लोगों को गाँव छोड़ने के लिए मजबूर करने का सबसे आसान तरीका खेती में पर्याप्त वित्तीय सहायता हटाना और किसानों को उनकी फसलों का न्यूनतम मूल्य देकर हतोत्साहित करना है। शायद इसीलिए किसानों के आत्महत्या करने की खबरों से नीति निर्माताओं के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती है। बीते 21 साल में 3.18 लाख किसानों ने आत्महत्या की। लेकिन किसे परवाह है?
60 करोड़ किसानों के लिए बजट में आज तक जो भी दिया गया वो न के बराबर है। वर्ष 2013-14 में खेती के लिए 19,307 करोड़ रुपए के सालाना बजट का प्रस्ताव किया गया था जो कि कुल बजट का एक प्रतिशत भी नहीं था। वर्ष 2014-15 में तो खेती का बजट घटकर 18,000 करोड़ हो गया। वर्तमान वित्त वर्ष में केंद्र के इतने बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने के बाद भी खेती के लिए दिए गए बजट में पिछले बजट की तुलना में महज़ 4000 करोड़ रुपए की ही बढ़ोतरी की गई। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में खेती के विकास के लिए एक लाख करोड़ रुपए दिए गए थे, जिसे बारहवीं पंचवर्षीय योजना में बढ़ाकर 1.5 लाख करोड़ रुपए कर दिया गया। अब इसकी तुलना उद्योगों को दिए गए बजट से करते हैं। इस साल यानि 2016-17 के बजट में उद्योगों को 6.11 लाख करोड़ रुपए की कर-छूट दी गई और ये विभिन्न मदों में इस क्षेत्र को दिए गए बजट के अतिरिक्त था। वर्ष 2004-05 से आज तक उद्योगों की स्थिति सुधारने के लिए उन्हें 48 लाख करोड़ रुपए की केवल टैक्स छूट दी जा चुकी है।
खाद्य पदार्थ, खेती, शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए सरकार जिन भी वित्तीय संसाधनों का प्रबंध करती है उन्हें ‘सब्सिडी’ यानि ‘सरकारी अनुदान’ का नाम दे दिया जाता है। वहीं, अमीर और संपन्न लोगों को सरकार कहीं ज्यादा वित्तीय सहायता और बजट उपलब्ध कराती है लेकिन उसे ‘विकास के लिए प्रोत्साहन’ बोला जाता है न कि अनुदान। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘विकास के लिए दिए गए प्रोत्साहन’ राशि या अन्य सुविधाओं को अनुदान माना था, जिसकी बहुत ज़रूरत भी थी।
सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की ऊंची दरों के पीछे दौड़ने की रेस में जो तथ्य नज़रअंदाज़ हो रहा है वो ये कि आर्थिक वृद्धि और विकास तक जो रास्ता जाता है, वो गाँवों से ही होकर निकलता है। गाँवों को खाली कराने के बजाय आर्थिक नीतियां ऐसे बनाई जानी चाहिए कि गाँवों को ही विकास के इंजन में बदला जा सके। सौ स्मार्ट सिटी बनाने के बजाय नीतियों का रूझान एक लाख स्मार्ट गाँव बनाने की ओर होना चाहिए। ये सारे गाँव ग्रामीण क्षेत्रों के लिए सार्वजनिक उपयोगिताओं (पूरा) के आधार पर विकसित किए जाने चाहिए। ये मान लेते हैं कि शहरों में सबसे ज्यादा नौकरियां मंदिरों में मिलती हैं, फिर आता सुरक्षा गार्डों का नंबर और फिर लिफ्ट संचालकों का, क्या ये सब मिलकर आर्थिक वृद्धि का आधार बनेंगे? खेती अकेले ही सबसे ज्यादा नौकरियां देने वाला क्षेत्र है, वर्तमान में लगभग 60 करोड़ लोग इसमें लगे हैं, तो आवश्यकता इस क्षेत्र में लगे लोगों के लिए इसे फायदेमंद बनाने की है।
भारत में उद्योगों के समूह सीआईआई के अनुसार अगले चार साल में तीन करोड़ लोगों को नौकरियां दे पाना मुख्य तौर पर कंन्सट्रक्शन उद्योग में दिहाड़ी मजदूरों की मांग पर आधारित है, यानि योजना गाँवों से लोगों को निकालकर शहरों में दिहाड़ी मजदूर बनाने की है। ये विकास नहीं है। इसीलिए गाँवों की अर्थव्यवस्था के विकास पर सबका ध्यान वापस खींचने के लिए मेरे ये सुझाव हैं:
- क्योंकि देश की एक बहुत बड़ी जनसंख्या अपने जीवनयापन के लिए परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से खेती पर आधारित है तो सबसे पहली आवश्यकता खेती को ही मुनाफेदार बनाने की है। इसके लिए ग्रामीण आधारभूत संरचना को सुधारने के लिए वित्तीय सहायता की जरूरत होगी। आधारभूत संरचना का मतलब किसानों के लिए मंडियों का एक नेटवर्क, गाँवों में ही भण्डार गृह और सिंचाई की उत्तम व्यवस्था।
- जैसा कि पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने कहा था कि शहरी सुविधाओं को गाँवों तक पहुंचाने की ज़रूरत है। कृषि आधारित उद्योगों के साथ ही यदि ब्लॉक स्तर तक भी शैक्षिक संस्थान, कॉलेज, अस्पताल आदि सुविधाएं पहुंचा दी जाएं तो शहरों की ओर पलायन को रोकने में मदद मिलेगी।
- ध्यान इस ओर होना चाहिए कि गाँव अपनी खाद्य आवश्यकताओं के लिए आत्मनिर्भर बनें। इसके लिए खाद्य सुरक्षा कानून के प्रावधानों को खेती की प्रणाली के साथ् मिलाकर नीति बनाने की आवश्यकता होगी। ब्लॉक या तहसील स्तर पर गाँवों के समूह या क्लस्टर बनाकर उन्हें क्षेत्रीय उत्पादन, क्षेत्रीय खरीद और क्षेत्रीय वितरण के सिद्धांतों को मानकर चलने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।
महात्मा गाँधी को मैं देश का सबसे बड़ा चिंतक मानता हूं, वो भी इस नीति का समर्थन करते। हमें 6.4 लाख स्मार्ट गाँवों की ज़रूरत है ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियां रहने लायक माहौल देने के लिए हमारा ध्न्यवाद करें।
(लेखक प्रख्यात खाद्य एवं व्यापार नीति विश्लेषक हैं, ये उनके अपने विचार हैं)