छींद भारत के भू भागों में नदियों और नालों के किनारे पाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण पेड़ है, जिसके कारण छिंदवाड़ा नगर की एक विशेष पहचान है। इसे जंगली खजूर, शुगर डेट पाम, टोडी डेट पाम, सिल्वर डेट पाम, इंडियन डेट पाम आदि नामों से भी जाना जाता है। वानस्पतिक भाषा में इसका नाम फोनिक्स सिल्वेस्ट्रिस है जो एरेकेसी परिवार का सदस्य है।
यह पेड़ उपजाऊ से लेकर बंजर मैदानी भूमि में, सामान्य से लेकर अत्यंत सूखे मैदानी भागों में, सभी तरह की मिट्टी में आसानी उग जाता है। इसके धारीदार तने और उस पर पत्तियों का ताज धारण करने के बाद यह किसी आकर्षण से कम प्रतीत नहीं होता है।
छिंदवाड़ा का राजा छींद
कई नगरों के या महानगरों के नाम उनके पूर्व शासकों या शहंशाह के नाम पर रखे गए हैं जैसे होशंगाबाद, ठीक उसी तरह छिंदवाड़ा का यह नाम भी छींद के नाम पर रखा गया है। पूर्व में यह छींद + बाड़ा अर्थात छींद का बगीचा था, जो धीरे-धीरे छिंदवाड़ा के रूप में बदल गया। अब एक और कमाल की बात देखिए इस पर आक्रमण करने के बारे में कोई कीट या रोगकारक सपने में भी नहीं सोच सकता क्योंकि यह भयंकर नुकीली और कटीली पत्तियों से अपनी सुरक्षा करता है, तो हुई ना यह शहंशाह वाली बात।
जीवटता का प्रतीक छींद
छींद न सिर्फ हमारे क्षेत्र की पहचान है, बल्कि जीवटता का संदेश भी देता है। यह कम से कम पोषक तत्व, जल और देखरेख में भी अपने अस्तित्व को बचाए रखना जानता है। दुश्मनों से निपटने के लिए इसके नुकीले पत्ते इसके लिए भाले का कार्य करते हैं। लंबे अरसे तक बारिश ना होने पर भी यह चारों ओर अपनी हरियाली और मीठे फलों का स्वाद बिखेरता रहता है। वास्तव में यह हमें कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी काम को करते जाने का और आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है।
छींद और स्वास्थ्य
छींद के पेड़ पर चार-पांच वर्ष की उम्र से ही हजारों स्वादिष्ट फल लगने लगते हैं जो देखने में खजूर की तरह ही होते हैं, किंतु इनका आकार थोड़ा छोटा होता है और ये अपेक्षाकृत कम मांसल होते हैं, लेकिन स्वाद में यह जरा भी कमतर नहीं है। जहां एक और इसके फल मीठे और स्वादिष्ट होते हैं वही इसके सेवन से बुखार, कमजोरी, चक्कर आना, गला सूखना, उल्टी आना, जी मचलाना आदि समस्याओं से लाभ मिलता है। इसमें बहुत अधिक मात्रा में कार्बोहाइड्रेट, फिनोल, एमिनो एसिड, फ्लेवोनॉयड, टेनिन, अल्कलॉइड्स, टरपिनोइडस, फाइबर, विटामिन तथा कई तरह के मिनरल्स पाए जाते हैं।
इन सबके अलावा इसका बीज ग्रामीण क्षेत्रों में जायफल, बादाम, हरड एवं हल्दी के साथ मिलाकर जन्म घुट्टी की दिया जाता है। जिससे बच्चों का पाचन तंत्र दुरुस्त होता है।
गन्ने की शक्कर से सेहतमंद होते हैं छींदी की चीनी
