कैसे होगा भारत में जाति और धर्म से मुक्त चुनाव?

गाँव कनेक्शन | Jan 31, 2017, 13:05 IST
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प्रो. कविराज

उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में निर्वाचन आयोग द्वारा चुनावी तिथि जारी होने के बाद लगभग सभी राजनीतिक दल चुनाव में जाने के लिए अपने अपने एजेंडे और अपने-अपने मुद्दे की नयी पुरानी पोटलियों को बंद अलमारियों से झाड़ पोंछकर बाहर निकाल रहे हैं। दरअसल चुनाव में जाने के लिए प्रायः मोटी मोटा दो प्रकार के मुद्दे होते हैं, एक वो मुद्दे, जिसपर पहले चुनाव लड़ लिया गया होता है और दूसरा वो जो तत्कालिक होते हैं, जिसे जरूरत के मुताबिक या तो राजनीतिक दल उत्पन्न कर लेते हैं या कहीं से झटक लेते हैं या फिर उन्हें बैठे बिठाए मिल जाते हैं। जैसे विमुद्रीकरण का मुद्दा, जिसे बीजेपी लायी तो थी तथाकथित युगांतकारी परिवर्तन के लिए लेकिन विरोधी दलों ने इसे लपक लिया और बीजेपी को विमुद्रीकरण के पक्ष में एक के बाद बहाना बनाने के लिए मजबूर होना पड़ा।

लेकिन मैं यहां चुनाव के एक स्थायी मुद्दे पर विमर्श करना चाहता हूं। एक ऐसा मुद्दा जो चुनावी मुद्दा होना भी चाहिए या नहीं? और जिसका उपयोग राजनीतिक दल को करना चाहिए या नहीं? भारतीय राजनीति और समाज में यह मुद्दा स्थायी है, बड़ा है और कभी न खत्म होने वाला है, जिसे विभिन्न रूपों में राजनीतिक दलों द्वारा उपयोग भी किया जाता है, लेकिन कोई भी राजनीतिक दल इसे स्वीकार नहीं करता। असल में यह मुद्दा है, जाति का, सबसे बड़े भारतीय लोकतंत्र का खालिश भारतीय सामाजिक मुद्दा....।

अंग्रेजों ने जब भारत में आधुनिक काल की व्यवस्था की तब सरकार एक लिखित विधि-विधान से चलनी शुरू हुई लेकिन उनके पीड़ादायी शासन से मुक्ति के लिए और अपनी बात सरकार को समझाने के लिए भारतीयों द्वारा अपने प्रतिनिधित्व की मांग की जाने लगी। अंग्रेजों ने जाति और धर्म के नाम पर इस मांग को स्वीकार करके जाति और धर्म के नाम पर की जाने वाली राजनीति को शुरू करने का काम किया। अंग्रेजों ने उपयोगिता और योग्यता के अनुसार ब्राह्मण और मुस्लिम वर्ग के साथ- साथ थोड़ा ही सही, दलितों को भी सत्ता में प्रतिनिधित्व दिया। 1950 के बाद अपना संविधान और अपनी आज़ादी आते ही सभी की उमंगों को पंख लग गए और सभी देश निर्माण में हिस्सेदारी करने लगे और जो वंचित थे, वो मांगने लगे...।

उस समय कांग्रेस ही एक मात्र अखिल भारतीय दल की स्वीकृति के साथ उपस्थित थी, जिसे भारतीयों ने सर्वमत से स्वीकार भी कर लिया था। बावजूद इसके, कांग्रेस ने सत्ता के लिए चुनाव में वोट बैंक के रूप में जाति को आधार बनाया। अगर वो चाहती तो एक स्वस्थ्य परम्परा की शुरुआत कर सकती थी, लेकिन उसने मतदाता के रूप में दलितों, मुस्लिमों और ब्राह्मणों के समूह को व शासक के रूप में केवल ब्राह्मणों को चुना। शेष दोनों घटकों को केवल नाम मात्र का प्रतिनिधित्व मिलता रहा जिसमें दलित तो सबसे नीचे था। उस समय जो भी राजनीतिक दल भारत में थे ज्यादातर जाति, धर्म या वर्ग के नाम पर ही संगठित थे। आज के आधुनिक भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए निर्वाचन आयोग है, जिसको चुनाव को नियंत्रित करने के लिए कुछ व्यवहारिक और कुछ अव्यवहारिक अधिकार दिए गए हैं। अव्यवहारिक इसलिए कि उसे वह स्वतंत्र रूप से निष्पादित नहीं कर सकता। उच्चतम न्यायालय द्वारा अभी एक निर्णय दिया गया है कि धर्म, जाति और भाषा के आधार पर चुनाव लड़ना और वोट मांगना असंवैधानिक है।

