एक संस्था है एसोसिएशन ऑफ डिमोक्रेटिक राइट्स यानी एडीआर और दूसरी संस्था है, नेशनल इलेक्शन वॉच। यह दोनों ही संस्थाएं भारत में राजनीतिक दलों और नेताओं की दौलत वगैरह का ब्योरा वक्त-वक्त पर पेश करती रहती हैं और चुनावों में काले धन के इस्तेमाल और भ्रष्टाचार पर भी उनकी निगाह रहती है।
इन दोनों संस्थाओं ने 2004 से 2015 के बीच भारत में सियासी दलों को मिलने वाले चंदे के स्रोतों का व्यापक विश्लेषण किया है। इस विश्लेषण से तमाम सुबूत मिलते हैं कि अब सियासी दलों को मिलने वाले चंदे पर लगाम लगाने या कहिए कि उसमें पारदर्शिता लाने के लिए सख्त कानून की ज़रूरत है।
अब, इस बार के बजट में केन्द्र सरकार ने दो हज़ार से अधिक नकद चंदे पर रोक लगा दी है, तो इसे इसी वित्तीय गड़बड़ियों पर रोक की दिशा में एक कदम माना जाना चाहिए। कुछ लोग दलील देंगे कि सियासी दल ऐसी बंदिशों का तोड़ निकाल लेंगे, लेकिन इस बात से एक बेहतर कानून या नियम की ज़रूरत को कम नहीं किया जा सकता।
बजट में इस बात के उल्लेख से एक बात तो साफ है कि केन्द्र सरकार चुनावी प्रक्रिया को साफदामन बनाने के चुनाव आयोग के सुझावों पर अमल के लिए कदम उठा रही है। ऐसे कदम इसलिए भी ज़रूरी हैं कि अगर सियासी दलों को मिले चुनावी चंदों की बात की जाए, तो एडीआर के ही मुताबिक, पिछले एक दशक में देश के राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों को तककरीबन 11,367 करोड़ रुपए चंदे के रूप में हासिल हुए हैं लेकिन इस राशि में से करीब 7,833 करोड़ की रकम अज्ञात स्रोतों से मिली है। अज्ञात स्रोतों से राशि हासिल करने में कांग्रेस सबसे आगे रही है और उसे करीब 3,323 करोड़ रुपए इन अज्ञात स्रोतों ने दिए। यह भी गौरतलब है कि पिछले एक दशक में (यानी एडीआर के अध्ययन की अवधि में) कांग्रेसनीत यूपीए ही सत्ता में थी।
वहीं, अज्ञात स्रोतों से बीजेपी को 2126 करोड़ रुपए हासिल हुए। यह उस पार्टी की कुल आमदनी का करीब 64 फीसद थी। सिर्फ यही दल नहीं, वामपंथी पार्टियों और ईमानदारी के मुद्दे पर चुनावी चौसर खेल रही आम आदमी पार्टी को भी चंदे में अज्ञात स्रोतों से मिली राशि ही सबसे अधिक रही है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को करीब 766 करोड़ चंदे में मिले और इसका 95 फीसद हिस्सा अज्ञात स्रोतों से मिला।
अब बात बसपा की, जिसने नोटबंदी के दौरान यह स्पष्ट कर दिया था कि उसे कभी 20 हजार से अधिक कोई रकम नकद चंदे के रूप में नहीं मिला। यानी उसकी तो तकरीबन सौ फीसद आय अज्ञात स्रोतों से ही रही। ज़रा आंकड़ों पर गौर करिए, बसपा की आमदनी 2004 में पांच करोड़ रुपए थी जो आज की तारीख में 112 करोड़ है। आमदनी में यह इजाफा तकरीबन दो हजार प्रतिशत का है। चुनाव आय़ोग अब इस छूट के दुरूप्रयोगों पर लगाम लगाने की कोशिश कर रहा है तो इसे स्वागतयोग्य इसलिए भी माना जाना चाहिए क्योंकि अब तक अगर किसी ने 20 हज़ार रुपए से कम का चंदा दिया हो तो उसका नाम गुप्त रखा जा सकता था।
अब इसी वजह से सियासी दल के खाते मोटे होते जाते हैं लेकिन किसने उन्हें यह रकम दी, इसका कोई पता ही नहीं चल पाता। 2014-15 के एडीआर के आंकड़ों ने स्पष्ट किया है भारत के राजनीतिक दलों की आमदनी का करीब 71 फीसद तो इन्हीं अज्ञात स्रोतों से हासिल हुआ है। जो लोग बेनामी रूप से चंदा देते हैं उसके बारे में यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि उन लोगों की यह कमाई या बचत काली कमाई का ही हिस्सा रही होगी। ऐसे में, चुनावी प्रक्रिया में इस काले पैसे को आने का एक लूपहोल बचा हुआ ही दिखता है।
इस छेद को बंद करने के बाद ही चुनावी प्रक्रिया को साफ-सुथरा बनाने की कोशिश को नख-दांत मिलेंगे। असल में, मज़ा तो तब आए, जब ईमानदारी को चुनावी मुद्दा बनाने वाली पार्टियां सबसे पहले चुनावी चंदे में मिली रकमों को नाम के साथ अखबारों या अपने साइट पर प्रकाशित करे।नकद चुनावी चंदे को 2 हजार रुपए तक सीमित करके केन्द्र सरकार ने एक उम्मीद को नया जन्म दिया है। यह काम ठीक से चला, तो बात ऐसी है कि फिर दूर तलक जाएगी।
(यह लेख, लेखक के गुस्ताख़ ब्लॉक से लिया गया है।)