कुछ स्थानों पर इसके तनों में छेद करके इससे एक स्वादिष्ट पेय प्राप्त किया जाता है, जो काफी कुछ ताड़ी से मिलता-जुलता होता है जिसे छींदी कहते हैं। अन्य स्थानों पर इस मीठे रस से गुड़ भी तैयार किया जाता है, जिसे पाम जगरी के नाम से जाना जाता है। जो सामान्य गन्ने से प्राप्त शक्कर से कहीं अधिक सेहतमंद होता है। ग्रामीण क्षेत्रों में जब कोई छींद का पेड़ आंधी और तूफान से टूट कर गिर जाता है, तब ग्रामीण चरवाहे इसके शीर्ष भाग को काटकर तने का कोमल हिस्सा निकालते हैं, जो देखने में तथा स्वाद में पेठे से मिलता-जुलता होता है, इसे खाने का एक अलग ही मजा होता है। एक अन्य नजरिए से देखें तो इसके कोमल जाइलम में स्टार्च का भंडार होता है, जिससे साइकस की तरह ही साबूदाना निर्माण के लिए प्रयोग किया जा सकता है, लेकिन यह तभी संभव है जबकि किसान इसे खेती के साथ जोड़कर अपना ले।
छींद और रोजगार
छींद ग्रामीण भारत के लिए अर्थव्यवस्था का एक प्रमुख साधन भी है, इसकी पत्तियों से निर्मित झाड़ू मजबूती, कार्यक्षमता और टिकाऊपन के मामले में ग्रामीण भारत की पहली पसंद है। वहीं इसके फलों की मजबूत डंठलों का झुंड खेत खलियान की सफाई के लिए झाड़ू की तरह काम करता है।
ग्रामीण भारत की बात हो और बैल गाड़ियों को जिकर ना हो तो कुछ अधूरा सा लगता है। इसकी लंबी लंबी संयुक्त पत्तियों से बड़े-बड़े टाट तैयार किये जाते है, जो बैलगाड़ी को चारों ओर से घेरने के काम आते हैं ग्रामीण झोपड़ी और जानवरों के अस्तबल कोठे (पशुओं के रहने की जगह) आदि इन्हीं से बनाते हैं। यह गर्मियों में ठंडक प्रदान करते हैं और सर्दियों में गर्माहट इसीलिए इनका महत्व अधिक बढ़ जाता है।
छींद पक्षियों का पनाहगार एवं आश्रय
बहुत कम लोग जानते हैं कि छींद की कटीली पत्तियों से गिरी संरचना पक्षियों के लिए सर्वोत्तम आसरा होती है। बया पक्षी तो जैसे घोसले के लिए इसी वृक्ष की तलाश में रहता है, इसका मुख्य कारण यह है कि इसकी कटीली और नुकीली पत्तियां किसी भी शिकारी को इन घोसलों के आसपास भी भटकने नहीं देती है।
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किसान मित्र छींद
यह बात सुनने मे बड़ी अजीब सी लगती है कि यह पेड़ किसान मित्र हो सकता है, क्योंकि किसी लेखक या कवि ने आज तक इसका जिक्र तक नहीं किया है, तो चलिए मैं बताता हूं- एक तो यह पक्षियों का आश्रय स्थल है और सभी पक्षी कीटों को खाकर फसलों की रक्षा करते हैं। इसके अलावा यह खेत के आसपास या मेडों पर लगा हो तो बाढ़ के रूप में सुरक्षा का कार्य करता है। इससे खेत पर कोई नुकसान भी नहीं होता है, क्योंकि एक सपाट और अधिक उंचाई होने के कारण वो खेत की हवा-रोशनी दोनों नहीं रोकते हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो, इसकी विशेष प्रकार की ग्रंथिल जड़ों में नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले सूक्ष्मजीव पाए जाते हैं। पौधे की मृत्यु (टूट जाने या खत्म होने पर) भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाते हैं।
सहोपकारी छींद
