हिंदू-मुस्लिम तनाव की जड़ें और अलग मुस्लिम पहचान वस्तुतः भारत विभाजन और जिन्ना के द्वि-राष्ट्रवाद में निहित हैं, जिसके अनुसार भारत में दो राष्ट्र हैं—एक हिंदू राष्ट्र और दूसरा मुस्लिम राष्ट्र। जवाहरलाल नेहरू और मोहम्मद अली जिन्ना ने मिलकर भारत की धरती को हिंदू-मुस्लिम आबादी के अनुपात में बाँट दिया था। अविभाजित भारत की कुल आबादी थी 36 करोड़, जिसमें 28 करोड़ हिंदू और 8 करोड़ मुसलमान थे। भारत को 12.6 लाख वर्गमील और पाकिस्तान को 3.6 लाख वर्गमील ज़मीन मिली थी। आबादी और क्षेत्रफल के आँकड़ों से लगता है कि जिन्ना और अंग्रेजों ने पूरी मुस्लिम आबादी के लिए पाकिस्तान और पूरी हिंदू आबादी के लिए हिन्दुस्तान सोचा होगा।
द्वि-राष्ट्रवाद के प्रणेता कहे जाने वाले मोहम्मद अली जिन्ना जब इंग्लैंड से बैरिस्टर बनकर भारत लौटे थे, तो भारतीय राष्ट्रीयता को लेकर उनके मन में कोई दुविधा नहीं थी। शुरूआत में जिन्ना का किरदार उतना सांप्रदायिक नहीं था, जितना बाद के वर्षों में हो गया। जिन्ना के मन में न तो महात्मा गांधी के प्रति कोई विशेष सम्मान था और न ही मुस्लिम लीग से प्रेम। तो फिर जिन्ना सांप्रदायिक कैसे हो गए और मुस्लिम लीग का नेतृत्व क्यों स्वीकार किया—इसका उत्तर तो इतिहासकार ही दे सकते हैं। जो भी हो, भारत के बंटवारे की माँग जिन्ना ने ज़ोर-शोर से उठा दी, जबकि महात्मा गांधी हर हाल में बंटवारा रोकना चाहते थे। उन्होंने गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन से आग्रह किया था कि बंटवारा रोक दीजिए और मोहम्मद अली जिन्ना को अविभाजित भारत का प्रधानमंत्री बना दीजिए। माउंटबेटन को भरोसा नहीं था कि नेहरू मान जाएंगे, फिर भी उन्होंने हामी भर दी, लेकिन नेहरू नहीं माने।

नेहरू सरकार को बर्खास्त करने की बात कहते हुए गांधी जी के मन में कितनी पीड़ा हुई होगी, इसकी हम केवल कल्पना कर सकते हैं। ऐसी घड़ी में गांधी जी को सुभाष चंद्र बोस की याद आई थी और उन्होंने कहा था, “बोस एक सच्चे देशभक्त थे।” तब बहुत देर हो चुकी थी—बोस इस दुनिया में नहीं थे। दुर्गादास का मानना है कि यदि बोस के हाथ में देश की कमान होती तो बंटवारा नहीं होता। लेकिन जिन्ना पर गांधी जी की उम्मीद का कोई ठोस आधार नहीं था। जिन्ना ने कांग्रेस छोड़ी थी गांधी जी के कारण और कड़वाहट पैदा हुई थी नेहरू-जिन्ना टकराव के कारण। फिर भी अगर जिन्ना को प्रधानमंत्री बनाकर देश का विभाजन टल जाता, तो इतना खून-खराबा नहीं होता।
प्रथम विश्व युद्ध के बाद 1920 के दशक में जब तुर्की में मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने इस्लामिक शासन की खलीफा व्यवस्था समाप्त कर सेकुलर और आधुनिक शासन कायम किया और इस्लामी कानूनों की भूमिका समाप्त कर दी, तो भारत के मुस्लिम संगठनों ने इसके विरोध में आंदोलन छेड़ा था, जिसे खिलाफत आंदोलन के नाम से जाना गया। इसका उद्देश्य था अंग्रेजों को मजबूर करना कि वे अतातुर्क की सेकुलर हुकूमत की जगह इस्लामी हुकूमतों को फिर से कायम करें। जिन्ना ने इस आंदोलन का ज़ोरदार विरोध किया था। इतना ही नहीं, उन्होंने भारत में पृथक निर्वाचन मंडल (सेपरेट इलेक्टोरेट) लागू करने का भी विरोध किया था।
