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क्यों जरूरी है एमएसपी पर फसलों की खरीद की गारंटी?

मौजूदा तीन कृषि कानूनो के बाद अगर एमएसपी की गारंटी बिना किसानों को बाजार में खड़ा कर दिया गया तो बड़े कारोबारी किसानों और उपभोक्ताओं की क्या दशा करेंगे, यह बात कम से कम किसान समझ गया है। इसी नाते किसान संगठन एमएसपी पर खरीद की गारंटी चाहते हैं।
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मौजूदा किसान आंदोलन की तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने और एमएसपी पर खरीद की गारंटी की मांग देश भर में चर्चा में है। किसानों की एमएसपी की मांग को राष्ट्रव्यापी समर्थन मिलते देख भारत सरकार के कई मंत्री एक स्वर में बोल रहे हैं। उनका कहना है कि एमएसपी पर खरीद जारी रहेगी, यह बात सरकार किसान संगठनों को लिख कर देने को तैयार है।

एमएसपी पर बंपर खरीद का दावा भी किया जा रहा है। लेकिन इसके बावजूद किसान चाहते हैं कि सरकार ऐसा कानून बनाए जिससे कोई भी उनके उत्पाद को एमएसपी से नीचे न खरीद सके। उसके लिए दंड की व्यवस्था हो। अभी एमएसपी पर खरीद दो दर्जन फसलों तक सीमित है। लेकिन गेहूं औऱ धान को छोड़ दें तो अधिकतर फसलों की खरीद दयनीय दशा में है।

ऐसा नहीं है कि मौजूदा किसान आंदोंलन में ही न्यूनतम समर्थन मूल्य या एमएसपी पर खरीद की चर्चा चल रही है। बीती एक सदी से किसान आंदोलनों के केंद्र में कृषि मूल्य नीति या वाजिब दाम शामिल रहा है। किसान अरसे से मांग करते आ रहे हैं कि कृषि उत्पादों के मूल्य 1967 को आधार वर्ष तय करके घोषित किए जायें। अस्सी के दशक के बाद तो कोई ऐसा किसान आंदोलन नहीं हुआ जिसमें फसलों का वाजिब दाम न शामिल रहा हो। खुद संसद, संसदीय समितियों और विधान सभाओं में इस पर व्यापक चर्चाएं हुई हैं। एक दौर में जबकि एमएसपी की व्यवस्था की गयी थी वह ठीक ठाक थी। लेकिन उत्पादन बढ़ने के साथ अन्य इलाको के किसानों की भी इसके दायरे में आने की चाहत बढ़ी है। किसान संगठन एमएसपी के पैमाने और सरकारी खरीद दोनों से असंतुष्ट रहे हैं। वहीं सरकार भी जानती है कि किसानों को वाजिब दाम मिलने लगे तो उनकी अधिकतर समस्याओं का हल निकल जाएगा। उनका उत्पाद सरकार खरीदे या निजी क्षेत्र लेकिन सही दाम मिलेगा तो आय बेहतर होगी, जिसका उनके जीवन स्तर पर असर पड़ेगा और देश की अर्थव्यवस्था पर भी।

भारत के किसानों ने कठिन चुनौतियों और अपनी मेहनत से कम उत्पादकता के बावजूद भारत को चीन के बाद सबसे बड़ा फल औऱ सब्जी उत्पादक बना दिया है। चीन और अमेरिका के बाद सबसे बड़ा खाद्यान्न उत्पादक देश भारत ही है। पांच दशको में हमारा गेहूं उत्पादन 9 गुना और धान उत्पादन तीन गुणा से ज्यादा बढ़ा है। लेकिन खेती की लागत भी इसी अनुपात में लगातार बढी है, लेकिन उनके उत्पादों के दाम नहीं। कारखाने वाले अधिक उत्पादन करके खुश होती है, जबकि किसान चिंतित क्योंकि जैसे ही उसकी फसल कटने वाली होती है, दाम गिरने लगते हैं।

मौजूदा तीन कृषि कानूनो के बाद अगर एमएसपी की गारंटी बिना किसानों को बाजार में खड़ा कर दिया गया तो बड़े कारोबारी किसानों और उपभोक्ताओं की क्या दशा करेंगे, यह बात कमसे कम किसान समझ गया है। इसी नाते किसान संगठन एमएसपी पर खरीद की गारंटी चाहते हैं। किसान जिन वस्तुओं को खरीदता है वह अगर एमआरपी के दायरे में है और सफलता से देश की बाजार में स्वीकार्य है तो एमएसपी के लिए कोई ठोस व्यवस्था क्यों नहीं हो सकती है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तीनों कृषि कानूनों को ऐतिहासिक और भारतीय कृषि के कायाकल्प का मंत्र मान रहे हैं। ऐसा दावा सरकारी स्तर पर हो रहा है कि पीएम-किसान सम्मान निधि जैसी योजना जो सरकार शुरू कर सकती है वह किसानों का अहित कैसे कर सकती है। खैर भूमि जोतों के आधार पर साढे 14 करोड़ किसानों को इसके दायरे में लाने की बात कही गयी थी। लेकिन अब तक 10 करोड़ किसानों के खाते में सरकार ने एक लाख करोड़ रूपये पहुंचाया है। अगर आंकड़ों के हिसाब से एमएसपी पर सरकारी खरीद को देखेंगे तो पता चलेगा कि तस्वीर बेहद निराशाजनक दिखती है। रबी और खरीफ में जिस बंपर खरीद का दावा सरकार कर रही है उसका आकलन साढे 14 करोड़ किसानों की भूजोतों के हिसाब से अगर किया जाये तो नजर आएगा कि यह ऊंट के मुंह में जीरा जैसा है। सरकारी एकाधिकार के दौर में भी अगर एमएसपी पर खरीद चंद राज्यों और दो फसलों तक सीमित है तो फिर निजी क्षेत्र के शामिल होने के बाद बिना गारंटी के किसान कहां खड़ा होगा?

