भारत अमेरिकी सम्बन्ध व्यावहारिक धरातल पर बनें 

Dr SB MisraDr SB Misra   11 Nov 2016 8:53 PM GMT

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भारत अमेरिकी सम्बन्ध व्यावहारिक धरातल पर बनें भारत-अमेरिकी सम्बन्ध व्यावहारिक धरातल पर बनें। फोटो साभार: एपी

डोनाल्ड ट्रंप संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति बन गए हैं। इससे पहले अमेरिका में चुनाव प्रचार के दौरान जिस तरह ट्रंप ने अपने भाषणों में मोदी और भारत की तारीफ की है उससे उम्मीद है कि आने वाले दिनों में भारत-अमेरिका के रिश्ते और मजबूत होंगे

आजादी के बाद नेहरू का रुझान सोवियत रूस की तरफ़ होने के कारण भारत-अमेरिका सम्बन्ध बिगड़ते गए। सबसे खराब सम्बन्ध तब थे जब 1971 में इन्दिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं और निक्सन अमेरिका के प्रेसिडेन्ट थे। पाकिस्तान ने भारत विरोध से ग्रसित होकर चतुराई से अमेरिका का साथ पकड़ लिया था और बाद में चीन का भी।

अमेरिका में भारत के विचारों का सम्मान होता रहा था। स्वामी विवेकानन्द का 1893 का विश्वधर्म संसद में शिकागो भाषण हो या महात्मा गांधी का मार्टिन लूथर किंग पर प्रभाव। आजादी के पहले भी 1930 के दशक में कितने ही भारतीय अमेरिका जाकर आजादी की अलख जगाते रहे और प्रेसिडेन्ट रूज़वेल्ट ने चर्चिल से कहा भी था कि भारत को आजाद कर दो लेकिन चर्चिल नहीं माने अन्ततः 1947 में जब देश आजाद हुआ तब तक भारत-अमेरिकी रिश्ते अच्छे थे । जब 1949 में जवाहर लाल नेहरू ने प्रधानमंत्री के रूप में अमेरिका का दौरा किया उसके बाद से हालात बिगड़ने लगे ।

पचास के दशक में जब द्विपक्षीय संसार था और सोवियत रूस और अमेरिका में शीतयुद्ध का समय था तो चीन और रूस एक साथ थे और अमेरिका चाहता था कि भारत प्रजातांत्रिक देशों के साथ रहे। जवाहर लाल लेहरू का रुझान सोवियत रूस की तरफ था और उनके सामने किसी की नहीं चली । भारत ने गुटनिरपेक्ष देशों का समूह बनाया जिसमें थे मिस्र देश के अब्दुल गमाल नासिर, यूगोस्लाविया के मार्शल टीटो, घाना के क्वामे नक्रूमा, इन्डोनेशिया के सुकर्णो और बाद में यह बहुत बड़ा गुट बन गया था लेकिन यह प्रजातांत्रिक देशों का समूह नहीं था और इस गुट के पास न शक्ति थी और न पैसा।

अमेरिका अपने पक्ष में भारत को इसलिए चाहता था कि प्रजातंत्र का सफल मॉडल उसके साथ रहे अन्यथा गरीब देश साम्यवादी खेमे में चले जाएंगे। सोवियत रूस के बिखरने के बाद अब संसार एक पक्षीय हो गया है, खेमे नहीं हैं लेकिन यदि फिर से रूस और चीन एक साथ आ गए तो बड़ा खेमा बन जाएगा। भारत को अमेरिकी मित्रता के साथ ही अपने पुराने मित्र रूस को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। अनेक बार संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत के पक्ष में सोवियत रूस ने वीटो का प्रयोग किया, आयुध बेचे और साथ में ‘‘नो हाव” यानी टेक्नोलॉजी भी दिया जो अमेरिका नहीं करता है। बदली परिस्थितियों में देश के पूंजीपतियों का अपना एजेंडा रहेगा और वामपंथियों का अपना। जिस तरह अमेरिका अपने देशहित को ही सर्वोपरि मानता है, भारत को भी वही करना होगा और मोदी इसी दिशा में चल भी रहे हैं।

पाकिस्तान ने पचास के दशक में मौके का फायदा उठाकर अमेरिका का साथ पकड़ा तो था और बाद में जब चीन और रूस अलग हो गए और चीन ने निक्सन के कारण अमेरिका से सम्बन्ध और व्यापार बढ़ाया तो पाकिस्तान भी चीन के साथ चला गया। अमेरिका हो या चीन दोनों ने ही पाकिस्तान को स्वावलम्बी नहीं बनने दिया और पाकिस्तान अपनी चतुराई के कारण आज इस दशा में है। मोदी ने सूझ-बूझ के साथ दुनिया को पाकिस्तान की असलियत बता दी है।

ट्रंप ने भाषण में भारत की चर्चा की है उससे लगता है कि अमेरिका को एक बार फिर भारत की जरूरत है जैसे नेहरू के समय में थी लेकिन नेहरू ने निकटता को जरूरी नहीं समझा और अवसर चला गया था। अब अन्तर यह है कि ‘‘हिन्दी चीनी भाई भाई” का नारा बुलन्द करने वाला कोई नहीं है और मोदी एक व्यावहारिक नेतृत्व प्रदान कर रहे हैं। बेहतर भविष्य की आशा करनी चाहिए।

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