उच्चतम न्यायालय का फैसला आया है कि लालकृष्ण आडवाणी और बाकी 12 लोगों पर आपराधिक षड्यंत्र का मुकदमा चलता रहेगा। उमा भारती का कहना कि कोई षड्यंत्र नहीं था, जो कुछ हुआ खुल्लम खुल्ला हुआ, बाकी भी यही कहेंगे। सारे देश ने आडवाणी की रथयात्रा देखी थी, भाषण सुने थे और सभी योजनाएं व कार्यक्रम मीडिया में आते रहते थे कि राम जन्मभूमि पर निर्धारित तिथि पर कब्जा करना है पूजा-अर्चना के लिए, इसमें गुपचुप कुछ नहीं था।
आश्चर्य इस बात का है कि अदालत 68 साल में दीवानी का एक मुकदमा नहीं हल कर पाई। आखिर यह आस्था का विषय हिन्दुओं के लिए हो सकता है लेकिन मुसलमानों के लिए तो यह दीवानी प्रकरण है भले ही बाबर इसमें पक्षकार नहीं है, रामलला हैं। दिमागी उलझाव की बात यह है कि यदि फैसला सम्भव ही नहीं था तो मुकदमा ऐडमिट ही नहीं होना चाहिए था। यदि ऐडमिट हुआ तो कुछ न कुछ फैसला सुनाना चाहिए था।
अदालत में बहस के जो भी विषय हों, बाबर ने राम की अयोध्या पर जबरिया कब्जा किया था इसमें किसी को सन्देह नहीं होगा। बाबर के उत्तराधिकारियों से राम की सन्तानों ने कब्जा बहाल करने का खुलेआम आन्दोलन छेड़ा इसमें षड्यंत्र तो नहीं लगता। सोचिए यदि कोई बलवान पड़ोसी मेरे खेत, खलिहान और मकान पर जबरिया कब्जा कर ले और हमारी सन्तानें उस कब्जे को बहाल करने का संघर्ष छेड़े तो क्या यह षड्यंत्र कहा जाएगा? जब 2001 में इन्हीं 13 लोगों को षड्यंत्र के चार्ज से मुक्त किया गया था तो क्या इस बीच कुछ नए तथ्य सामने आए हैं।
मौजूदा प्रकरण की शुरुआत 1949 में तब हुई जब वहां के जिलाधिकारी कृष्ण करुणाकर नैयर थे। आज से 60 साल पहले बस्ती के मेरे मित्र नागेन्द्र प्रसाद मिश्रा ने बताया था कि कुछ रामभक्त नैयर के पास फरियाद लेकर गए थे। फरियादियों का कहना था कि भगवान राम के जन्मस्थान पर हम पूजा अर्चना नहीं कर पा रहे हैं। जिलाधिकारी ने कहा था, ‘तुम्हें रोका किसने है?’ बस उन्हें संकेत मिल गया था और एक दिन आधी रात को घंटा घड़ियाल और शंख बजने लगे और सुनाई पड़ा ‘भय प्रकट कृपाला दीन दयाला, कौशल्या हितकारी।’ मामला अदालत में गया और यथास्थिति बरकरार कर दी गई। जो भक्त अन्दर थे वे ही कीर्तन भजन करते रहे, लेकिन अन्य कोई नहीं आ जा सकता था।
आश्चर्य की बात यह नहीं कि हमलावर बाबर ने राम की अयोध्या पर जबरिया कब्जा किया था और आश्चर्य इस बात पर भी नहीं कि रामभक्तों ने मस्जिद में रामलला को बिठाकर कीर्तन आरम्भ किया था। आश्चर्य इस बात का है कि अदालत 68 साल में दीवानी का एक मुकदमा नहीं हल कर पाई। आखिर यह आस्था का विषय हिन्दुओं के लिए हो सकता है लेकिन मुसलमानों के लिए तो यह दीवानी प्रकरण है भले ही बाबर इसमें पक्षकार नहीं है, रामलला हैं। दिमागी उलझाव की बात यह है कि यदि फैसला सम्भव ही नहीं था तो मुकदमा ऐडमिट ही नहीं होना चाहिए था। यदि ऐडमिट हुआ तो कुछ न कुछ फैसला सुनाना चाहिए था।
दोनों पक्षों को अदालत पर विश्वास है और वे अदालत की तरफ नजरें गड़ाए हैं कि फैसला आएगा और हम मान लेंगे, ऐसा कहते तो हैं। इतने साल तक फैसला न आने के लिए सेकुलर सरकारें, सेकुलर नेता और कुछ निहित स्वार्थी लोग जिम्मेदार हैं। अदालतें तो पैरवी करने वालों, साक्ष्यों और सबूतों पर निर्भर हैं। कहना कठिन है कि यदि इसी गति से मुकदमा चलता रहा तो निर्णय कब आएगा लेकिन जितनी देर होती रहेगी समाज में अशान्ति और असहज भाव बना रहेगा जो किसी देश के लिए ठीक नहीं। आशा की जानी चाहिए कि अनिश्चित समय नहीं लगेगा।