यदि मान लेते हैं कि जाति, भाषा और धर्म के नाम पर चुनाव लड़ने वालों, वोट मांगने वाले नेताओं और राजनीतिक दलों के ऊपर कार्यवाही हो सकती है, तो उसके लिए एक संस्था अलग से बनानी पड़ेगी जो निर्वाचन में इस्तेमाल की जाने वाली प्रतिबंधित व सांप्रदायिक शब्दों का उपयोग करने वाले राजनीतिक दलों और नेताओं को नियंत्रित करने के लिए अधिकार से परिपूर्ण व समृद्ध हो क्योंकि राजनेता ‘तू डाल-डाल, मैं पात-पात’ की नज़ीर पेश करेंगे और ऐसे-ऐसे शब्दजाल का प्रयोग करेंगे कि उनकी कानून के अंतर्गत आख्या और व्याख्या करना कठिन हो जाएगा।

वैसे तो खुलेआम और स्पष्ट रूप से जाति किसी भी राजनीतिक दल के चुनावी एजेंडा और घोषणा पत्र में शामिल नहीं होती है और न ही कोई राजनीतिक दल भारतीय समाज से जाति को खत्म करने का कोई संकल्प ही करता है, कम से कम अब तो नहीं ही करता है। मान लीजिए कि कोई राजनीतिक दल अगर किसी जाति समूह का नाम लेकर अपने चुनावी घोषणा पत्र में ये लिखे कि सरकार बनने के बाद उसकी पार्टी अमुक जातियों की आर्थिक, शैक्षिक एवं सांस्कृतिक स्थिति में सुधार करेगी, तो क्या केवल इस आधार पर कि उस पार्टी ने जाति शब्द का इस्तेमाल किया है, को दण्डित किया जाएगा या उसकी सरकार को अवैध करार दिया जाएगा? दरअसल भारत में जातियों के बहुत सारे समुदाय हैं।

चुनाव में राजनीतिक दल वोट पाने के लिए समुदायों को प्रभावित करने का प्रयास करते रहते हैं, जैसे व्यवसायिक समुदाय, कृषक समुदाय, नौकरी पेशा समुदाय इत्यादि लेकिन ये अलग-अलग होते हुए भी एक बड़े समुदाय; ‘जाति’ से अवश्य सम्बंधित रहते हैं। चूंकि जाति समुदाय अन्य समुदायों की तुलना में सबसे पुराना, स्थायी, बृहद और कभी भी ख़त्म न होने वाले समुदाय के रूप में जाना जाता है इसलिए इसका उपयोग राजनीतिक दल अपने हित में करते रहते हैं। इसके दो प्रमुख कारण हैं, एक तो जैसा कि प्रसिद्ध राजनीतिविज्ञानी रजनी कोठारी ने कहा है कि जातियों का राजनीतिकरण कर दिया गया है क्योंकि यह एक संस्था है और दूसरा आज के समय में सदियों से दमित जातियों को, पिछड़ी जातियों को, शोषित जातियों को लोकतांत्रिक व्यवस्था मिलने के कारण अपने अतीत से निकलने का मौका मिला है, तो इसलिए भी उन लोगों के द्वारा अपने उत्थान के लिए जाति का प्रयोग धड़ल्ले से किया जाता रहा है।

जाति का चुनावी उपयोग रोकने में एक जटिलता और दिखती है कि जाति का जब भी चुनावी लाभ लिया गया है, बड़े पैमाने पर वर्गों का जैसे दलित वर्ग, पिछड़ा वर्ग, सवर्ण, वंचित वर्ग, नीच जातियां (जाति समूह के रूप में) का उल्लेख किया जाता है इसलिए इसे दूर करने के लिए कानूनी व्यवस्था को और स्पष्ट और पारदर्शी बनाए जाने की जरूरत है, जिससे उच्चतम न्यायलय की मंशा को फलीभूत किया जा सके।

(लेखक लखनऊ यूनिवर्सिटी में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)

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