तीन जनवरी की शाम एक 50 वर्षीय आंगनबाड़ी सहायिका के साथ गैंगरेप किया गया, उसके निजी अंगों में रॉड डाल दी गई, पसलियों को तोड़ दिया गया, फेफड़े क्षतिग्रस्त हो गए और उसकी बेरहमी से हत्या कर दी गई। इसके बाद उसी रात, उसकी लाश को उसके घर के बाहर फेंक दिया गया।
यह भयावह घटना हाथरस से लगभग 120 किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश में बदायूं जिले के उघैती इलाके में घटी है। यहां पिछले साल भी सितंबर माह में एक और दलित महिला के साथ सामूहिक बलात्कार और हत्या की घटना हुई थी।
कुछ महीनों पहले उत्तर प्रदेश सरकार ने महिला सुरक्षा पर जागरुकता पैदा करने और राज्य में महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराधों को दूर करने के लिए एक विशेष अभियान “मिशन शक्ति” शुरू किया था। महिलाओं की सुरक्षा को लेकर चल रहे इस विशेष अभियान के दौरान ही आंगनबाड़ी सहायिका का ना सिर्फ बलात्कार किया गया बल्की उसकी हत्या भी कर दी गई। इस साल अप्रैल में नवरात्रि के दौरान इस अभियान के समापन की उम्मीद है।
जघन्य हत्या, हैवानियत और बेरहमी
आंगनबाड़ी सहायिका के साथ हुए सामूहिक बलात्कार और हत्या की इस घटना के अलावा एक और बात है जिस पर कम ही लोगों का ध्यान है। देश में 26 लाख से अधिक आंगनबाड़ी कार्यकर्ता और सहायिका हैं, जिनका दशकों से शोषण हो रहा है। ये लोग ना केवल देश में कुपोषण के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं बल्कि हालिया कोविड-19 महामारी के दौरान भी इन्होंने इस चुनौती का डटकर सामना किया है।
ये फ्रंटलाइन महिला कार्यकर्ता भारत सरकार की एकीकृत बाल विकास सेवा (ICDS) योजना के तहत देश के शुरुआती चाइल्ड केयर कार्यक्रम की रीढ़ हैं।
ICDS बच्चों की देखभाल और विकास के लिए दुनिया का सबसे बड़ा कार्यक्रम है, जिसका लाभ लगभग 16 करोड़ से अधिक जरूरतमंद लोग (2011 की जनगणना) ले रहे हैं। इसके तहत 0-6 वर्ष की आयु समूह के बच्चे और देश में गर्भवती और स्तनपान कराने वाली माताओं को शामिल किया गया है। इस योजना के तहत छह तरह की सेवाएं जैसे पूरक पोषण, पूर्वस्कूली गैर-औपचारिक शिक्षा, पोषण और स्वास्थ्य शिक्षा, टीकाकरण, स्वास्थ्य जांच और रेफरल सेवाएं दी जाती है। इन सेवाओं को देश के सभी जिलों में फैले लगभग साढ़े तेरह लाख सुचारू रूप से चल रहे आंगनबाड़ी केंद्रों के ज़रिए लोगों तक पहुंचाया जाता है। (जून 2018 तक)
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इन आंगनबाड़ी केंद्रों में मुख्य रूप से एक कार्यकर्ता और एक सहायिका होती हैं। ये दोनों ही सामान्य तौर पर महिलाएं होती हैं। बच्चों को संभालना, उनके लिए दैनिक पौष्टिक आहार की व्यवस्था करना, स्कूल में दाखिले के लिए बच्चों को मानसिक व शारीरिक तौर पर तैयार करना, उनके स्वास्थ्य और स्वच्छता का ध्यान रखना और इसके साथ ही गर्भवती व स्तनपान कराने वाली माताओं को परामर्श देना ये सभी काम आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं और सहायिकाओं द्वारा किया जाता है।
इनमें से कई आंगनबाड़ी केंद्र काफी कठिन और दुर्गम इलाकों में होते हैं। इन महिला कार्यकर्ताओं को काम के सिलसिले में हर दिन जंगलों से होकर या नालों को पार कर कई किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है। अब एक स्वाभाविक सवाल यही उठता है कि इन्हें इस काम के लिए कितना भुगतान किया जाता होगा? विडंबना है कि इन महिलाओं को “कर्मचारी” तक नहीं माना जाता है और इन्हें वेतन के नाम पर मासिक मानदेय दिया जाता है जो कि अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग है।
सितंबर 2018 में, केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्रालय ने आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं के “मानदेय में वृद्धि” पर एक पत्र जारी किया जो 3,000 रुपए प्रति माह से लेकर 4,500 रुपए प्रति माह तक था। आंगनबाड़ी सहायिकाओं के लिए वेतन 1,500 रुपए प्रति माह से बढ़ाकर 2,250 रुपए प्रति माह किया गया था। इसी तरह मिनी-आंगनबाड़ी कार्यकर्ता-सह-सहायक के लिए, मंत्रालय ने प्रति माह सिर्फ 3,500 रुपए का वेतन निर्धारित किया।
कर्नाटक जैसे राज्यों में आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं और सहायकों को क्रमशः 8,000 रुपए और 4,000 रुपए का मासिक मानदेय दिया जाता है। इसके साथ ही चिकित्सा संबंधी खर्चों के लिए सरकार हर साल उनका 50,000 रुपए तक का खर्च उठाती है और उन्हें पेंशन भी दिया जाता है।
हालांकि, देशभर में आंगनबाड़ी कार्यकर्ता और सहायिका बेहतर वेतन की मांग कर रहे हैं और अपनी मांगों को लेकर उन्होंने कई बार विरोध प्रदर्शन भी किया है। वे चाहते हैं कि उन्हें “कर्मचारी” के तौर पर मान्यता प्रदान की जाए। इसके साथ ही उनकी मांग है कि एक आंगनबाड़ी कार्यकर्ता के लिए कम से कम 18,000 से 20,000 रुपये तक का मासिक वेतन निर्धारित किया जाए, इसी तरह आंगनबाड़ी सहायिका को 9,000 से 10,000 रुपये तक मासिक वेतन दिया जाए।
लेकिन अभी तक सरकार ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया है।
कोविड-19 महामारी के दौरान इन आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं और सहायकों ने ICDS लाभार्थियों को घर-घर जाकर राशन पहुंचाने की अतिरिक्त ज़िम्मेदारी ली है। इसके अलावा ये लोग ग्रामीण लोगों में कोरोना वायरस को लेकर जागरूकता फैलाने और गांवों में आने वाले बाहरी लोगों की सूची तैयार करने का काम भी कर रहे हैं।
हालांकि, इस काम के लिए उन्हें ना तो कोई पहचान मिल रहा है और ना ही इसके लिए उन्हें उचित भुगतान किया जा रहा है।
हमें यह समझना होगा कि चाइल्ड केयर कार्यक्रम से संबंधित योजनाएं, बदायूं में गैंगरेप की शिकार उक्त 50 वर्षीय महिला जैसी लाखों फ्रंटलाइन महिला कार्यकर्ताओं के दम पर ही चल रही हैं। इन महिलाओं के बिना इतने बड़े स्तर पर योजनाओं का संचालन संभव नहीं है। इनके बिना हम कुपोषण से नहीं लड़ सकते, जो हमारे देश में बच्चों की एक बड़ी आबादी को प्रभावित करता है। इनके बिना हम एक स्वस्थ राष्ट्र नहीं बन सकते हैं।