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कृषि कानूनों के खिलाफ मोर्चा: नए मोड़ पर खड़ा है भारत का किसान आंदोलन

देश के 86 फीसदी छोटे और सीमांत किसानों की स्थिति ऐसी नहीं है कि वे अपनी फसल को कही बाहर जाकर बेच सकें। इस नाते रणनीतियां उनको केंद्र में रख कर बनानी थी लेकिन सरकार उस दिशा में कोई ठोस काम नहीं कर सकी। इसी नाते यह किसान आंदोलन पसर रहा है और आने वाले समय में इसका दायरा कहां से कहां तक पहुंच जाएगा कुछ कह नहीं सकते।
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साल 1988 और 1989 के दौरान दिल्ली, मेरठ और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में चले विशाल किसान आंदोलन ने जिस तरह केंद्र की राजीव गांधी सरकार को हिला दिया था, करीब वैसी ही स्थिति पंजाब के किसानों ने मोदी सरकार की बना दी है।

फर्क केवल इतना है कि इस आंदोलन में महेंद्र सिंह टिकैत जैसा बड़ा चेहरा नहीं है, लेकिन कई चेहरे और सामूहिक ताकत इस आंदोलन को बिल्कुल नया आयाम दे रही है। इसका केंद्र आम किसान हैं। इनके मुद्दे, संगठन और अनुशासन की ही देन है कि देश के हर हिस्से से किसान संगठन या तो दिल्ली की ओर कूच कर रहे हैं या फिर इस आंदोलन के पक्ष में खड़े हो रहे हैं।

पहली बार मोदी सरकार किसान आंदोलन को लेकर बेचैन नजर आ रही है। इस आंदोलन के खिलाफ सत्ता समर्थकों की ओर से आरंभ में जैसे अनर्गल आरोप प्रत्यारोप लगाए जा रहे थे और दुष्प्रचार किया जा रहा था, उसे अब बंद कर दिया गया है।

केंद्रीय गृह मंत्री से लेकर कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर सार्वजनिक तौर पर मान रहे हैं कि यह किसानों का आंदोलन है। उनको मनाने के लिए सरकार संवाद के रास्ते पर उतरी है और वार्ताओं का दौर जारी है, लेकिन इसके पहले जो आंदोलन चले उनकी बातों को अनसुना किया गया।

केंद्रीय कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली की ओर कूच करते पंजाब के किसान। फोटो : गाँव कनेक्शन 

मौजूदा तस्वीर के साथ 1988-89 का दौर भी मैंने बहुत करीब से देखा था। दोनों की पृष्ठभूमि करीब एक सी ही थी। उस दौर में सरकार की किसानों के प्रति उदासीनता और दंभ को किसानों ने चौधरी टिकैत के नेतृत्व में चकनाचूर कर दिया था। तब भारत की किसान राजनीति मे चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत धूमकेतु की तरह उभरे थे।

जाड़े के दिनों में 27 जनवरी 1988 को मेरठ कमिश्नरी का किसानों ने उनके नेतृत्व में जिस तरह घेराव हुआ वह 25 दिनों तक चला। लाखों किसानों ने जबरदस्त संगठन और अनुशासन की बदौलत टिकैत को महात्मा टिकैत बना दिया था। इसी के बाद देश के तमाम किसान संगठनों की समन्वय समिति बनी और राष्ट्रीय स्तर पर एक स्वरूप भी।

उसके बाद दिल्ली में 25 से 31 अक्तूबर तक बोट क्लब पर किसानों का जो सैलाब उमड़ा उसकी ख्याति सात समंदर पार तक गयी। दो अक्तूबर 1989 के दौरान बोट क्लब पर किसानों की विशाल रैली में देश के सभी हिस्सों के किसान शामिल हुए।

किसान जागरण के उस अनूठे दौर में कई अहम सवालों पर भारत सरकार, उत्तर प्रदेश सरकार और कई राज्यों को गौर करना पड़ा और किसानों की मांगें माननी पड़ी थीं। यह आंदोलन राजीव सरकार की विदाई की भूमिका भी तय कर दिया।

इस बार आंदोलन की शुरुआत पंजाब और हरियाणा के किसानों ने की। इन दोनों प्रांत के किसान अन्य राज्यों की तुलना में बेहतर औऱ संपन्न माने जाते हैं। ताजा कृषि कानूनों का असर सबसे अधिक उन पर ही पड़ना था इस नाते उनकी तरफ से पहले अध्यादेश औऱ फिर विधेयकों का विरोध आरंभ हुआ। लेकिन उस समय सरकार को इस बात का अंदाजा नहीं था कि यह अखिल भारतीय स्वरूप में आ जाएगा। पंजाब और हरियाणा के किसानों ने तीन कृषि कानूनों की वापसी को लेकर जो एकता और आपसी समझदारी दिखायी है, उससे इसका दायरा विस्तृत होता जा रहा है। 

