जंगल में सियार किसी प्रमुख जगह पर मलत्याग कर अपने इलाके को चिन्हित करते हैं। जंगली बिलाव भागते-दौड़ते, गिरे हुए पेड़ों के बीच मल करते हैं। गैँडों का एक किस्म का सामुदायिक शौचालय होता है जहां कई गैंडे एक ही स्थान पर जाकर गोबर करते हैं। घड़ियाल पानी में ही निवृत हो लेते हैं।
करोड़ों भारतीय सियारों की तरह इधर-उधर खुले में शौच करते हैं, कुछ जंगली बिल्लियों की तरह गाड़ियां खड़ी करके सड़क किनारे ही शुरू हो जाते हैं और कुछ गैंड़ों की तरह एक निश्चित स्थान यानि शौचालय का इस्तेमाल करते हैं। पर अफसोस की बात है कि लाखों ऐसे भी हैं जो साफ पानी की झीलों, झरनों, नदियों और नहरों को शौचालयों में बदल रहे हैं।
शौचालय का इस्तेमाल करने की इच्छा ने मुझे उतना आतंकित कभी नहीं किया जितना मैं 2005 में महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों की यात्रा के दौरान हुई थी। तीन दिनों तक मैं उन पीड़ितों के परिवारों से बात करती रही जिन पर तेंदुओं ने हमला किया था। मैंने उनके आतंक, दुख और विकलांगता की कहानियां सुनीं।
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दिन के समय में अगर कोई शौच जाना चाहे तो गन्ना, केले और मक्के के ऊंचे पौधों की पर्याप्त आड़ मिल जाती थी। तेंदुए के हमलों के शिकार भी कुछ ऐसी ही आड़ में बैठे थे जब मौत उन्हें अपने जबड़ों में पकड़ कर ले गई। मैं घबराते हुए इन पौधों की ओट में बैठती लेकिन किसी पत्ती के हिलने पर या हवा की सरसराहट से डर कर खड़ी हो जाती थी। एक बार जब केले के एक अंधेरे बागान में बैठने की कोशिश की तो पास के मंदिर के लाउडस्पीकर से इतना शोर आ रहा था कि अगर मुसीबत आने पर मैं चिल्लाती भी तो शायद किसी को सुनाई नहीं पड़ता। मैं सोच रही थी, दिन की रोशनी में जब आसपास किसी तेंदुए के आने की आशंका न के बराबर थी, मैं इतनी ज्यादा डरी हुई थी, तब उस समय गांव वाले कितनी दहशत में जीते होंगे जब रात के अंधेरे में तेंदुआ बाहर घूमता रहता है।
महाराष्ट्र के चीनी उत्पादन वाले इस इलाके के कई गांव काफी समृद्ध थे। इसके बावजूद, बड़े घरों में भी शौचालय नहीं बने थे। यह मेरे लिए हैरानी की बात नहीं थी। तमिलनाडु में मेरे गांव के सबसे समृद्ध किसान के पास ट्रैक्टर, एसयूवी गाड़ी, हार्वेस्टर और लगभग 30 एकड़ सिंचित भूमि थी, पर उसके घर में भी शौचालय नहीं था। हर सुबह उसका परिवार एक दीवार के किनारे खुले में शौच करता था। तेंदुओं की बहुतायात वाले क्षेत्रों में भी जिन परिवारों ने तेंदुए के हमले में अपने किसी सदस्य को खो दिया था उन लोगों ने भी सरकारी मुआवजे के पैसे से घर की मरम्मत तो करा ली लेकिन शौचालय नहीं बनवाया।
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आप को क्या लगता है कि अगर घर में बाथरूम की सुविधा न होने से जान पर बन आए तो क्या इससे आपकी सोच में कुछ बदलाव आएगा? लेकिन घर में मानव मल की मौजूदगी से जुड़ी पारंपरिक रूढ़ियां हमारे जीवन में इतने गहरे तक जुड़ी हुई हैं कि जान बचाने का लालच भी घर में शौचालय बनवाने के लिए नाकाफी साबित होता है। अगर घर से जुड़े शौचालय बनाने की अनुमति नहीं है तो घर के पास शौचालय तो बनाए जा सकते हैं? लेकिन ऐसे संवेदनशील सवाल पूछने के लिए न तो मेरे पास स्थानीय भाषा की जानकारी थी और न काबिलियत।
आखिरी दिन मुझे एक गांव में शौचालयों की कतार दिखाई दी। लेकिन वहां पानी नहीं था, शौचालयों के 50 मीटर के घेरे में लोगों ने खुले में शौच किया था। इस जगह से कुछ फुट की दूरी पर ही एक पांच साल की बच्ची को तेंदुए ने अपना शिकार बनाया था। बच्ची का पिता उस हादसे का ब्यौरा दे रहा था और मैं अपना दिमाग भयानक दुर्गंध और मक्खियों के झुंड से हटाकर उनकी बातें सुनने की कोशिश कर रही थी।
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हर शाम जब मैं वापस अपने बेस लौटती और टॉयलेट का दरवाजा बंद करती तो मन में ग्लानिबोध पैदा होता कि मैं ऐसी विलासितापूर्ण सुविधा का इस्तेमाल कर रही हूं जिसके लिए लोग अपनी जान तक गंवा देते हैं।
मन में सवाल उठता है कि कौन सी चीज देश की जनता को खुले में शौच करने से रोक सकती है? सरकारी सब्सिडी? फिल्मी कलाकारों की अपीलें? या फिर सस्ते शौचालय?
शहरी सफाई प्रणाली इतनी लचर है कि बिना शोधित किया हुआ मानव अपशिष्ट नदियों में फेंक दिया जाता है। नदियों के जल में मानव मल की मात्रा इतनी ज्यादा है कि उनमें नहाया तक नहीं जा सकता। हम अपनी नदियों को देवी कहकर पूजते हैं और फिर उन्हीं में अपना मल भी बहा देते हैं। क्या हम पाखंडियों का देश बनकर रह गए हैं?
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(जानकी लेनिन एक लेखक, फिल्ममेकर और पर्यावरण प्रेमी हैं। इस कॉलम में वह अपने पति मशहूर सर्प-विशेषज्ञ रोमुलस व्हिटकर और जीव जंतुओं के बहाने पर्यावरण के अनोखे पहलुओं की चर्चा करेंगी।)