पल्लव बाग्ला
नई दिल्ली (भाषा)। आज नकदी की आपूर्ति सीमित होने की वजह से भारतीय कतारों में खड़े होने पर मजबूर हैं। आज से लगभग 60 साल पहले भी भारतीय कतारों में खड़े थे क्योंकि तब खाद्य आपूर्ति सीमित कर दी गई थी। चावल और गेहूं जैसे प्रमुख खाद्य पदार्थों की आपूर्ति कम थी। लोगों को कुछ किलोग्राम अनाज खरीदने के लिए लंबी-लंबी कतारों में खड़ा रहना पड़ता था। जीवन वाकई मुश्किलों से भरा हुआ था।
वास्तव में, 1950 के दशक में एशिया का अधिकांश हिस्सा भुखमरी के कगार पर था। तभी फिलीपीन में ‘इंटरनेशनल राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट’ के वैज्ञानिकों ने एक चमत्कारी पौधा विकसित किया, जिसने ‘दुनिया को बदलकर’ रख दिया। धान का यह छोटा पौधा आईआर-8 कहलाता था और इसने उत्पादन को दोगुना कर दिया। इस पौधे ने एक कृषि क्रांति ला दी, जिसने लाखों जिंदगियां बचा लीं।
दूसरे विश्वयुद्ध और 20-30 लाख लोगों की जिंदगी लील जाने वाले बंगाल के भारी अकाल के बाद भूख से मर रहे भारतीयों के जीवन को बचाने के लिए एक चमत्कार की जरुरत थी। तभी इस नए पौधे का आगमन हुआ और इसने भारत को धीरे-धीरे खाद्य क्षेत्र में आत्मनिर्भरता के युग में प्रवेश कराया। 1950 के दशक में धान का पौधा लंबा होता था और इसपर कुछ ही अनाज उगता था। इनके गिर जाने की बहुत आशंका होती थी। ऐसे में अधिकतर अनाज बर्बाद हो जाया करता था। ऐसे में जरुरत थी एक छोटे पौधे की, जिसमें अनाज से युक्त कई तने हों।
आईआरआरआई के वैज्ञानिकों ने तब दो किस्म के धानों का आपस में मेल कराया। इनमें से एक धान इंडोनेशिया से था और दूसरा ताइवान से। तब एक नए पौधे ‘आईआर-8′ का जन्म हुआ, जिसने दुनिया को भुखमरी से बचाया।
हाल तक आईआरआरआई के प्रमुख चावल प्रजनक रहे वनस्पति आनुवंशिकी विज्ञानी गुरदेव खुश ने आईआर-8 नामक ‘चमत्कारी पौधे’ के निर्माण में अहम भूमिका निभाई थी। उन्होंने कहा कि आम तौर पर पौधे के प्रजनन में उत्पादन में एक से दो प्रतिशत का इजाफा होता है लेकिन आईआर-8 ने उत्पादन को दोगुना कर दिया था।
आईआरआरआई के अनुसार, ‘‘आईआर 8 इन प्रजनन प्रयासों का पहला परिणाम था। यह एक ऐसा चावल था, जिसमें बौनेपन के कुछ गुण थे। यह बेहद लंबी किस्म पेटा और एक बौनी किस्म डी-जियो-वू-जेन की संतति था।” भारतीय हरित क्रांति के जनक और आईआरआरआई के पूर्व महानिदेशक एमएस स्वामीनाथन ने कहा, ‘‘आईआर ने वैश्विक इतिहास रच दिया था क्योंकि उत्पादन की सीमा को तोड़ दिया गया था।”
उन्होंने कहा कि असली रक्षक तो भारतीय किसान थे क्योंकि जब तक खर्च वहनीय होते थे, वे नई तकनीकों को सीखने के लिए और अपनाने के लिए तैयार रहते थे। इस ‘चमत्कारी धान’ के बीजों को बिना किसी पेटेंट सुरक्षा के फिलीपीन, भारत और एशिया के अन्य हिस्सों में व्यापक स्तर पर मुफ्त में बांटा गया था। पूर्वी एशिया के किसानों ने तत्काल ही इसे अपना लिया था। वियतनाम और आसपास के देशों में धान की नई किस्म को ‘होंडा राइस’ कहा गया क्योंकि इस एक ही फसल से किसानों को इतना मुनाफा हो जाता था कि वे होंडा मोटरसाइकिल खरीद सकते थे। भारत में इस नई किस्म को सबसे पहले आंध्र प्रदेश के युवा किसान नेक्कंती सुब्बाराव ने अपनाया था।