किसान आंदोलन के दौरान बैरीकेडिंग पर लगा भारतीय किसान यूनियन का एक पोस्टर। फोटो : गाँव कनेक्शन 

यह संयोग ही है कि बीते 17 अक्तूबर को देश के सबसे पुराने किसान संगठन अवध किसान सभा का 100 साल पूरा हुआ है। यह भारत का सबसे पुराने किसान संगठनों में माना जाता है जिसकी स्थापना बैठक में खुद पंडित जवाहर लाल नेहरू शामिल हुए थे और इस आंदोलन की आभा से आजीवन आलोकित रहे। अवध किसान सभा को बाबा रामचंद्र की छवि तथा सहदेव सिंह और झींगुरी सिंह की संगठन क्षमता ने अनूठी ताकत दी थी। इस किसान आंदोलन ने तब अंग्रेजी राज और अवध के ताल्लुकेदारों को हिला दिया था।

एनडीए सरकार की ओर से बीते सालों में किसानों के हित में कई कदम उठाए हैं। किसानों की आय को दोगुना करने से लेकर मृदा स्वास्थ्य कार्ड, फसल बीमा और किसान सम्मान निधि जैसे उपायों का राजनीतिक फायदा भी सरकार को मिला है। लेकिन तीनों कृषि कानून कोरोना संकट के दौरान बिना व्यापक संवाद या विचार विमर्श के जिस तरह से बनाए गए उन्होंने पहले से ही परेशान किसानों के मन में संदेह का बीज और गहराया है।

इन आशंकाओं का निदान संवाद और विधायी उपायों से ही हो सकता है। जो मांग किसान आज कर रहे हैं वही संसद में कई राजनीतिक दलों की ओर से भी उठाया जा चुका है, जिनमें एनडीए सरकार के समर्थक दल भी रहे हैं।

संसद के दोनों सदनों में कृषि विधेयकों पर चर्चा के दौरान विपक्ष चाहता था कि इनको स्थायी समितियों को भेजा जाये और जल्दबाजी में पारित करने से बचा जाये। कुछ सांसद इस मत के भी थे कि व्यापक कृषि सुधार अगर सरकार चाहती है तो उसके लिए राज्यों से उचित संवाद के बिना कोई कदम न उठे।

विधेयक में स्पष्ट तौर पर इस बात का प्रावधान करने की मांग को भी सरकार ने अनसुना किया कि एमएसपी पर खरीद की बाध्यता को इस कानून में जोड़ा जाय़े और मंडियों को बरकरार रखा जाएगा यह वचनबद्धता दी जाये। जमाखोरी को रोकने के लिए भी उचित कानूनी व्यवस्था बनी रहे यह भी सांसद चाहते थे क्योंकि कोरोना महामारी की आड़ में कई कृषि उत्पादों की जमाखोरी करके मुनाफाखोर किसानों और उपभोक्ताओं दोनों को प्रभावित कर सकते थे, लेकिन सरकार ने इसमें से किसी भी मसले का समाधान नहीं किया। 

सिंधु बॉर्डर पर किसानों को रोकने के लिए सुरक्षा बलों ने किसानों को आंसू गैस के गोले भी दागे। फोटो : गाँव कनेक्शन 

उलटे आक्रामक होकर विपक्षी दलों को बिचौलियों का प्रतिनिधि बना कर पेश करने के लिए बाकायदा अभियान चलाया गया। बाद में किसानों ने आंदोलन किया और पंजाब और राजस्थान से सीमित विधायी उपाय के साथ विधान सभाओं में केंद्र के खिलाफ स्वर मुखरित हुए।

किसान संगठनो ने विरोध के लिए दिल्ली कूच किया तो रास्ते में उनकी राह में बाधाओं को डालने का पहला बड़ा काम हरियाणा सरकार ने किया। फिर दिल्ली की राह और दिल्ली घुसने के दौरान जो कुछ घटा वह सब कुछ सार्वजनिक है। सरकार ने बाद में किसानों के आगे झुक कर तय किया कि उनको बुराड़ी में संत निरंकारी ग्राउंड पर भेजा जाये लेकिन उसके लिए किसान तैयार नहीं हुए क्योंकि वह अलग थलग इलाके की अस्थाई जेल जैसी होती।