मोहम्मद अली जिन्ना एक ऐसे इंसान थे जो कभी हज पर नहीं गए, पाँच वक्त की नमाज़ नहीं पढ़ते थे, जिन्हें कुरान की आयतें भी ठीक से नहीं आती थीं, जो अविभाज्य भारत में विश्वास रखते थे, कांग्रेस के सदस्य थे और कट्टरपंथी मुसलमानों से दूर रहते थे। उन्हें बहुत समय तक न भारत के विभाजन और न पाकिस्तान में कोई रुचि थी। ‘पाकिस्तान’ शब्द तो एक रहमत अली ने गढ़ा था, जो इंग्लैंड के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय का छात्र था।
कुछ समय पहले लालकृष्ण आडवाणी ने जिन्ना को सेकुलर कहा था और देश में भूचाल आ गया था। मोहम्मद अली जिन्ना और लालकृष्ण आडवाणी में एक समानता है—दोनों का जन्म कराची में हुआ था। शायद दोनों मिले भी हों। इसी तरह जसवंत सिंह ने अपनी पुस्तक में पाकिस्तान बनने के लिए जिन्ना के साथ-साथ गांधी, नेहरू और पटेल को भी ज़िम्मेदार ठहराया था। इसके बाद उनकी आलोचना भी हुई थी।
1915-16 में जब जिन्ना ने कांग्रेस पार्टी जॉइन की, तब कांग्रेस का नेतृत्व महात्मा गांधी के हाथों में था। गांधी शुद्ध सनातनी वैष्णव थे, रामराज्य की कल्पना लेकर चल रहे थे, ‘रघुपति राघव राजा राम’ में विश्वास करते थे। इसे विडंबना ही कहेंगे कि ऐसा धर्मपरायण सनातनी हिंदू सत्याग्रह करे खलीफा व्यवस्था को स्थापित करने के लिए। जिन्ना ने कांग्रेस पार्टी जॉइन तो कर ली थी, लेकिन गांधी जी द्वारा खिलाफत आंदोलन का समर्थन उन्हें पसंद नहीं था।
कांग्रेस के भीतर जिन्ना के साथ ही बाल गंगाधर तिलक जैसे लोगों ने भी गांधी जी के फैसले का विरोध किया था। लेकिन नेहरू जैसे सेकुलरवादियों ने भी खिलाफत आंदोलन का विरोध नहीं किया। जिन्ना को राजनीति में सत्याग्रह का तरीका पसंद नहीं था। मुसलमानों से गांधी जी को खिलाफत आंदोलन में जो सौहार्द चाहिए था, वह कभी नहीं मिला।
बहुत लोग जानते होंगे कि इसी ज़माने में स्वामी श्रद्धानन्द ने भी खिलाफत आंदोलन में गांधी जी का साथ दिया था। शायद इतिहास में श्रद्धानन्द अकेले संत होंगे जिन्होंने जामा मस्जिद में वेद मंत्रों का उच्चारण किया और भाषण दिया। यदि 1922 में मस्जिद में वेद मंत्र और मंदिर में नमाज़ पढ़ने की परंपरा बन जाती, तो भारत का नक्शा अलग होता। लेकिन ऐसा होना नहीं था क्योंकि स्वामी श्रद्धानन्द की हत्या राशिद नाम के एक मुसलमान ने उनके घर में घुसकर कर दी थी।
जिन्ना का कहना था कि राजनीति भद्र पुरुषों का कार्य है और हमें आज़ादी के लिए संवैधानिक तरीके से लड़ाई लड़नी चाहिए। शायद मोतीलाल नेहरू का भी यही विचार रहा हो, लेकिन वे गांधी जी का विरोध नहीं कर सके। गांधी जी के सत्याग्रह के विषय में जिन्ना का कहना था कि देश के अनपढ़ लोगों की भावनाओं में उबाल लाना घातक हो सकता है। चौरी-चौरा की घटना (1922) में यह बात सामने आ भी गई और गांधी जी ने कुछ समय के लिए सत्याग्रह स्थगित कर दिया।
जिन्ना का कहना था कि गांधी जी का आंदोलन छद्म धार्मिक आंदोलन है। यदि निष्पक्ष होकर देखा जाए तो आरंभ में जिन्ना का मार्ग इस्लामी नहीं बल्कि सेकुलर था, जबकि गांधी जी का मार्ग वैष्णव था। एक मुसलमान भला वैष्णव मार्ग को कैसे अपनाता?
