हिंदी क्षेत्र के तीन राज्यों में कांग्रेस के जीतने की प्रमुख वजहों में एंटी-इंकम्बेंसी के साथ किसानों की कर्जमाफी का लोक-लुभावन नारा भी है। चुनाव जीतने के बाद तीनों राज्यों में किसानों की कर्जमाफी की घोषणा हो गई है। जनता, पत्रकार और नेता हतप्रभ हैं कांग्रेस सरकारों के इस कदम से। कुछ आलोचना कर रहे हैं तो कुछ प्रशंसा। जिस समय कर्जमाफी की घोषणाएं हो रही थीं, उसी समय रघुराम राजन सहित कई अर्थशास्त्रियों की एक रिपोर्ट और बयान आया है, जिसमें किसानों की कर्जमाफी से असहमति जताते हुए चुनाव आयोग से यह मांग की है कि किसानों की कर्जमाफी के चुनावी वादे से पार्टियों को रोकें। ऐसे में किसानों की कर्जमाफी के मसले की पड़ताल जरूरी है।
भारत की आत्मा गांवों में बसती है, भारत कृषि प्रधान देश है- आदि नारे अब भारत की सार्वजनिक दुनिया में उतने नहीं चलते लेकिन यह सच है कि आज भी देश की आधी आबादी कृषि पर आश्रित है। किसानों की आत्महत्या पर खबरें और फिल्में बनती हैं लेकिन किसानों को लेकर किसी भी सरकार की कोई खास नीति नहीं है। इसका सबसे बड़ा कारण किसाना मुद्दों से बुद्धिजीवियों, मीडियाकर्मियों, शहरी मध्यवर्ग और राजनेताओं का अपरिचय है जो सब मिलकर समाज और राजनीति के मुद्दे निर्मित करते हैं. किसानों की सतत समस्याओं से अपरिचय होने पर भी किसान सवाल को संबोधित करना राजनीति की मजबूरी है क्योंकि देश के आधे से अधिक वोटर किसान परिवारों से संबंधित हैं। चुनाव जीतने के लिए किसानों का तुष्टीकरण पार्टियों के लिए एक अहम एजेंडा बन गया है।
गंगा सहाय मीणा (आदिवासी व किसान मामलों के जानकार)
राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ से पहले उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब और कर्नाटक विधानसभा चुनावों के वक्त भी किसानों की कर्जमाफी के वादे किये गए जिन्हें आंशिक रूप से पूरा भी किया गया। जाहिर है इन वादों को निभाने में राज्य सरकारों के हजारों करोड़ खर्च होते हैं. सवाल यह है कि इससे किसान के जीवन में क्या कोई बदलाव आता है? सवाल यह भी है कि किसानों की वास्तविक समस्याएं क्या हैं और उन्हें कैसे सुलझाया जाय?
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देश के ज्यादातर हिस्सों के किसान परंपरागत ढंग से खेती करते हैं। जहां पर जलस्तर नीचे चला गया है और सिंचाई के पर्याप्त साधन नहीं हैं, वहां खेती एकदम घाटे का सौदा है। उदाहरणतः राजस्थान के 10 बीघा जमीन के मालिक एक आम किसान की वार्षिक लागत 50 हजार से ऊपर ठहरती है इसमें खाद, बीज, जुताई, बुवाई, निराई, सिंचाई, लावणी, थ्रेसर आदि का खर्च शामिल है। इसमें अगर किसानी के काम में फुल टाइम लगे परिवार के औसतन तीन सदस्यों की न्यूनतम मजदूरी जोड़ें तो सालभर की कुल लागत लगभग चार लाख रुपए हो जाएगी। किसान मुख्यतः खरीफ की फसल के रूप में ज्वार, बाजरा, मक्का, तिलहन, मूंगफली आदि उपजाता है और रबी की फसल के रूप में सरसों, चना, गेहूं, जौ आदि। कुछ किसान प्रयोग के तौर पर फलों व सब्जियों की खेती/बाड़ी भी करते हैं। किसान चाहे जो फसल उपजा ले, मंडी से अपनी फसल की कीमत अधिक से अधिक 50-60 हजार ही मिलती है। अच्छा संवत हुआ तो यह राशि एक-सवा लाख तक पहुंचती है. अतिवृष्टि, अनावृष्टि और ओलावृष्टि से यह दस-बीस हजार तक भी रह जाती है।
ऐसे में छोटे किसान बैंकों और सहकारी समितियों से लोन लेते हैं। लोन की प्रक्रिया अत्यंत जटिल होती है, जिसकी वजह से बहुत छोटे और सीधे किसानों को इसका लाभ नहीं मिल पाता। जागरुक और तेज-तर्रार किसान लोन लेने में सफल होते हैं। किसानों पर बात करते वक्त हमें किसानों के बीच के वैविध्य को ध्यान में रखना होगा। जाहिर है लोन की दरें कम होने से कुछ किसानों को मदद मिलती है और वे महंगे चक्रवृद्धि दरों वाले साहूकारों के चंगुल से एक हद तक बच जाते हैं। हालांकि बच्चों को पढ़ाने के लिए और बेटियों की शादी के लिए तो उन्हें दो रुपया सैंकड़ा (24 प्रतिशत चक्रवृद्धि दर) पर पैसा लेना ही पड़ता है।
