पिछले साल गणतंत्र दिवस के अवसर पर मोदी सरकार द्वारा दिए गए विज्ञापन में संविधान की प्रस्तावना यानी प्रिएम्बल में सेकुलर और सोशलिस्ट शब्दों को नहीं लिखा गया था। इस पर सरकार की बहुत आलोचना हुई और अन्त में सरकार ने सूचना विभाग को निर्देश दिया कि भविष्य में इन शब्दों को यथावत लिखा जाए। अब सवाल उठता है कि समाजवाद और सेकुलरवाद का मतलब क्या है और संविधान सभा ने इन शब्दों को क्यों नहीं जोड़ा था। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ये शब्द कितने प्रासंगिक रह गए हैं।
समाजवाद के लिए डॉ. राम मनोहर लोहिया विख्यात हैं जिन्होंने कहा था, ‘‘हे भारत माता हमें शिव का मस्तिष्क दो, कृष्ण का हृदय दो और राम का कर्म और वचन दो। महात्मा गांधी की आर्थिक सोच में ट्रस्टीशिप की कल्पना थी और वह कहते थे कोई काम करने चलो तो सबसे निरीह मनुष्य का ध्यान करो और सोचो कि मेरे काम से उसका क्या भला होगा। इस प्रकार देखें तो लोहिया के समाजवाद और गांधी के अन्त्योदय में अधिक अन्तर नहीं है। तो क्या संविधान में समाजवाद की परिभाषा लोहिया और गांधी के सोच पर आधारित होनी चाहिए अथवा हम कार्ल मार्क्स के विचारों से चिपके रहें।
सुभाष चन्द्र बोस एक समाजवादी थे परन्तु उनका रास्ता अहिंसा का नहीं था और दूसरी तरफ जवाहर लाल नेहरू ने कहा था, ‘‘सोशलिस्टिक पैटर्न ऑफ सोसाइटी यानी समाज की समाजवादी पद्धति।” नेहरू के समाजवाद में पूंजीवाद और साम्यवाद का मेल था जिसे मिक्स्ड इकोनॉमी अर्थात मिली-जुली अर्थ व्यवस्था कहा गया। इस व्यवस्था को जेबी कृपलानी, जय प्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन, आचार्य नरेन्द्र देव जैसे प्रख्यात समाजवादियों ने नहीं माना था।
इन्दिरा गांधी ने युवा तुर्क चन्द्रशेखर, मोहन धारिया, नाथम्मा, अमृत नहाटा और कम्युनिस्टों के प्रभाव में राजा महाराजाओं की प्रिवी पर्स समाप्त की, बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया और गरीबी हटाओ का नारा दिया। जब इन्दिरा गांधी से पूछा गया कि समाजवाद से आपका क्या मतलब है तो उनका कहना था, ‘‘आई हैव माइ ओन डेफिनीशन ऑफ सेाशलिज्म यानी समाजवाद की मेरी अपनी परिभाषा है।” कभी उनकी परिभाषा सामने नहीं आई परन्तु इन्दिरा गांधी ने 1976 में समाजवाद और सेकुलरवाद को संविधान की प्रस्तावना में जोड़ अवश्य दिया। चन्द्रशेखर जैसे लोगों को पता चल गया कि इन्दिरा गांधी का समाजवाद उनकी सोच नहीं है और वह जयप्रकाश नारायण के साथ मिलकर सम्पूर्ण क्रान्ति के आन्दोलन में शामिल हो गए। जब दुनिया में समाजवादी खेमा उजड़ सा गया है, भारत में भी नरसिंहा राव ने मनमोहन सिंह के सहयोग से एक नई शुरुआत कर दी थी जो पूंजीवाद की तरफ पहला कदम था। आज भी हम समाजवाद के विपरीत अर्थनीति पर चल रहे हैं। आज तो दुनिया में पूंजीवाद का एकमात्र रास्ता बचा है और समाजवाद पर उद्बोधन अप्रासंगिक है। भारतीय सोच ‘‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामय:” एक बेहतर कल्पना है। हमारे नेताओं ने अपने घर में समाजवाद न खोज कर यूरोप और चीन में उसे ढूंढते रहे। वहां तो समाजवाद के तम्बू कनात उखड़ चुके हैं, देखना है भारत में यह संविधान की कब तक शोभा बढ़ाता है।
इसी प्रकार सेकुलरवाद के विषय में भी स्पष्टता नहीं है। सेकुलरिज्म का अर्थ है वह विचार जो किसी प्रकार के धर्म या पूजापद्धति को नकारता हो लेकिन भारत में यह परिभाषा मान्य नहीं हो सकती, शायद इसीलिए डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में डॉ. भीमराव अम्बेडकर द्वारा बनाए गए संविधान की प्रस्तावना (प्रिएम्बल) में सेकुलरवाद और समाजवाद को स्थान नहीं मिला था। बाद में सेकुलरवाद को तरह-तरह से परिभाषित किया गया जैसे सर्वधर्म समभाव और सर्वपंथ समभाव आदि लेकिन देश के सब लोग यह परिभाषा स्वीकार नहीं करेंगे। मुसलमानों को यह स्वीकार नहीं होगा कि बुतपरस्ती उतनी ही पाक है जितना हज़रत मुहम्मद साहब का बताया हुआ रास्ता। हमारे देश में सर्वधर्म समभाव न सही परन्तु सर्वधर्म सम्मान भाव तो हमेशा से ही रहा है। यहां शक, हूंड़, यवन, ईसाई धर्मावलम्बी, इस्लाम के मानने वाले, यहूदी, पारसी, जैन और बौद्ध सभी धर्मों को बराबर का सम्मान मिला है लेकिन जब आप संविधान में सर्वधर्म समभाव डाल देंगे तो सेकुलर का मतलब चाहे नास्तिक भाव हो अथवा सर्व धर्म समभाव, सब को स्वीकार नहीं हो सकता परन्तु संविधान तो सबको मानना होगा।
ऐसी परिस्थितियों में जब समाजवाद दुनिया में कहीं बचा नहीं और सेकुलरवाद सम्भव नहीं तो एक ही रास्ता बचता है 42 वें संविधान संशोधन को निष्प्रभावी करने के लिए एक और संशोधन लाया जाए। ध्यान रहे 42वें संशोधन के लिए उतना गहन चिन्तन भी नहीं हुआ था जितना संविधान सभा में हुआ था। यह संशोधन तब लाया गया था जब 1976 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने प्रजातंत्र को आपातकाल के नीचे कुचल रखा था। समाजवाद और सेकुलरवाद की प्रासंगिकता पर नए सिरे से विचार और चर्चा होनी चाहिए।
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