देश में हरित क्रांति के बाद से भारतीय कृषि के केंद्र में गेंहू और चावल ही रहे। लेकिन भारतीय भोजन में बहुत बड़ा हिस्सा दालों का भी है। फिर भी कृषि जगत में दालों की चर्चा उतनी नहीं होती। वह भी तब जब हमारा देश दाल उत्पादन में दुनिया में आज भी अव्वल नंबर पर है। दालों के कुल वैश्विक उत्पादन का 25 फीसद उत्पादन भारत में हो रहा है। हालांकि यह बात खुश होने की बिलकुल नहीं है। क्योंकि दुनिया में सबसे बड़े दाल उत्पादक होने के बावजूद हम अपनी जरूरत पूरी करने के लिए विदेशों से दाल खरीदने में भी अव्वल हैं।
आंकड़े बताते हैं कि दालों की खपत के मामले में भी हम दुनिया में सबसे आगे हैं. दुनिया में दाल की कुल खपत की 27 फीसद खपत भारत में हो रही है। पोषण के लिए सबसे ज्यादा जरूरी प्रोटीन देने वाली दालों के मामले में इतने संपन्न होने के बावजूद देश में कुपोषण की हालत भी दिल दहला देने वाली है।
डब्ल्यूएचओ के मुताबिक प्रति दिन प्रति व्यक्ति को कम से कम 80 ग्राम दाल मिलनी चाहिए। भारत में इस समय यह आंकड़ा सिर्फ 55 ग्राम प्रति व्यक्ति है। याद रहे यह औसत है। यानी आर्थिक तौर पर निचले तबके को दालों की उपलब्धता का आंकड़ा दुखी कर सकता है। बहरहाल इन सब तथ्यों के मद्देनजर देश में दालों की पैदावार, इसकी खपत और सरकारी- गैर सरकारी खरीद फरोख्त गौर करने लायक है।
इस समय भारत में सालाना सवा-दो से ढाई करोड़ टन दालों का उत्पादन हो रहा है। इसमें मुख्य हिस्सा यानी 40 फीसद हिस्सा चने का है, तूर और अरहर करीब 15 से 20 फीसद, उड़द और मूंग 8 से 10 फीसद है। बाकी दूसरी दालें अलग अलग मात्रा में उगाईं जा रही हैं और अगर देश के कुल खाद्य उत्पादन में दालों की हिस्सेदारी देखें तो यह सिर्फ 8 फीसद बैठती है। इसीलिए दालों का हमारा कुल उत्पादन अपनी जरूरत के लिहाज से पूरा नहीं पड़ता। और इसीलिए हर साल हमें बड़ी मात्रा में दालों का आयात करना पड़ता है। क्या यह एक आश्चर्य नहीं है कि हम अपने कृषि प्रधान देश में दालें विदेश से खरीदते हैं।
कब शुरू हुई दालों की किल्लत
यह स्थिति मुख्य रूप से हरित क्रांति के बाद से शुरू हुई. क्योंकि सरकार और किसानों का सारा जोर गेंहू और चावल उगाने पर लग गया था। कई रपटें बताती हैं कि भारत में दालों की स्थिति अस्सी के दशक से ज्यादा बिगडनी शुरू हुई। सन 1980-81 में देश अपनी जरुरत घरेलू उत्पादन से ही पूरी कर रहा था. तब चुनिंदा दालों के आयात का आंकड़ा सिर्फ पौने दो लाख टन था। लेकिन इधर हाल के वर्षों में विदेशों से दाल की खरीद़ बढ़कर 50 से 60 लाख टन पहुंच गई। आंकड़ों के मुताबिक दालों का आयात 10.07 फीसद की रफ्तार से बढ़ा जबकि हमारा उत्पादन सिर्फ 2.04 फीसद की रफ्तार से ही बढ़ पाया. इसीलिए 1980-81 में कुल दालों की मात्रा में आयातित दाल का हिस्सा जहां सिर्फ 1.6 फीसद था. वह बढ़ कर पिछले साल तक 26 फीसद तक पहुँच चुका था। कृषि प्रधान देश के लिए यह हालत क्या ज्यादा ही दुखद नहीं है?
