डॉ. एसबी मिश्रा
आर्थिक दिशा जो देश की निर्धारित हो रही है उसमें ब्याज दरें घटेंगी और आसानी से किसानों और कारीगरों को कर्जा मिलेगा। बाजार में सब्जी के दाम गिरे हैं बाकी चीजों के भी गिरेंगे। मन्दी के माहौल में किसान अपना कर्जा नहीं चुका पाएगा क्योंकि लागत मूल्य तो घटेगा नहीं। उसे वैकल्पिक व्यवसाय खोजनी होगी। भारत कृषि प्रधान देश से उद्योग प्रधान बनने की दिशा में बढ़ेगा। लेकिन यदि यह बदलाव सुनियोजित न हुआ तो कठिनाइयां बहुत आएंगी। किसानों को कारीगरी और हुनर न सिखाए गए तो मौतें फांसी लगाकर नहीं होंगी, भुखमरी से होंगी। अर्थशास्त्रियों को उपाय सोचने हैं कि कहीं मन्दी का दौर न आ जाए।
एक बात सामने आई है कि अधिककांश किसानों पर कर्ज का बोझ था जिसे उन्होंने फसल बेचकर उतारना चाहा था। अब लागत घट नहीं रही है लेकिन फसल के दाम घट रहे हैं, कर्जा चुकाना और भी कठिन होगा। जैसे किसानों का कर्ज नया नहीं है, पुराने समय में कर्जा बांटने वाले पठान वेष में मोगलिया आते थे, बाद में गुमाश्ते लेकर लाला लोग आने लगे। ये 9 रुपए देते थे और 10 लिखते थे, एक लिखाई का काट कर। साल भर तक एक रुपया प्रति माह लौटाना होता था। भारी ब्याज के बावजूद किसान धीरे-धीरे चुकाता रहता था हमेशा कर्जदार रहता था। फिर भी आत्महत्या नहीं करता था।
करकट खेतों में पहुंचाकर हल बैल लेकर खेतों में चले जाना। तालाबों में वर्षा का साफ पानी संचित होता था जो जानवरों के पीने और खेतों की सिंचाई के काम आता था। अपने पीने का पानी कुएं से निकालते थे। तालाबों से हर साल मिट्टी निकालते रहने के कारण उनकी जलग्राही क्षमता कभी घटती नहीं थी। किसान के दुधारू जानवरों से उसके बच्चों को दूध, दही, घी मिलता था जिसे बेचने का रिवाज नहीं था।
साठ के दशक में सूखा और अकाल ने किसान को बेहाल कर दिया। किसान की मदद के लिए बौनी जाति की गेहूं की प्रजातियां मैक्सिको से और धान की प्रजातियां थाई लैंड जैसे देशों से लाई गईं। इन प्रजातियों को पानी की बहुत आवश्यकता होती थी जिसके लिए पूरी तरह भूजल पर निर्भरता हो गई। जमीन से निकाल कर खेतों में पानी भरा जाने लगा और गाँवों में कुओं की रस्सी लम्बी होने लगी। जहां हरित क्रान्ति ने जोर पकड़ा वहीं जल संकट भी बढ़ा।
सत्तर के दशक में गाँवों में बैंकों की शाखाएं खुलीं और खेती के लिए बैंकों से आसानी से कर्ज मिलने लगा। गाँवों का विद्युतीकरण आरम्भ हुआ और बिजली की आवश्यकता अधिकाधिक पड़ने लगी। अब किसान को अच्छे बीज, सिंचाई के लिए पानी, खाद और उर्वरकों के साथ बैंकों के माध्यम से ट्रैक्टर भी उपलब्ध होने लगे। यह संक्रमण अनियोजित और बेतरतीब हुआ। कर्जा बांटने का इन्तजाम तो हुआ लेकिन चुकाने का नहीं। परिणाम हुआ महंगाई का दौर जिसमें ब्याज की दरें शायद सर्वाधिक रहीं और किसान फिर भी सुखी नहीं हो सका, लेकिन काले धन के बल पर जमीनों के दाम बढ़ते गए।
अस्सी के दशक में आरम्भ हुआ कर्जा माफी, मुफ्त पानी और बिजली, लगान माफी, स्कूलों में फीस माफी का दौर। किसानों में उधार चुकाने की आदत समाप्त होने लगी। लड़कियों की शादी और मकान बनाने के लिए किसान खेती के नाम पर कर्जा लेने लगे कि माफ तो हो ही जाएगा। लेकिन जब माफ नहीं हुआ तो ब्याज बढ़ता गया और इस आशा में चुकाया भी नहीं कि माफ हो जाएगा। नब्बे के दशक में जब बैंकों ने वसूली पर जोर दिया तो किसानों की आत्महत्याएं होने लगीं। इनके लिए खेती नहीं देश की अर्थनीति जिम्मेदार है।
पिछला बदलाव था खेती की पुरानी पद्धति से नई पद्धति में जो अनियोजित होने के कारण दर्दनाक रहा। गाँव का सुखी जीवन चीखों से भर गया। अब उससे भी बड़ा बदलाव आएगा जब खेती से उद्योग में संक्रमण होगा। किसान की क्रयशक्ति न बढ़ी तो अशिक्षा, कुपोषण, बीमारियों से वह कैसे लड़ेगा। यह तभी सम्भव है जब औद्योगीकरण गाँवों का हो जहां आबादी अधिक है, समस्याएं भी अधिक हैं। अन्यथा इतिहास गवाह है कि क्रान्ति के बीज भूख में होते हैं, कहा गया है ‘वुभुक्षितः किम् न करोति पापम्’। देश को मन्दी से न गुजरना पड़े इसके लिए सतर्क रहना होगा सरकार को।
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