इसकी जड़े कुछ सूक्ष्मजीवों के साथ परोपकारी संबंध स्थापित करती है, जिसमें दो अलग-अलग जीव एक दूसरे की मदद करके एक साथ जीवन यापन करते हैं, जिसका फायदा दोनों को ही होता है। इसकी जड़ों के साथ पाया जाने वाला माइकोरायजा कवक इसी का एक उदाहरण है, जो छींद की जड़ों को अतिरिक्त जल एवं पोषक पदार्थ अवशोषित करके देती है, बदले में छींद की जड़ें इन्हें भोजन उपलब्ध कराती है। इसके अलावा साइकस के समान कोरोलाइड जड़ों में बायो-फर्टिलाईर /जैव-उर्वरक की उपस्थिति से इनकार नहीं किया जा सकता है।
बचपन की यादें और छींद
नई पीढ़ी को तो शायद एहसास भी नहीं होगा कि पहले कोई पेड़ बच्चों के लिए खिलौने उगाने का कार्य करता रहा होगा। जी हां हम बात कर रहे हैं इसी छींद की, जिसकी संयुक्त पत्तियों के डंठल जिन्हें गांव में फरों के नाम से जाना जाता है, किसी धकेलने वाली बाइसिकल की तरह मुख्य खिलौना हुआ करती थी। उस वक्त जिस बालक के पास छींद के फरे की उपलब्धता थी उसका रुतबा ठीक वैसा ही था जैसा आजकल के समय में अनफील्ड बुलेट धारी बालक का होता है।
छींद और आदिवासी तथा ग्रामीण परंपराएं
छिंदवाड़ा सहित प्रदेश के अन्य स्थानों में शादी- विवाह या अन्य समारोहों में पारंपरिक नृत्य के समय, पोशाकों एवं साज-सज्जा में छींद के मुकुट को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। इसी तरह छींद की पत्तियों से बनी अंगूठी को इन समारोह में पहनना पवित्रता की निशानी माना जाता है। आधुनिक समाज भी छींद के उपयोग से अछूता नहीं है, दीपावली पूजा में छींद की पत्तियों से बनी झाडू की पूजा का विशेष महत्व है।
पर्यावरण रक्षक की भूमिका में छींद
छींद कम वर्षा जल की उपलब्धता वाला एक पेड़ है, इसे पर्यावरण दूत कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी, क्योंकि नदी नालों व किसानों की मेड पर उगकर यह मिट्टी के कटाव को रोकता है। पशु पक्षियों की कई प्रजातियों को यह पनाह देता है। मिट्टी को उपजाऊ बनाने के साथ-साथ सूखे से सूखे स्थानों पर हरियाली की वजह बनता है। और सबसे महत्वपूर्ण बात सतत रूप से प्राणवायु ऑक्सीजन उपलब्ध कराता रहता है। ग्रामीणों का ऐसा मानना है कि इस के पेड़ की जड़े भूमिगत जल की दिशा में वृद्धि करती है, जिस स्थान पर छींद की आबादी अधिक होती है, किसान इसके आसपास कुए का निर्माण करवाते हैं। यानि ग्राउंड वाटर रिचॉर्ज में भी ये पेड़ बहुत सहायक हैं।
लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि इतनी सारी खूबियों को समेटे ये पेड़ किसी पुराने महल के खंडहर की तरह अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है, और हमारी आंखों के सामने छिंदवाड़ा की पहचान रूपी यह परोपकारी पेड़ धीरे-धीरे समाप्त होता चला जा रहा है, लेकिन बदलती जलवायु, गहराते भूमिगत जल के संकट को देखते हुए जरुरत है ऐसे पेड़ का संरक्षण किया जाए।
लेखक- डॉ. विकास शर्मा, शासकीय महाविद्यालय चौरई, जिला छिन्दवाड़ा (मध्य प्रदेश) में वनस्पति शास्त्र विभाग में सहायक प्राध्यापक हैं। ये उनके निजी विचार हैं।