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इस साल जरूर फर्क दिखने की आस किसान लगा रहा है। पांच साल बाद फिर आए चुनावी साल में देसी किसानों के हित की बात सुनाई दी। सुनने में आया कि सरकार दाल के निर्यात को सीमित करने का काम कर रही है। लेकिन गुजरे वक्त में आयात के कारण दालों के दाम की जो दुर्गति हुई उससे देश के भीतर वाले किसान हतोत्साहित हो चुके थे। और किसानों ने दाल उत्पादन में खास दिलचस्पी नहीं ली।
इस साल दाल उत्पादन कम होने का अंदेशा स्वाभाविक है। इसीलिए पूरे आसार हैं कि दाल को विदेशों से खरीदने की हालत फिर बनेगी। इस साल दाल उत्पादन दो करोड़ 20 लाख टन होने का अनुमान लगाया गया है। जबकि देश में दाल की खपत ढाई करोड़ टन से ज्यादा है। इतना ही नहीं बफर स्टाफ भी बनाए रखना पड़ता है। जिन व्यापारियों को ये आंकड़े पता हैं उन्होंने पेशबंदी भी कर ली। कुछ मीडिया रिपोर्ट्स कहती हैं कि कई दाल आयातकों ने म्यांमार जैसे दाल उत्पादक देशों में पहले से ही दाल खरीद कर रख ली और वहीं पर भंडारण भी कर लिया। जैसे ही भारत में दालों का आयात सुगम बनेगा वे माल उठाकर ले आएंगे।
दाल उत्पादन में दुखद स्थिति का कारण
इसका एक बड़ा कारण यह निकलकर आता है कि भारत में पिछले कुछ दशकों में दालों की उपज बढाने पर बहुत कम ध्यान दिया गया । जिस तरह हरित क्रांति में गेंहू और चावल की प्रति हेक्टेयर उपज बढाने पर काम किया गया, वैसी ही कोशिश अगर दालों के लिए भी होती तो आज भारत दालों के आयात पर निर्भर ना होता
मसला प्रति हैक्टेयर उत्पादकता का भी है
एक रिपोर्ट के मुताबिक इस समय भारत में प्रति हेक्टेयर दाल की उपज 755 किलोग्राम है जबकि दूसरे कई दाल उत्पादक देशों में यह 1900 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है. दाल के सीमित उत्पादन का दूसरा बड़ा कारण दालों की वर्षा आधारित खेती को भी माना जाता है. अस्सी फीसद से ज्यादा दालों की खेती वाला इलाका वर्षाधारित है। सिंचाई वाले इलाकों को किसान दाल के अलावा दूसरी फसलों के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं. इसके अलावा एक और कारण यह कि दालों को अच्छा रखरखाव चाहिए वरना वे बहुत जल्दी खराब हो जाती हैं। उनके भंडारण और रख रखाव का काम निजीस्तर पर किसान के लिए कठिन है। सरकारी भंडारण की स्थिति तो किसी से छुपी नहीं है। खराब भंडारण के कारण खाद्य उत्पादों की बर्बादी के मामले में अपनी बदनामी पहले से है। कहा जाता है कि ब्रिटेन जैसे देश की पूरी आबादी का पेट भरने के लिए जितना भोजन लगता है उतना हमारे देश में बर्बाद हो जाता है। इसीलिए उत्पादन बढ़ाने के साथ बर्बादी रोकने का उपाय विशेषज्ञ हमेशा से ही देते आए हैं।