धीरे-धीरे जिन्ना का कांग्रेस से मोहभंग होता गया। उन्हें कांग्रेस में अपना भविष्य नहीं दिखा और उन्होंने अलगाव का नारा बुलंद कर दिया। उन्होंने कहा, “गांधी की कांग्रेस में मेरे लिए कोई जगह नहीं।” जिन्ना ने सेकुलर जामा उतारकर उसी मुस्लिम लीग का दामन थाम लिया जिसे वह नापसंद करते थे। बाद में जिन्ना ने फिरकापरस्ती की सभी सीमाएँ पार कर दीं।
1938 में मुस्लिम लीग के लखनऊ अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण देते हुए जिन्ना ने नेहरू को चुनौती दी थी। उन्होंने कहा था, “नेहरू कहते हैं भारत में दो ही पक्ष हैं—ब्रिटिश और कांग्रेस। लेकिन भारत में चार पक्ष हैं—ब्रिटिश, कांग्रेस, रजवाड़े और मुस्लिम लीग।” जिन्ना ने शायद पहली बार कहा था कि “हिंदू और मुसलमान दो अलग क़ौमें हैं और हिंदू भारत में मुसलमान सुरक्षित नहीं रह सकते।”
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जब तक समान नागरिक संहिता नहीं होगी, तब तक सेकुलरवाद सफल नहीं हो सकता। मोतीलाल नेहरू की “नेहरू रिपोर्ट” में इस दिशा में सोच उभर रही थी, लेकिन जब कांग्रेस की प्रांतीय सरकारें बनीं, तो नेताओं ने मान लिया कि भारत के मुसलमान उनके पीछे चलते रहेंगे।
जब जिन्ना द्वि-राष्ट्रवाद और पाकिस्तान की वकालत कर रहे थे, तब भी गांधी और नेहरू ने इसका खुलकर विरोध नहीं किया। कांग्रेस ने एक भी प्रस्ताव अलगाववाद के खिलाफ पास नहीं किया। अंततः जब गांधी जी ने जिन्ना को प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव रखा, तब बहुत देर हो चुकी थी।
सच्चाई यह है कि जब कांग्रेस ने जीती हुई बाज़ी हार दी और प्रांतीय सरकारों ने इस्तीफा दे दिया, तो अंग्रेजों का कांग्रेस पर से रहा-सहा विश्वास भी उठ गया। जिन्ना का उत्साह और बढ़ गया और 1939 में ‘डेलीवरेन्स डे’ का ऐलान कर दिया, जिसमें भारी खून-खराबा हुआ। अंग्रेजों को जिन्ना का समर्थन चाहिए था और जिन्ना को अंग्रेजों का। मुस्लिम लीग और अंग्रेजों की दूरियाँ घटती गईं और भारत विभाजन की राह साफ़ होती गई।
मोहम्मद अली जिन्ना और जवाहरलाल नेहरू दोनों ही तेज़ दिमाग के नेता थे, जो किसी दूसरे का नेतृत्व स्वीकार नहीं करते थे। जिन्ना के साथ एक और कठिनाई थी—उनके पास समय बहुत कम था। उनके फेफड़ों में टीबी या कैंसर था। वह बहुत जल्दी में थे, बेताब थे। उसी बेताबी में जिन्ना ने अपनी तकरीरों से मुसलमानों में वही उन्माद पैदा कर दिया, जिसका इल्जाम वह गांधी जी पर लगाते थे।
जिन्ना को समझने के लिए उस समय के चश्मदीद पत्रकार दुर्गादास की पुस्तक India from Curzon to Nehru and After और नरेंद्र सिंह सरीला की पुस्तक The Untold Story of India’s Partition सहायक हो सकती हैं। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की India Wins Freedom और पियर एलियट और कॉलिस की Freedom at Midnight भी पढ़ी जा सकती हैं।
हम जिन्ना को सेकुलर नहीं कह सकते, क्योंकि उनके जीवन का अंतिम फैसला सेकुलर नहीं था। पटेल और नेहरू ने गांधी जी की बात नहीं मानी और जिन्ना को संपूर्ण भारत का प्रधानमंत्री नहीं बनाया, अन्यथा आज पूरे भारत की वही दशा होती जो आज पाकिस्तान की है।