किसान रामलीला मैदान औऱ जंतर मंतर की मांग कर रहे थे। इस सारी प्रक्रिया में आंदोलन का दायरा मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, राजस्थान, गुजरात, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और महाराष्ट्र समेत कई इलाकों तक पसर गया है।

आज न तो साठ के दशक के किसान नहीं है। उनकी नयी पीढ़ी पढ़ी लिखी औऱ शिक्षित है और अपना हित अनहित जानती है। ऐसा नहीं है कि हाल के सालों में केवल पंजाब आंदोलित रहा है। बीते सालों में महाराष्ट्र से लेकर मध्य प्रदेश तक में जो किसानों के आंदोलन चले उसके केंद्र में कर्ज माफी और न्यूनतम समर्थन मूल्य जैसी मांगें रही हैं।

तमिलनाडु के किसानों ने जंतर-मंतर पर अनूठी शक्ति से सरकार को हिला कर रख दिया था। अहमदनगर और नासिक के किसानों ने अनूठा आंदोलन शुरू किया। तमाम जगहों पर हजारों लीटर दूध और सब्जी सड़कों पर फेंक कर विरोध जताया।

मध्य प्रदेश में मंदसौर में हुए गोलीकांड के बाद देश के कई हिस्सों में आंदोलन भड़का और उनके समर्थन में राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली और उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों के किसान आए। 

किसानों को जहाँ रोका गया, उसी जगह सड़क पर बैठकर सरकार के कृषि कानूनों का जताया विरोध। फोटो : गाँव कनेक्शन  

इसी के बाद दिल्ली में अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति का गठन हुआ। इसमें पांच सूत्री कार्यक्रम तय किया गया जिसका पहला बिंदु था एमएसपी को लाभकारी बनाना। हर किसान को सरकार से घोषित एमएसपी का लाभ देने, एमएसपी पर खरीद के लिए राज्य वार कोटा न तय करने, चीनी मिलों पर गन्ने की कटाई और ढुलाई का खर्च वहन करने, गन्ने के भुगतान में देरी पर दंडात्मक ब्याज के प्रावधान के साथ बुजुर्ग किसानों को पेंशन देकर सामाजिक सुरक्षा के दायरे में लाने जैसी बातें शामिल थीं।

हाल के सालों में किसानों को एक बड़ी राहत यूपीए शासन के दौरान 2008-09 में मिली 72,000 करोड़ रुपए की कर्जमाफी थी। इस समय कृषि जोतों के हिसाब से 14 करोड़ 65 लाख किसानों में से करीब 11 करोड़ किसानों को सालाना छह हजार रुपए किसान सम्मान निधि मिल रही है। लेकिन खाद बीज और कीटनाशक दवाओं और ट्रैक्टर पर जीएसटी और पेट्रोल और डीजल के दामों के बढ़ने ने किसानों की लागत बढ़ा दी है।

बीते छह सालों में अगर गौर करें तो दक्षिण भारत में आंध्र प्रदेश में किसानों के 40 हजार करोड़ के कर्ज माफ हुए और तेलंगाना में भी करीब 20 हजार करोड़ की कर्ज माफी हुई और कर्नाटक सरकार ने भी ऐसा किया। उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के साथ महाराष्ट्र ने भी इस दिशा में कदम आगे बढ़ाया। लेकिन बात महज एक बार की कर्जमाफी से संभलने वाली नही है। आज खेती बाड़ी के कई संकट है।

केवल कृषि पर आधारित परिवार गांव में संकट में हैं क्योंकि उन पर कई तरह के दबाव हैं। गांवों में प्रति व्यक्ति भूमि स्वामित्व में लगातार कमी आती जा रही है। छोटे-छोटे खेतों की उत्पादकता कम है और घाटे की खेती करना लाखों छोटे किसानों की नियति बन गयी है। किसान सम्मान निधि के बाद भी वे समय पर बीज खाद आदि हासिल करने की स्थिति में नहीं होते। खेती की लागत लगातार बढ़ रही है और पंजाब जैसे राज्य में उपज स्थिर हो गयी है।