आईआरआरआई की आधिकारिक पत्रिका राइस टुडे कहती है कि ‘‘वर्ष 1967 में, सुब्बाराव ने अपने खेत में आईआर 8 का परीक्षण किया और भारत सरकार से निर्देश मिलने पर अपने गांव अतचांता के पास लगभग 2000 हेक्टेयर जमीन पर इसके पहले वृहद स्तरीय परीक्षण और उत्पादन का निरीक्षण किया।”
पत्रिका में कहा गया, ‘‘अगले ही साल, आईआर 8 को उनके गाँव में 1600 हेक्टेयर जमीन पर बोया गया और उसके बाद जो कुछ भी हुआ, वह इतिहास में दर्ज है। बीजों को जल्दी ही देशभर में बांट दिया गया। पड़ोसियों द्वारा धान पंडित (चावल विशेषज्ञ) कहे जाने वाले सुब्बाराव को ‘मिस्टर आईआर 8′ कहकर भी पुकारा जाने लगा।”
इस समय अपनी उम्र के आठवें दशक में चल रहे सुब्बाराव ने पिछले ही माह आईआर-8 अपनाने की स्वर्णजयंती मनाई थी। वह कहते हैं कि इसने ‘‘भूख से बदहाल एक देश की किस्मत बदलकर उसे अनाज से भरे गोदामों का देश बना दिया।” सुब्बाराव याद करते हुए कहते हैं कि हालांकि आईआर 8 ने उत्पादन को दोगुना कर दिया था लेकिन छोटा और चिकना होने के कारण यह भारत के उपभोक्ताओं और गृहणियों का पसंदीदा चावल नहीं बना।
भारतीय लंबे समय से बिना चिकनाई वाले अनाज को पसंद करते रहे हैं और भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा मूल आईआर-8 की जैविक संरचना में बदलाव करने से जया और पदमा जैसी नई किस्में विकसित हुईं। इससे भारत में चावल की खेती का पूरा परिदृश्य ही बदल गया।
आईआरआरआई में सामाजिक विज्ञानी समरेंदु मोहंती का आकलन कहता है कि दुनिया में आईआर-8 को वर्ष 1966 में लाए जाने से लेकर वर्ष 2015 तक चावल की इस एकल किस्म या इसके सीधे किसी वंशज ने लगभग 19 करोड़ टन धान में अपना योगदान दिया होगा। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि यह एक विशाल मात्रा है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के महानिदेशक टी मोहपात्रा कहते हैं कि इसने कृषि में एक नई क्रांति ला दी।
धान के उत्पादन के साथ अपने जुड़ाव को बेहद गर्व के साथ याद करते हुए खुश कहते हैं कि 1960 के दशक के हर साल में भारत लगभग 1 करोड़ टन चावल का आयात कर रहा था। आज भारत चावल का दूसरा सबसे बडा उत्पादक है और वह दुनिया को 1 करोड़ टन चावल निर्यात करता है। आईआर-8 ने दुनिया को कैसे बदला है, इसका आकलन इसी बात से लगाया जा सकता है कि वर्ष 1960 और 2016 में भारत की जनसंख्या तिगुनी हो गई है और आईआर-8 और इसकी संतति ने चावल उत्पादन को पांच गुने से भी ज्यादा बढ़ा दिया है।
खुश कहते हैं, ‘‘व्यापक स्तर पर फैले अकाल भारत के लिए बीते दौर की बात हो गए हैं।” आईसीएआर के एक शीर्ष वैज्ञानिक कहते हैं, ‘‘भगवान का शुक्र है कि हम सिर्फ नकदी पाने के लिए कतारों में लगे हैं। बीती सदी का सबसे बुरा आज पीछे छूट चुका है, जो कि जहाज से आने वाले अनाज के दम पर जीने का था। एक पौधे ने भारत को बचाया और बनाया है।”