कुल मिलाकर एक अनुमान लगाने में किसी को कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए। वह ये कि मांग के इतना ज्यादा होने की वजह से दाल का उत्पादन किसान के लिए फायदे का सौदा होना चाहिए था. क्योंकि अर्थशास्त्र का नियम है की अगर मांग बढती है तो कीमत भी बढ़ जाती है. लेकिन हैरत है कि भारतीय दालों के लिए यह स्थिति नहीं है। भारतीय दाल बाजार इस समय बेहद अनिश्चितताओं से भरा बाजार है. अभी उस बात को गुजरे ज्यादा समय नहीं बीता है जब अरहर की दाल 200 रूपए किलो तक पहुँच गयी थी. किसान तब बहुत उत्साहित हो गए थे. लेकिन उसके फौरन बाद विदेशों से ताबड़तोड़ आयात करके दाल के दाम नीचे लाए गए थे। विदेशों से दाल खरीदने की इतनी छूट दी गई कि भारतीय दाल उत्पादक किसान को अपनी लागत निकालने के भी लाले पड़ गए।
समर्थन मूल्य पर दालों की खरीद की दुश्वारियां
इस समय दाल उत्पादन को लेकर किसानों में कम उत्साह की एक बड़ी वजह सरकारी खरीद की लचर व्यवस्था भी है. इस समय सरकार दालों की न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद नाफेड के जरिए करती है. लेकिन सरकार कुल उत्पादन का बहुत ही छोटा हिस्सा एमएसपी पर खरीद रही है। अव्वल तो दाल की सरकारी खरीद के लक्ष्य ही पहले से छोटे बनाये जाते हैं तिस पर भी उन लक्ष्यों को हासिल करने में सरकार की कोई दिलचस्पी नहीं दिखती।
मसलन मार्च में खत्म हो रहे 2018-19 विपणन वर्ष में एफसीआई और नाफेड ने दलहन और तिलहन की कुल सरकारी खरीद का लक्ष्य सिर्फ 33 लाख टन रखा था। यह लक्ष्य ही कुल उत्पादन से बहुत कम है उसमें से भी अभी तक आधा हिस्सा ही खरीदा जा सका है। ऐसी ढिलाई से ही किसान को अपनी उपज खुले बाजार में बेहद कम दाम में बेचनी पड़ती है।
मूंग, चना, अरहर आदि को किसान एम.एस.पी. से कितने कम दाम में बेचने को मजबूर हैं यह बात किसी से छुपी नहीं है। इससे किसान आगे से दाल उगाने के लिए और ज्यादा हतोत्साहित हो रहा हैं। बेशक इसीसे विदेशों से दाल खरीदने के व्यापार को बढ़ावा मिल रहा है। यह कम गौरतलब नहीं है कि भारत में दाल का पूरा आयात निजी क्षेत्र के हाथों में है।
अब क्योंकि देश के शहरी उपभोक्ता के लिए दालों के दाम फिलहाल उतने ऊँचें नहीं हैं। किसी अफे-दफे में विदेशी दालों से तुरंत भरपाई का उपाय भी उपलब्ध है लिहाज़ा देश में दालों के कम उत्पादन पर चिंता जताने का मौका ही नहीं बनता। लेकिन जो विद्वान देसी किसानों की बदहाली की चिंता करते हैं उन्हें तो कमसेकम भारतीय दाल उत्पादन की स्थिति पर बोलना चाहिए। खासतौर पर तब जब गेंहू और चावल के उगाने पर लागत निकालने की सूरत न बन पा रही हो और चारों तरफ से किसानों को यह सुझाव दिए जा रहे हों कि किसानों को वैकल्पिक खेती की तरफ आना पड़ेगा।
सरकार को भी सोचना पड़ेगा। सरकार जब किसानों की आमदनी दुगनी करने के तरीके ढूंढ रही है तो उसे हर उस फसल के बढावे पर लग जाना चाहिए जिसकी मांग देश के भीतर ही है। यहां तो दाल की सिर्फ मांग ही नहीं बल्कि देसी प्रजाति की दालों की इतनी जबर्दस्त मांग है कि अगर तरीके से मार्केटिंग हो तो भारतीय दालें भारतीय शहरों और विदेशों में अपना डंका बजा सकती हैं।
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