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पिछले दिनों केन्द्र सरकार ने एक योजना शुरू की- प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना। योजना का आवरण बहुत सुंदर है, लेकिन इसके क्रियान्वयन में भारी समस्याएं हैं। कृषि मामलों के विशेषज्ञ माने जाने वाले मशहूर पत्रकार पी. साईनाथ ने फसल बीमा योजना को सबसे बड़ा भ्रष्टाचार कहा है। उनका तर्क है कि एक तो फसल बीमा के क्षेत्र में जिलेवार कंपनी विशेष का आधिपत्य है, किसानों के पास कोई विकल्प नहीं है. दूसरा, ये कंपनियां और बैंक किसानों की सहयोगी नहीं हैं जिससे फसल नष्ट होने की सूरत में किसान को समुचित मुआवजा मिलना लगभग असंभव है। जबकि फसल बीमा के प्रीमियम से इन बीमा कंपनियों की बल्ले-बल्ले है।
किसानों की आय बढ़ाने के लिए अक्सर सरकारें न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने की बात करती हैं, लेकिन इसके साथ भी कई दिक्कतें हैं। सबसे बड़ी दिक्कत है कि सरकारी एजेंसियां सरकारी खरीद पर किसानों की उपज नहीं खरीदती हैं। इस खरीद के नियम-शर्तें और प्रक्रिया जटिल हैं और क्रियान्वयन समस्याग्रस्त है। दूसरा फसलों के दाम बढ़ने से सरकार को महंगाई का भय सताता है, इसलिए न्यूनतम समर्थन मूल्य में भी कोई खास इजाफा नहीं किया जाता। एक अन्य समस्या भी है जिसकी ओर रघुराम राजन और अन्य अर्थशास्त्रियों ने अपनी रिपोर्ट में ध्यान दिलाया कि कई बार पर्याप्त उत्पादन होने के बावजूद कृषि उपजों का आयात किया जाता है, जिसकी वजह से किसान को अपनी उपज का बाजार में सही दाम नहीं मिल पाता। दरअसल सच्चाई यह है कि बाजार और वितरण तंत्र तक किसान की पहुंच है ही नहीं। नीति-निर्माताओं में भी किसानों का प्रतिशत नगण्य है।
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न्यूनतम समर्थन मूल्य की नीति किसानों की उपज के दाम सही दिलाने की दिशा में कारगर हो सकती है बशर्ते इसमें कुछ बुनियादी सुधार हों। न्यूनतम समर्थन मूल्य फसल तैयार होने से ठीक पहले निर्धारित किया जाय ताकि मौसम आदि के नुकसान व लागत के बारे में एक अंदाजा हो। यह सुनिश्चित किया जाय कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की सुविधा तमाम किसानों को सुलभ हो। न्यूनतम समर्थन मूल्य की प्रक्रिया में अड़चन डालने वाले अधिकारियों, बिचौलियों के लिए दण्ड के सख्त प्रावधान हों। न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करते वक्त क्षेत्रवार, किसानवार विविधता का ध्यान रखा जाए। मसलन जहां पर सिंचाई की आसान सुविधा है और जहां खेती पूरी तरह बर्षा पर आश्रित है या सिंचाई बहुत महंगी है- दोनों जगह खेती की लागत में बहुत अंतर आ जाएगा। फिर बड़े किसानों की तुलना में छोटे किसानों व खेतिहर मजदूरों को ध्यान में रखकर योजनाएं बननी चाहिए।
इन स्थितियों में किसानों के कर्ज माफ करने से निश्चिततौर पर किसान परिवारों को तात्कालिक राहत तो मिलेगी लेकिन उनकी समस्याओं का कोई समाधान नहीं होगा। किसान ऋणों तक बहुत कम किसानों की पहुंच है। किसानों की कर्जामाफी का फायदा मुख्यतः उन्हीं तक पहुंच पाएगा। दूसरे, कुछ किसानों का कर्ज माफ कर सरकार पांच साल तक किसानों को याद नहीं करेगी, फलतः कृषि क्षेत्र में न कोई बेहतर नीतियां बन पाएंगी और न निवेश होगा। किसान संकट में हैं लेकिन केवल लक्षणों का उपचार कारगर नहीं होगा बल्कि लक्षणों के कारणों तक जाना होगा तभी टिकाऊ हल निकल सकेगा।
तमाम सरकारों को चाहिए कि वे नीति-निर्धारण में किसानों की भागीदारी सुनिश्चित करें। खेती-किसानी से संबंधित शोधों को सरकार प्रोत्साहन दे जिससे जमीनी स्तर के अच्छे शोध हो सकें और नीति-निर्धारण के वक्त उनसे इनपुट लिये जा सकें। छोटे किसानों को खाद, बीज, डीजल, बिजली आदि में सब्सिडी दी जाए। कुल मिलाकर किसानों के लिए ऐसी नीतियां बनाएं कि उन्हें ये न लगे कि सरकार ने उन्हें वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करने के लिए पांच साल में याद किया है, बल्कि यह लगे कि यह सरकार, यह तंत्र उनका है।
डॉ. गंगा सहाय मीणा (किसान-आदिवासी मामलों के जानकार)
ये लेखक के निजी विचार हैं।