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हर्बल एनसायक्लोपिडिया थे जानु दादा

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डांग गुजरात प्रांत की राजधानी गांधीनगर से करीब 420 किमी दूर स्थित एक आदिवासी बाहुल्य जिला है। रहने, खाने और पीने जैसी मूलभूत आवश्यकताओं के अलावा अपने इलाज के लिए स्थानीय वनवासी मूल रूप से वन संपदाओं पर ही आश्रित हैं। स्थानीय लोगों का इलाज भगतों (पारंपरिक वैद्य) के दवारा किया जाता है। मैं पहली बार इस क्षेत्र में सन 2005 में गया था और तभी वहां मेरी मुलाकात एक 85 वर्ष के बुजुर्ग हर्बल जानकार जानु दादा से हुई थी।

एक छोटे से कमरे में प्लास्टिक के डिब्बे जिनमें कुछ जड़ी-बूटियां, कुछ चूर्ण, जमीन पर बिखरे हुए कुछ कंद और पास ही बिछी हुए दो चटाईयां, बस यही सब दिखाई दिया था मुझे उस कमरे में जहां जानु दादा बैठा करते थे। कमरे के बाहर कई लोग कतारों में बैठे थे। उस कमरे के बाहर मैं इंतजार करते-करते चाय की चुस्कियों का मजा ले रहा था।

मेरे बगल में जानु दादा मुंह में गुड़ाखु चबाते हुए जमीन पर बैठे हुए थे। जो लोग इस बुजुर्ग के करीब आते वो इनके पांव छुए बगैर नहीं रहते। उसी वक्त एक टाटा सूमो गाड़ी आई और दौड़ता हुआ गाड़ी का मालिक इस बुजुर्ग के पैरों पर आकर लेट गया और लगातार रोता रहा। उसके साथ आए एक अन्य व्यक्ति के हाथ में मिठाई का डिब्बा था। आसपास खड़े लोगों के बीच मिठाई बांटी जाने लगी और फिर जानकारी मिली कि उस व्यक्ति के घर संतान प्राप्ति हुई है।

सूरत से पधारे इस व्यक्ति से मैंने जानकारी ली और पता चला कि पिछले 10 वर्षों से संतान-प्राप्ति की इच्छा रखने वाले व्यक्ति ने अब तक लाखों रुपए लुटा दिए थे। सूरत, अहमदाबाद और फिर मुंबई के तमाम अस्पतालों में पति-पत्नी ने चक्कर काट-काटकर 9 साल बिता दिए लेकिन कोई फायदा ना हुआ और फिर इन्होंने जानु दादा के बारे में सुना, इनसे मुलाकात कर कुछ हर्बल फार्मूलों का इस्तेमाल किया और एक साल बाद संतान प्राप्ति हुई।

सूरत के उस व्यापारी से बातचीत करते वक्त मेरे अंदर का आधुनिक विज्ञान हिलोरे मार रहा था, बहुत कुछ यकीन करने लायक था और बहुत कुछ मानो ऐसा कि आखिर भरोसा किया भी जाए तो भरोसे की वजह क्या है? जानु भाई भयालु भाई ठाकरे यानी जानु दादा करीब 15 वर्ष की उम्र से ही अपने हर्बल ज्ञान से आम लोगों का इलाज करते आ रहे थे।

सर्दी, खांसी, बुखार जैसे सामान्य रोग तो काका की एक पुड़िया से छू-मंतर हो जाते लेकिन काका की तज्ञता महिलाओं की समस्याओं, संतानविहीनता, गले का कैंसर और पेट के कई तरह के विकारों को दूर करने में थी। नाड़ी देखकर पहले रोगी की आंतरिक हालत का जायजा लिया जाता, फिर कुछ जड़ी-बूटियों को कागज में लपेटकर रोगियों को दिया जाता और करीब 15 दिन या एक माह बाद पुन: रोगी को बुलाया जाता और इतने में ही रोगी चंगा होना शुरू हो जाता।

उस एक ही दिन में कम से कम पांच ऐसे रोगियों से मैंने मुलाकात की जो शायद कभी मौत के मुंह में खुद को देख रहे थे। मेरे अंदर बसा आधुनिक विज्ञान का भूत इस जानकार को और भी ज्यादा टटोलना चाहता था। तब से लेकर 2014 तक जानु दादा के ज्ञान को समेटने का काम करने लगा, नई-नई जानकारियों और उनसे जुड़े तथ्यों को जानु दादा से सुना, वो सब कुछ सुना और समझा जो मुझे पीएचडी और पोस्ट डॉक्टरेट की डिग्री नहीं सीखा पाई। तब से लेकर अगले 10 वर्षों तक दादा के ज्ञान को संकलित किया, सीखने की कोशिश भी की और पचासों बार हर्बल मेडिसिन्स के चमत्कारों से रूबरू हुआ।

दुर्भाग्य से सन 2014 में दादा 95 वर्ष की आयु में स्वर्ग सिधार गए, वे अपने आप में एक एनसायक्लोपिडिया थे और अपने 10 वर्षों के सम्बन्ध और उनकी जानकारियों के एकत्रिकरण के बावजूद मैं यह मानता हूं कि काका की जानकारियों और ज्ञान भंडार का 10 फीसदी से भी कम हिस्सा मैं जान पाया हूं। अब उनके बेटे जड़ी-बूटियों से इलाज की परंपरा को निभाए हुए हैं। दादा के बताए हर्बल फार्मूलों पर कई नायाब शोध परिणाम भी मिले हैं। दादा ज्ञान के सागर थे, 1 जून को दादा का जन्मदिन होता है, दादा एक बार फिर याद आ गए।

(लेखक गाँव कनेक्शन के कंसल्टिंग एडिटर और हर्बल जानकार व वैज्ञानिक है।)

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