सुकुमार मुरलीधरन
इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामीन नेतन्याहू की नैतिकता और समझ को जब कोई चुनौती देता है तो उसे वे सार्वजनिक तौर पर खारिज करते हैं। हाल ही में इसका शिकार आयरलैंड के विदेश मंत्री बने। उनकी गलती यह थी कि उन्होंने गाजा में दमित लोगों का पक्ष लिया। इसके पहले एक बार नेतन्याहू जर्मनी के विदेश मंत्री से अपने ही देश में नहीं मिले। क्योंकि जर्मन विदेश मंत्री फिलीस्तीन में इजराइली सेना की ज्यादतियों के बारे में बात करना चाह रहे थे।
जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जुलाई की शुरुआत में इजराइल की यात्रा की तो ऐसी कोई जरूरत नहीं पड़ी। दोनों प्रधानमंत्री पूरे समय गर्मजोशी के साथ एक साथ दिखे। फिलीस्तीन को लेकर कोई चर्चा नहीं हुई। साझा घोषणापत्र में चलते-चलते सिर्फ एक बार फिलीस्तीन का जिक्र हुआ।
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भारत के पास तर्कों की कमी नहीं थी। मई में ही फिलीस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास भारत आए थे। इस दौरे में भी विवाद को सुलझाने को लेकर दोनों पक्ष ने सहमति जताई थी। लेकिन जैसे ही अब्बास वापस अपने देश पहुंचे, वहां उनका स्वागत इजराइल की अब तक की उस सबसे बड़ी कोशिश से हुआ जिसमें वेस्ट बैंक में यहूदियों के अवैध कब्जे को बढ़ाने का प्रयास किया गया। उन्होंने इजराइल सरकार को यह सूचना दी कि फिलीस्तीन अब गाजा का बिजली बिल नहीं भरेगा। इसके बाद इजराइल ने बिजली आपूर्ति काट दी। इससे यहां की स्थिति काफी बिगड़ गई।
भारत द्वारा फिलीस्तीन की उपेक्षा का संकेत इजराइल के साथ जारी साझा घोषणापत्र के पहले पैराग्राफ में ही मिल जाता है। इसमें आपसी संबंधों को ‘रणनीतिक साझेदारी’ के स्तर पर ले जाने का निर्णय किया गया। कुछ लोगों का कहना है कि उस दिन सुबह भारत ने जो मसौदा बनाया उसमें इसका जिक्र था लेकिन इजराइल के मसौदे में नहीं था। बाद में पता चला कि ‘रणनीतिक साझेदारी’ का प्रस्ताव भारत की तरफ से आया था।
भारत इजराइल से काफी सैन्य हथियार खरीदता है लेकिन रणनीतिक साझेदारी के बाद दोनों पक्षों को भूराजनीतिक लक्ष्यों को लेकर भी साथ करना पड़ेगा। इस मामले में दोनों पक्षों की समानता स्पष्ट नहीं है। इजराइल अधिक रणनीतिक फायदे की रणनीति पर काम कर रहा है। इजराइल अपने रणनीतिक फायदे के लिए कुछ भी कर सकता है। लेकिन अगर भारत ऐसा करता है तो इसकी अपनी मुश्किले हैं।
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इजराइल के साथ रणनीतिक साझेदारी करके भारत में इजराइली सेना की फिलीस्तीन में कब्जे की रणनीति के आयात की कोशिश की जा सकती है। इजराइल फिलीस्तीन को लेकर अपने मंसूबे स्पष्ट तौर पर जाहिर करता आया है।
इसी तरह की बातें भारत के हिंदुत्वादी विचारधारा में भी देखी जा सकती हैं। अधिक स्पष्टता से कहें तो कश्मीर को लेकर इसी तरह की सोच भारत में बढ़ती जा रही है। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल के नाम पर ‘डोभाल डाॅक्टरीन’ की बात चल ही रही है। इसके मुताबिक भारत को कश्मीर मामले में आक्रामक और कठोर रुख अपनाना चाहिए।
इस पद पर आने से पहले और खुफिया एजेंसियों से सेवानिवृत्त होने के बाद डोभाल ने 2010 में हैदराबाद में एक सेमिनार में कहा था कि कश्मीरी सभ्यता कश्मीरी पंडितों की है। उन्होंने कहा था कि कश्मीर समस्या का समाधान पाकिस्तान को खत्म करके ही हो सकता है और यह काम भारत को अपनी सुविधा के मुताबिक कभी भी कर देना चाहिए।
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उन्होंने कहा था कि बातचीत करना बेकार है लेकिन अगर यह अपरिहार्य हो तो कश्मीरी पंडितों को सबसे आगे रखकर ही कोई बातचीत होनी चाहिए। हालांकि, मोदी के दौरे में दोनों पक्षों ने कहा कि लोकतंत्र उन्हें आपस में जोड़ता है लेकिन दोनों पक्षों में एक ऐसे सैन्य प्रशासन पर सहमति दिखी जहां उपेक्षा की राजनीति सामान्य है और जहां अधिकारों की कोई कीमत नहीं है।
(लेखक सोनीपत के ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के जिंदल स्कूल आॅफ जर्नलिज्म ऐंड कम्युनिकेशन में पढ़ाते हैं।)
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