खाद्य सामग्री के लिए शर्तें लगाना एक कल्याणकारी राज्य की पहचान नहीं है। हाल ही में केंद्र सरकार ने एक अधिसूचना जारी करके मध्यान्ह भोजन योजना के तहत लाभार्थियों के लिए आधार नंबर को अनिवार्य कर दिया। इसका काफी विरोध भी हो रहा है। इस निर्णय को अजीब इसलिए भी बताया जा रहा है क्योंकि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत कई राज्यों में आधार अनिवार्य किए जाने से होने वाली परेशानियां अभी खत्म नहीं हुर्ह हैं।
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गुजरात, झारखंड और आंध्र प्रदेश समेत कई राज्यों से ऐसी जानकारियां आ रही हैं जिनसे यह पता चल रहा है कि वाजिब लाभार्थी वंचित रह जा रहे हैं। क्योंकि आधार आधारित काम के लिए बुनियादी ढांचा बहुत लचर है। इससे सरकार को यह पता चल गया है कि इससे भ्रष्टाचार और अक्षम आपूर्ति तंत्र की कमियों को तो दूर नहीं किया जा सकता बल्कि जरूरतमंदों को योजना के लाभ से वंचित जरूर किया जा सकता है।
पिछले कुछ हफ्तों में कई मंत्रालयों ने 30 से अधिक योजनाओं में आधार को अनिवार्य बनाने से संबंधित अधिसूचनाएं जारी की हैं। इनमें रोजगार गारंटी योजना, कर्मचारी भविष्य निधि, पेंशन, छात्रवृत्ति की योजनाओं के अलावा 1984 के भोपाल गैस लीक कांड के प्रभावितों को दिया जाने वाला मुआवजा भी शामिल है। सरकार की योजना यह है कि प्रत्यक्ष हस्तांतरण वाली 84 योजनाओं में आधार को अनिवार्य बना दिया जाए।
हालांकि, सरकार इस बात से इनकार करती है लेकिन ये अधिसूचनाएं सर्वोच्च न्यायालय के कई आदेशों का उल्लंघन हैं जिनमें कहा गया है कि आधार अनिवार्य नहीं बनाया जा सकता। अब भी यह मामला विचाराधीन है। सरकार ने सिर्फ यह बयान जारी करके पल्ला झाड़ लिया कि जब तक आधार नंबर किसी व्यक्ति को जारी नहीं हो जाता तब तक उसे पहचान के वैकल्पिक साधनों के आधार पर लाभ मिलता रहेगा। हालिया नियमों के तहत लाभार्थियों को उनके पास आधार नंबर नहीं होने की स्थिति में आधार आवेदन का सबूत देना होगा। इसके आधार पर और इन सबूतों को जमा करने के लिए दी गई कठिन समय सीमा के आधार पर कहा जा सकता है कि आधार को अनिवार्य बना दिया गया है।
सरकार आधार को जादू की छड़ी मान रही है। उसे लगता है कि इससे भ्रष्टाचार, लीकेज और अन्य समस्याओं का समाधान हो जाएगा। वह यह नहीं बता रही है कि इसके तहत वह बहुत जानकारियां एकत्रित कर रही है। आधार पर पहली बार विचार भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार ने कारगिल युद्ध के बाद किया था। इसे सुरक्षा व निगरानी से जुड़ी परियोजना बताया गया था। मौजूदा आधार उससे अलग नहीं है। सरकार ने निजता और बायोमेट्रिक डाटा की सुरक्षा से संबंधित कई कानून बनाए आधार कानून को मनी बिल के तौर पर पारित करा लिया।
आम लोगों के लिए सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि वे आधार के तहत जो जानकारियां दे रहे हैं, उन तक किसकी-किसकी पहुंच रहेगी। आधार आवेदन करते वक्त सहमति मांगी जाती है। इसमें लिखा गया है, ‘मुझे इस बात में कोई आपत्ति नहीं है कि यूआईडीएआई जन सेवा और कल्याणकारी कार्य में लगी एजेंसियों के साथ मेरे द्वारा दी गई जानकारियों को बांटे।’ इसमें इस्तेमाल किए गए शब्दों को परिभाषित नहीं किया गया है। जबकि आवेदन केंद्रों पर जो लोग होते हैं, वे कहते हैं कि सहमति दे दीजिए ताकि आगे कोई दिक्कत न हो। सरकार ने इस बात को प्रचारित नहीं किया कि बायोमेट्रिक डाटा को लॉक करने की सुविधा भी है। यह यूआईडीएआई वेबसाइट पर ओटीपी के जरिए किया जा सकता है। लेकिन इस सुविधा का लाभ वे लोग नहीं ले सकते जिनके पास इंटरनेट और मोबाइल नहीं है।
इस मामले में आधार कानून भी खामोश दिखता है। इसकी धारा 57 में कहा गया है, ‘इस कानून का कोई भी प्रावधान पहचान स्थापित करने के लिए आधार के इस्तेमाल को प्रतिबंधित नहीं करता, जब यह काम उस समय के कानून के हिसाब से सरकार, किसी कंपनी या व्यक्ति द्वारा किया जाए।’ इस तरह के कानून से गैर सरकारी पक्षों को आधार डाटा इस्तेमाल करने की सुविधा मिलती है। यूआईडीआईए ने हाल ही में अनाधिकारिक तरीके से आधार डाटा के इस्तेमाल से 24 कंपनियों को रोका है। भ्रम बढ़ाने का काम बायोमेट्रिक सूचनाओं की अस्पष्ट परिभाषा भी है। इसके अलावा सर्वोच्च न्यायालय के फैसले भी भ्रम बढ़ा रहे हैं। एक तरफ तो अदालत कहती है कि आधार अनिवार्य नहीं है। वहीं दूसरी तरफ यह कहती है कि सभी मोबाइल सिम को आधार से जोड़ा जाए। इन सबसे कई तरह के सवाल खड़े होते हैं।
आधार के प्रचार में सरकार एक वैसी निजी कंपनी की तरह व्यवहार कर रही है जो खुद द्वारा दी जा रही सेवाएं के एवज में हमारी सूचनाएं अपने पास एकत्रित करना चाह रही हो ताकि हमारी निगरानी की जा सके। साफ है कि जो सरकार अपने नागरिकों से पारदर्शिता चाहती है, वह खुद पारदर्शी होने की कोशिश करती भी नहीं दिख रही है।
(यह लेख इकॉनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली से लिया गया है)
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