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महागठबंधन संभव है, लेकिन एक जयप्रकाश भी तो चाहिए

जय प्रकाश नारायण ने अमेरिका के कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय सहित अनेक विश्वविद्यालयों में अध्ययन करने के लिए छोटे-छोटे काम करते हुए कमाकर पढ़ाई पूरी की थी। उन दिनों वह रूस की 1917 की रूसी क्रान्ति से प्रभावित हुए थे। वह मार्क्सवाद में गरीबी, भुखमरी और शोषण का समाधान देख रहे थे
#Jayaprakash Narayan

परस्पर विरोधी दलों का जैसा जमघट आज है वैसा ही साठ के दशक में था जब विरोधी दलों को ज्ञान आया कि अकेले कांग्रेस को परास्त नहीं कर सकते। तब 1967 में गठबंधन का आरम्भ हुआ, प्रान्तीय स्तर पर कांगेस हारी और संविद सरकारें बनीं।

लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर इन्दिरा गांधी का सशक्त नेतृत्व था जैसे आज नरेन्द्र मोदी का है। देश में भारतीय जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टी, बची-खुची कांग्रेस (ओ), मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी एवं कुछ प्रान्तीय दल थे। किसी के पास ऐसा नेता नहीं था, जो कहे ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।’ सभी को जयप्रकाश नारायण की याद आई।

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जय प्रकाश नारायण ने अमेरिका के कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय सहित अनेक विश्वविद्यालयों में अध्ययन करने के लिए छोटे-छोटे काम करते हुए कमाकर पढ़ाई पूरी की थी। उन दिनों वह रूस की 1917 की रूसी क्रान्ति से प्रभावित हुए थे। वह मार्क्सवाद में गरीबी, भुखमरी और शोषण का समाधान देख रहे थे।

जब 1929 में भारत आए तो कांग्रेस में सब प्रकार की विचारधाराएं थी, लेकिन गांधी जी के नेतृत्व में सभी काम करते थे। उन्होंने कांग्रेस ज्वाइन कर ली फिर भी लोहिया, कृपलानी, अच्युत पटवर्धन, अशोक मेहता, आचार्य नरेन्द्रदेव आदि समाजवादियों से उनकी बड़ी आशा थी।

आजादी के बाद यदि वह चाहते तो कांग्रेस में रहते हुए बड़ा पद हासिल कर सकते थे, लेकिन कोई पद नहीं लिया। बाद में विनोबा भावे के भूदान यज्ञ में सक्रिय रहे, लेकिन सरकार के कामकाज पर टीका टिप्पणी करते रहते थे। शायद इसी को ध्यान में रखकर जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कुछ लोग राजनीति से बाहर रहकर आलोचना करते रहते हैं, बेहतर होगा राजनीति में आएं और काम करें।

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वास्तव में वह नेहरू का विकल्प हो सकते थे यदि साम्यवादी और समाजवादी एकजुट होकर उन्हें नेतृत्व सौंपते, लेकिन वे तो आपस में ही लड़ते रहे थे। कहते हैं जयप्रकाश जी के मन में संघ के प्रति पूर्वाग्रह था, लेकिन हनुमान प्रसाद पोद्दार के आग्रह पर राहत कार्य में एक जिले की जिम्मेवारी संघ को दी थी।दूसरे लोगों के साथ स्वयंसेवकों ने भी अपने खर्चो का विवरण प्रस्तुत किया था। स्वयंसेवकों के हिसाब में उनके व्यक्तिगत व्यय का विवरण न देख जयप्रकाश जी ने सहज भाव से जानना चाहा था कि स्वयंसेवक अपना खर्चा कैसे चलाते हैं।

जब बताया गया स्वयंसेवक भोजन घर में करता है, काम समाज का करता है तब जय प्रकाश जी को स्वयंसेवकत्व की झलक मिली। संघ के प्रति उनके विचारों में परिवर्तन आरभ हुआ।

एक बार पूर्वाग्रह दूर हो जाने के बाद संघ के प्रति उनके मन में कभी शंका नहीं पैदा हुई। शायद इसीलिए भारतीय जनसंघ उनके लिए अछूत नहीं रहा। ऐसा लगता है कि जयप्रकाश जी की वैचारिक यात्रा मार्क्सवाद से आरम्भ होकर समाजवाद और गांधीवाद के रास्ते से एकात्म मानववाद की मंजिल तक पहुंची थी। वह मानवमात्र की सेवा में लगे थे और सभी नेताओं का उन पर विश्वास था, गुजरात के नवनिर्माण आन्दोलन को उनका आशीर्वाद रहा था।

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जो भी हो यदि सभी दलों को भंग करके जनता पार्टी बनाने का जयप्रकाश जी का प्रयोग सफल हो गया होता और देश में कांग्रेस और जनता पार्टी दो पार्टियां बनी रहतीं तो पश्चिमी देशों की तरह स्वस्थ प्रजातंत्र का उदय हो सकता था। आज फिर हमारी राजनीति उसी मुहाने पर खड़ी है। लेकिन पार्टियां महागठबन्धन बनाकर साथ आने की बातें कर रही हैं, नया दल बनाकर भाजपा का विकल्प नहीं खोज रहीं हैं। ऐसा गठबंधन यदि जीत भी गया तो भाजपा आसानी से उसे तोड़फाड़ कर अपनी सरकार बना लेगी।

भाजपा का विकल्प तभी बनेगा जब सभी पार्टियां अपने को भंग करके एक दल, एक संविधान और एक नेता के नाम पर सहमत हों। ऐसे दल को वह व्यक्ति नेतृत्व नहीं प्रदान कर सकेगा जिसने शासन चलाकर अपनी क्षमता को प्रमाणित न किया हो। अपने स्वार्थ और अहंकार से ग्रसित न हो। विपक्ष का यह सोचना कि जनता मोदी को हटा दे अपना नेता हम चुनाव बाद चुन लेंगे कभी मतदाताओं को मान्य नहीं होगा।

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ध्यान रहे इन्दिरा गांधी के खिलाफ तत्कालीन विपक्ष को एकजुट करने में जयप्रकाश जी के साथ ही आपातकाल की भी बड़ी भूमिका थी। अभी तक आपातकाल जैसा कोई कलंक मोदी के माथे पर नहीं है। जहां तक बाद में नेता चुनने की बात है जय प्रकाश जी के हस्तक्षेप के बावजूद मोरारजी देसाई के सामने चौधरी चरण सिंह और बाबू जगजीवन राम की चुनौती बनी ही रही और जनता पार्टी टूट गई।

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि आज भारतीय जनता पार्टी के सामने सशक्त विपक्ष की जरूरत है, जिससे स्वस्थ प्रजातंत्र आ सके। राहुल गांधी को प्रधानमंत्री के रूप में सोचना दिवास्वप्न से अधिक कुछ नहीं। मंजे हुए नेताओं में से किसी के हाथ में कमान सौंपनी होगी, नहीं तो मोदी का विजय रथ चलता रहेगा।

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