किसानों का आंदोलन दिल्ली पहुंचने के पहले संसद के मानसून सत्र में भी इस विषय पर व्यापक चर्चा हुई थी। कृषि मंत्री नरेन्‍द्र सिंह तोमर ने तब दावा किया था कि अब किसानों को उपज बेचने के प्रतिबंधों से मुक्ति के साथ अधिक विकल्प मिलेगा। कृषि मंडियों के बाहर एमएसपी से ऊंचे दामों पर खरीद होगी। सांसदों ने मांग की थी कि इसकी गारंटी विधेयक में दी जाये कि जो कारोबारी मंडियों से बाहर एमएसपी से कम दाम पर खरीदेगा वह दंडित होगा। लेकिन सरकार ने इस सवाल को नजरंदाज किया। तीनों विधेयको को संसदीय समितियों को भेजने की मांग भी सरकार ने नहीं मांगी। इससे किसानों के मन में संदेह का और बीजारोपण हुआ।

खैर तीनों कानूनों के लागू होने के बाद सरकार खरीफ 2020-21 में रिकार्ड खरीद का दावा कर रही है। किसान आंदोलन का यह असर है कि मौजूदा खरीद के आंकड़े रोज सरकार जारी कर रही है। एमएसपी पर धान 23 राज्यों में और गेहूं 10 राज्यों में खरीदा जाता है। 11 दिसंबर 2020 तक सरकार ने 372.41 लाख टन धान खरीदी की जो पिछले साल इसी अवधि में 308.57 लाख टन थी। पंजाब में सबसे अधिक 202.77 लाख टन यानि कुल खरीद में 54.45 फीसदी का योगदान दिया। अब तक देश भर में धान खरीदी से 40.53 लाख किसान लाभान्वित हुए और उनको अपने धान के बदले 70311.78 करोड़ रुपये मिले। सरकार पहले ही घोषणा कर चुकी थी कि एमएसपी पर 156 लाख से अधिक किसानों से 738 लाख टन धान की खरीदी होगी और इस पर 1.40 लाख करोड़ रुपए व्यय होंगे। पिछले साल 627 लाख टन धान खरीदी हुई थी।

लेकिन इस दावे के साथ यह हकीकत भी है कि उत्तर प्रदेश और बिहार से लेकर पूर्वी राज्यों में निराशाजनक तस्वीर रही जहां के लिए 2016 में निजी कारोबारियों को खरीद में शामिल करने की रणनीति सरकार ने बनायी थी। उत्तर प्रदेश में हजारों किसानों ने एमएसपी से नीचे अपना धान बेचा। पंजाब में सबसे अधिक खरीद की वजह व्यवस्थित तैयारी और मंडियां भी हैं। लेकिन इसी साल देश मे पंजाब से भी अधिक और 129.42 लाख टन गेहूं मध्य प्रदेश ने खरीदा, जबकि उत्तर प्रदेश केवल 35.77 लाख टन खरीदी के साथ चौथे नंबर पर रहा।

अगर धान और गेहूं की खरीद की यह दशा है तो उन फसलों को सहज समझा जा सकता है जो एमएसपी से संरक्षित नहीं है। हाल में हरियाणा और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री अपने राज्यों में अनाज बिक्री के लिए आने वाले दूसरे राज्यों के किसानों को रोकने और दंडित करने की बात कर सुर्खियों में आए। अगर किसान अपनी मर्जी का मालिक है तो ऐसे बंधन क्यों। इसी साल खरीफ में मूल्य समर्थन योजना के तहत 48.11 लाख टन दलहन और तिलहन की खरीद को भारत सरकार ने मंजूरी दी। लेकिन 11 दिसंबर 2020 तक 829.57 करोड़ रुपये की एमएसपी पर मूंग, उड़द, मूंगफली और सोयाबीन की 1.54 लाख टन खरीदा गया जिससे 87,024 किसान लाभान्वित हुए। दलहन और तिलहन खरीद को बढ़ावा देने के लिए 2018 में प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण अभियान के तहत खास तवज्जो दी गयी। लेकिन इसके दिशानिर्देशों में उत्पादित 75 फीसदी फसल खरीद के दायरे से बाहर कर दी गयी।