भारत सरकार ने जो कृषि मूल्य नीति 1985-86 बनायी थी, उसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद को संवैधानिक जिम्मेदारी माना गया। लेकिन बात सीमित दायरे में गेहूं और धान से आगे नाममात्र की बढ़ सकी है। एमएसपी से किसानों को कुछ गारंटी मिली लेकिन जो फसलें इसके दायरे में नहीं वे सबसे अधिक अनिश्चितता की शिकार है। देश के उन 86 फीसदी किसानों के सामने सबसे अधिक संकट है जिनकी पहुंच मंडियों तक है ही नहीं न ही एमएसपी तक।

लेकिन इस तस्वीर के बावजूद कम औसत उत्पादकता के बाद भी चीन के बाद भारत सबसे बड़ा फल औऱ सब्जी उत्पादक बन गया है। चीन और अमेरिका के बाद यह सबसे बड़ा खाद्यान्न उत्पादक देश हो गया है। लेकिन किसान संगठनों की लंबे समय से चली आ रही इस मांग की सभी दलों ने अनसुनी की कि 1969 को आधार वर्ष मानते हुए फसलों का दाम तय हो।

इस आन्दोलन में सिर्फ किसान ही नहीं, बल्कि बड़ी संख्या में महिलाएं भी हुईं शामिल। फोटो : गाँव कनेक्शन 

राजीव गांधी के प्रधानमंत्री काल में नयी कृषि मूल्य नीति मूल्य नीति बनी। बाद में 1990 में वीपी सिंह सरकार ने सीएच हनुमंतप्पा कमेटी बनायी। यूपीए सरकार ने स्वामीनाथन की अध्य़क्षता वाले राष्ट्रीय किसान आयोग बनाया लेकिन अहम सिफारिशें जिस भाव से की गयी थीं वे जमीन पर उस रूप में नहीं उतरीं।

कृषि लागत और मूल्य आयोग की सिफारिश पर भारत सरकार रबी और खरीफ की जिन दो दर्जन फसलों की एमएसपी घोषित करती है, उनके बारे में सरकारी दावा यह है कि इसके तहत कवर की गयी फसलों का योगदान करीब साठ फीसदी है। शेष 40 फीसदी फसलों में दूसरे जिंस और बागवानी उत्पादन हैं, उनको कोई पूछने वाला नही है।

जब एमएसपी की फसलें बदहाल हैं तो जो इसके दायरे से बाहर हैं उनकी दशा समझी जा सकती है। सिंचित और असिंचित इलाकों के किसानो के संकट अलग अलग हैं। आज भी हमारा करीब साठ फीसदी इलाका मानसून पर निर्भर है। लेकिन यह कुल खाद्य उत्पादन में 40 फीसदी योगदान दे रहा है। इसी इलाके में 88 फीसदी मोटा अनाज, 87 फीसदी दलहन, 48 फीसदी चावल और 28 फीसदी कपास पैदा हो रहा है। लेकिन एमएसपी पर सबसे कम खरीद इसी इलाके के किसानों से हो रही है और असली सब्सिडी भी सिंचित इलाकों को ही मिल रही है। तभी गैर सिंचित इलाकों में किसानों की आत्महत्याएं रुक नहीं पायी हैं न वे घाटे की खेती से उबर पा रहे हैं।

सत्ता पक्ष की ओर से इन विधेयकों को लेकर काफी व्यापक प्रचार अभियान चलाया गया। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर गृह मंत्री अमित शाह, कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ही नहीं, सारे भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री और सांसदों विधायकों को इसके पक्ष में बोलने को कहा गया। लेकिन ये किसानों को समझा नहीं सके। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई बार इस बात को दोहराया। सरकार ने एक देश एक बाजार के नाम पर भी जोरदार अभियान चलाया। लेकिन एक देश एक बाजार बनना क्या इतना सरल काम है।

फलों, कई दिनों तक टिकने वाली सब्जियों और अन्न को छोड़ दें तो अधिकतर जल्दी खराब होने वाले उत्पादों की खपत स्थानीय बाजारो और आसपास के जिलों तक सीमित है। देश के 86 फीसदी छोटे और सीमांत किसानों की स्थिति ऐसी नहीं है कि वे अपनी फसल को कही बाहर जाकर बेच सकें। इस नाते रणनीतियां उनको केंद्र में रख कर बनानी थी लेकिन सरकार उस दिशा में कोई ठोस काम नहीं कर सकी। इसी नाते यह आंदोलन पसर रहा है और आने वाले समय में इसका दायरा कहां से कहां तक पहुंच जाएगा कुछ कह नहीं सकते।

(लेखक देश के वरिष्ठ पत्रकार और ग्रामीण मामलों के जानकार हैं। खेत-खलिहान गांव कनेक्शन में आप का नियमित कॉलम है।) 

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