बीते दिनों गुजरात के जूनागढ़, सासन गीर और सोमनाथ की तीन दिनों की यात्रा के बाद लौटा हूं। कंक्रीट के जंगलों से बाहर निकलकर गाँव-देहातों और जंगल की दुनिया का अनुभव हद से ज्यादा सुकून देता है। हर पल सीखने के लिए नया होता है। कभी आप अहमदाबाद से राजकोट और जूनागढ़ होते हुए सोमनाथ तक की यात्रा करें तो जूनागढ़ से सोमनाथ के बीच की 90 किमी की दूरी में एक खास चीज पर जरूर गौर करियेगा। हर 200-300 मीटर की दूरी पर एक न एक बरगद का पेड़ जरूर दिखायी देगा।
सड़क के दोनों बाजूओं की बात हो या बीच सड़क में, लंबी-लंबी जटाओं को धरे ये वृक्ष जैसे आपके स्वागत के लिए आतुर दिखाई देते हैं। आखिर इतनी ज्यादा संख्या में बरगद के वृक्षों को लगाया किसने होगा? कुछ वृक्ष तो पचासों साल पुराने दिखाई देते हैं। साधू संतों और वन संपदा से भरे जूनागढ़ के गिरनार पर्वत के किनारे से लेकर बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक सोमनाथ तक 90 किमी के रास्ते में इतने सारे बरगद वृक्षों को देखना मन को बड़ा सुकून देता है।
एक समय था जब अक्सर गाँव में किसी तालाब या पोखर के किनारे अथवा गाँव के ठीक बीचों-बीच चबूतरा बना बरगद का एक बड़ा सा वृक्ष जरूर दिखाई देता था। विशालकाय बरगद जैव विविधता (बॉयोडायवर्सिटी) की दृष्टि से भी खास हैं। इसकी विशालकाय शाखाएं कई पक्षियों का आसरा होती हैं साथ ही इसकी छांव किसी भी मुसाफिर को थकानभरी यात्रा में आराम देने के लिए भरपूर सक्षम होती है।
मेरे वाहन चालक केसर ने चलते-चलते बताया कि जुनागढ़ रिंग रोड और पूरे नेशनल हाइवे बनाते समय कई बरगद के वृक्षों को गिरा दिया गया था। विकास की ये कैसी दौड़ है जिसमें हम इंसान अपनी सहूलियत के हिसाब से अपनी सुविधाओं को खोज निकालते हैं। केसर की उम्र ज्यादा नहीं है और वो ज्यादा पढ़ा लिखा भी नहीं लेकिन इससे बात करते समय मुझे भलिभांति महसूस हो रहा था कि ये एक बेहद संवेदनशील इंसान है। करीब 400 किमी की यात्रा में कई विषयों पर केसर के विचार समझने की कोशिश कर रहा था क्योंकि केसर की आत्मा गाँव में बसी हुई समझ पड़ रही थी।
जूनागढ़ के करीब कृष्णा रेस्ट्रां में राजकोट से आया एक परिवार भोजन कर रहा था। बच्चे टी.वी देखते हुए भोजन कर रहे थे। मेरे उस ओर इशारे के बाद केसर ने उस परिवार को देख केसर बोला “सर, पेड़-पौधों, फलों और बीजों में जान होती है। हमारे गाँव (राजस्थान के उदयपुर के पास कोई गाँव) में बुजुर्ग यही मानते हैं, आज से नहीं, सैकडों सालों से..”। इतना कहकर केसर फिर बोला “जब इन बीजों-फलों या पौधों को पकाया जाए तो सारा ध्यान इनकी तरफ़ होना चाहिए क्योंकि ये आपके मन को समझ पाते है और जब आप मन से बनाए भोजन को खाने बैठते हैं, इसे पूजा और सम्मान दिया जाना चाहिए और पूरी एकाग्रता से इसका सेवन करना चाहिए, टी. वी. देखते हुए भोजन करना, भोजन का अपमान है और ये भोजन कभी भी सेहत बनाने में मदद नहीं करेगा”।
सच बात है, म.प्र के पातालकोट के भुमकाओं (जड़ी-बूटियों के जानकार) के अनुसार धैर्य और आदर से पकाए गए खाने को ग्रहण करने से पहले जब आप उसे अपनी थाली में सजा देखते हैं तो जुबान पर लार आना तय है और यही लार भोजन को पचाने में अतिसहायक होती है। भोजन ग्रहण करने के दौरान यदि ध्यान का भटकाव हो तो इस लार का बनना बंद हो जाता है और यही भोजन आपको पेट में पहुंचकर तकलीफ़ देता है या इसके दुष्परिणाम भविष्य में दिखाई देते है।
सच बात है, एक नजर में ये सब कुछ बकवास जरूर लग सकता है, लेकिन यकीन करिए आधुनिक विज्ञान भी भोजन ग्रहण करते वक्त ध्यान भटकाव को मोटापे की वजह मानता है। रेस्ट्रां में उस परिवार को टी.वी की तरफ व्यस्त देखकर अजीब लग रहा था। बच्चे टी.वी देखते खाना खा रहे हैं, माता-पिता भी खुश हैं कि बच्चा कुछ तो खा रहा है, लेकिन उन्हें इसका जरा भी अहसास नहीं कि बच्चा बीमारियों का एटीएम बनता जा रहा है।
विज्ञान तो लार में पाए जाने वाले एंजाइम्स पर अच्छी खासी शोध में लगा हुआ है, कुछ दिनों पहले एक अंतराष्ट्रीय पत्रिका में शोधपत्र पढ़ा था जिसमें पौधों के ‘एक्स्ट्रा सेंसरी परसेप्शन’ के बारे चल रही आधुनिक शोध का जिक्र था। वैज्ञानिक मानते हैं कि लार और सामने परोसे गए खाने में उपयोग लाए पौधों/अंगों का आपसी संवाद होता है और ठीक उसी समय से भोजन के पाचन-क्रिया का शुभारंभ हो जाता है।
विज्ञान आज इस विषय पर सोच रहा है, मिलियन्स डाॅलर्स लगाए जा रहे हैं और वैज्ञानिकों का एक तबका पूरी तरह से लगा हुआ है, सिर्फ ये जानने के लिए कि क्या लार में ऐसा कोई खास एंजाइम हो जो औषधीय जगत के लिए रामबाण साबित हो? केसर पेशे से भले ही ड्राइवर है लेकिन उसकी सोच और समझ कई डिग्रीधारियों और कमाऊ लोगों से ज्यादा बेहतर है।
वापसी के दौरान लिमड़ी गाँव में मैंने भुने हुए गेहूं की लाही खाई और केसर को भी आमंत्रित किया। केसर ने साफ मना कर दिया, वजह ये कि उसने गाँव में गेहूं की बुआई के बाद की फसल अब तक ली नहीं है। जब तक अपने गाँव के गेहूं की फसल निकाल ना ले, उसे भगवान को भोग ना कराए तब तक वो बाहर का गेहूं नहीं खाएगा अब सोचिये, आप हम और बाकी अन्य लोगों में से ऐसे कितने लोग होंगे जो केसर सी सोच रखते हो?
(लेखक गाँव कनेक्शन के कंसल्टिंग एडिटर हैं और हर्बल जानकार व वैज्ञानिक भी।)
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