2020-21 में राजस्थान में कुल 22.07 चना की खरीद हुई जबकि उपचुनावों के नाते मध्य प्रदेश में 27 फीसदी तक चना खरीदी हुई। मूंग खरीद न होने के कारण राजस्थान के किसानों को करीब 98 करोड़ का घाटा उठाना पड़ा। इसे लेकर किसानों ने आंदोलन भी किया और किसान महापंचायत के अध्यक्ष रामपाल जाट ने केंद्र सरकार को पत्र लिख कर गुहार भी लगायी लेकिन हालत नहीं सुधरी।

एमएसपी पर खरीद में कई राज्यों में दिक्कतें हैं। इसी साल के आरंभ में आंध्र प्रदेश में धान किसानों की समस्याओं को लेकर उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडु को कृषि मंत्री और खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्री से हस्तक्षेप करना पड़ा था। बाद में 2 मार्च 2020 को खाद्य मंत्रालय और एफसीआई के अधिकारियों ने उपराष्ट्रपति से मुलाकात कर धान किसानों से समय पर खरीदारी न होने और समय पर भुगतान के मसले पर सफाई दी और समाधान के लिए जल्‍द से जल्‍द कार्रवाई करने औऱ राज्य सरकार को बकाया राशि का तुरन्‍त भुगतान करने की बात कही।

कोरोना संकट में खाद्य सुरक्षा के हित में किसानों ने खरीफ बुवाई का क्षेत्र 316 लाख हेक्टेयर तक पहुंचा दिया जो पिछले पांच सालों के दौरान औसतन 187 लाख हेक्टेयर था। लेकिन खरीफ फसलों की एमएसपी में आशाजनक बढोत्तरी नहीं की गयी। भारतीय किसान यूनियन ने एमएसपी घोषणा के साथ ही यह कहते हुए विरोध जताया था कि पिछले पांच वर्षों की यह सबसे कम मूल्य वृद्धि रही। धान का समर्थन मूल्य 2016-17 में 4.3 फीसदी, 2017-18 में 5.4 फीसदी, 2018-19 में 12.9 फीसदी और 2019-20 में 3.71 फीसदी बढ़ा था जबकि 2020-21 में सबसे कम 2.92 फीसदी बढ़ा। उसी दौरान भाकियू ने मांग की थी कि एमएसपी पर खऱीद के लिए कानून बनाया जाये।

राज्य सभा में 19 जुलाई, 2019 को गैर-सरकारी सदस्यों के संकल्प के तहत भाजपा किसान मोरचा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष विजय पाल सिंह तोमर ने किसानों की समस्याओं के समाधान के लिए संवैधानिक दर्जे वाले एक राष्ट्रीय किसान आयोग की स्थापना की मांग की थी जिसे व्यापक समर्थन मिला। उनका कहना था कि सरकार यह सुनिश्चित करे कि फसलों को सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत पर खरीदा या बेचा न जाए और इसका उल्लंघन करने पर दंडात्मक कार्रवाई की जाए।

कृषि मूल्य नीति को लेकर तमाम सवाल हैं और मंडियो को लेकर भी। किसानों को आम शिकायत है कि उनको वाजिब दाम नहीं मिलता। मोदी सरकार ने स्वामिनाथन आयोग की सिफारिश के तहत एमएसपी तय करने का वादा किया था। लेकिन इस वायदे को आधे अधूरे तरीके से मान कर आंकड़ों के जाल में उलझा दिया गया। तमाम कमजोरियों और विसंगतियों के बाद भी सरकारी मंडियां ही किसानों के हितों की बाजार की तुलना में अधिक रक्षा करती हैं। किसान पर बाजार कभी कभार ही उदार होता है। लेकिन अगर यह व्यवस्था अर्थहीन हो गयीं तो उत्तर भारत का किसान अपना गेहूं या चावल हैदराबाद या भुवनेश्वर के बाजार में नहीं बेचेगा। यह काम बड़ा कारोबारी ही करेगा। बेशक किसान के पास कई विकल्प होने चाहिए। लेकिन ये विकल्प छोटे किसानों के संदर्भ में सरकार द्वारा पहले से घोषित 22 हजार ग्रामीण मंडियों के विकास से ही निकल सकते हैं। अधिकतर छोटे किसान अपने गांव में ही छोटे व्यापारियों को उपज बेचते हैं, जिस पर कोई रोक नहीं है। रोक इस पर लगनी चाहिए कि सरकार जो एमएसपी घोषित करती है बाजार में इससे कम में कोई कारोबारी न खरीदे। औद्योगिक औऱ दूसरे उत्पादों को अधिकतम कीमत वसूलने का लाइसेंस देने वाली सरकार किसानों को न्यूनतम मूल्य की गारंटी क्यों नहीं दे सकती। 

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