लखनऊ। ख़राब जनस्वास्थ्य सेवाएं डाॅक्टरों और मरीजों का आमने-सामने खड़ा कर दे रही हैं। डॉक्टर घेरे में हैं और मरीज गुस्से में। यही सरकारी अस्पतालों में हो रहा है। हाल ही में महाराष्ट्र में ऐसा देखने को मिला। जहां पांच ऐसे मामले सामने आए जिनमें मरीजों के गुस्साए रिश्तेदारों ने डाॅक्टरों पर लापरवाही के लिए दुर्व्यवहार किए। ऐसे मामले दिल्ली, सूरत, अहमदाबाद, बुलंदशहर और चेन्नई से भी पिछले कुछ सालों में सामने आए हैं। ऐसे मामले सिर्फ भारत में ही नहीं हो रहे। बल्कि लांसेट और ब्रिटिश मेडिकल जर्नल के मुताबिक भारतीय उपमहाद्वीप और चीन में डाॅक्टरों पर हमले के मामले बढ़ रहे हैं।
इन मामलों में एक समान बात यह है कि ये सरकारी अस्पतालों में हो रहे हैं। इन अस्पतालों में संसाधन बेहद सीमित होते हैं। इन पर मरीजों की संख्या का दबाव बहुत अधिक होता है। इनमें ज्यादातर जूनियर डाॅक्टर होते हैं। वे भी काम के बोझ तले दबे होते हैं और उनके लिए सही ढंग से मरीजों और उनके रिश्तेदारों से पेश आना मुश्किल हो जाता है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के 500 डाॅक्टरों पर आधारित एक अध्ययन में यह बात सामने आई कि तकरीबन 75 फीसदी डाॅक्टरों ने हमले या धमकियां झेली हैं।
डाॅक्टर पर काम का बोझ बहुत अधिक है। वहीं मरीज और उनके रिश्तेदार अक्सर यह शिकायत करते हैं कि डाॅक्टर उनसे सही व्यवहार नहीं करते और न ही अस्पतालों में जांच और दवाई संबंधित अन्य सुविधाएं अच्छे स्तर की हैं। ये लोग इस बात से भी नाराज दिखते हैं कि इन्हें निजी दुकानों और अस्पतालों के पास दवाइयों और अन्य सेवाओं के लिए जाने को मजबूर होना पड़ रहा है।
सरकारी अस्पतालों के डाॅक्टरों की दृष्टि से सोचें तो उन पर आपातकालीन मामलों में भी चमत्कार की उम्मीद की जाती है। डाॅक्टरों पर हमलों के कई मामलों में यह बात सामने आई है कि उनके साथ आने वाले लोग तुरंत इलाज की मांग करते हैं और जब यह पूरा नहीं होता तो स्थिति बिगड़ जाती है। मुंबई में जिन डाॅक्टरों पर हमले हुए उनमें एक ऐसा था जो 36 घंटों से लगातार काम कर रहा था। इन डाॅक्टरों को आराम सिर्फ तब मिलता है जब वे अपर्याप्त सुविधाओं वाले अपने हाॅस्टल में जाते हैं।
जीवनरक्षक की डाॅक्टरों की छवि भी निजी अस्पतालों के दौर में टूट गई है। अब डाॅक्टरों को असंवेदनशीलता और अधिक से अधिक पैसे वसूलने वाले पेशेवरों के तौर पर भी पहचाना जा रहा है। इस वजह से जो डाॅक्टर अपना काम ठीक से भी करते हैं उन्हें भी बेपरवाह माना जाने लगा है। सरकारी अस्पताल को इस भरोसे के संकट का सबसे अधिक शिकार होना पड़ रहा है। इन अस्पतालों में अधिकांश मरीज निजी अस्पतालों से जवाब दिए जाने के बाद और बहुत अधिक पैसे वसूले जाने के बाद जाते हैं। ऐसे में वे पहले से ही बहुत अधिक गुस्से में रहते हैं।
14 राज्यों में ऐसे मामलों से डाॅक्टरों के बचाव के लिए कानून बनाए हैं। लेकिन इनका क्रियान्वयन बहुत कमजोर है। उदाहरण के तौर पर महाराष्ट्र में 2010 में एक ऐसा कानून आया जिसमें डाॅक्टर पर हमला करने को गैरजमानती अपराध बनाया गया। इसमें तीन साल तक की कैद और 50,000 रुपए जुर्माने का प्रावधान है। हमला करने वाले से नुकसान का दोगुना जुर्माना वसूलने का भी प्रावधान है। पिछले तीन साल में ऐसे 53 मामले दर्ज किए गए लेकिन एक में भी सजा नहीं हो पाई है। मीडिया खबरों के मुताबिक हालिया मामलों में जिनकी गिरफ्तारियां हुईं, उन्हें बाद में जमानत पर छोड़ दिया गया।
कई अस्पतालों ने सुरक्षा व्यवस्था को ठीक करने का निर्णय ऐसे मामलों के बाद लिया है। उदाहरण के तौर पर दिल्ली के दीनदयाल उपाध्याय ने बाउंसर नियुक्त किए हैं। क्योंकि इस अस्पातल में हर महीने कोई न कोई ऐसी घटना हो जा रही थी और पिछले छह साल में इस वजह से कर्मचारियों ने 20 दिन हड़ताल किए हैं। लेकिन इससे भी कोई खास फर्क नहीं पड़ रहा। बल्कि इससे और नुकसान हो सकता है। इससे डाॅक्टरों और मरीजों में और अविश्वास बढ़ सकता है। इस खराब स्थिति को समझते हुए वरिष्ठ डाॅक्टरों ने कनिष्ठ डाॅक्टरों को यह बताना शुरू किया है कि मरीजों और उनके रिश्तेदारों से ठीक ढंग से बातचीत करें। कुछ सरकारी अस्पतालों ने इस दिशा में कोशिशें भी की हैं। मेडिकल की पढ़ाई में इन बातों पर ध्यान नहीं दिया जाता। अगर डाॅक्टर अपने मरीजों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि को नहीं समझेंगे तो स्थितियां और खराब होंगी।
लोगों का दुख-दर्द समझने वाले डाॅक्टर तो चाहिए लेकिन सिर्फ इससे बात नहीं बनेगी। जितनी बड़ी संख्या में सरकारी अस्पतालों में मरीज आते हैं, उसे देखते हुए ढांचागत बदलाव की जरूरत है। भारत का स्वास्थ्य सेवाओं का बजट काफी कम है। डाॅक्टरों और मरीजों का औसत बहुत खराब है। जब महाराष्ट्र जैसे मामले आते हैं तो कुछ छोटे-मोटे कदम उठाए जाते हैं। लेकिन जब तक स्वास्थ्य सेवाओं पर अधिक खर्च करने की व्यवस्था नहीं बनती और सरकारी अस्पतालों को बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं देने में सक्षम नहीं बनाया जाता तब तक डाॅक्टरों और मरीजों का टकराव दिखता रहेगा।
(यह लेख इकॉनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली से लिया गया है)
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