शाम गहराने लगी थी। सड़क के दोनों ओर अंगूर के खेतों को पीछे छोड़ते हम आगे बढ़ रहे थे। कहीं-कहीं गन्ने के खेत भी दिखे और हल-बैल के साथ किसान भी। मिट्टी धीरे-धीरे रंग बदल रही थी, मोटरों की रजिस्ट्रेशन प्लेट की इबारत भी। आख़िर एक मोड़ पर मिली पुलिस की एस्कॉर्ट गाड़ी और मोटरों की गति धीमी करने के लिए रखे गए ड्रमों से गुजरते हुए मालूम हुआ कि हम गुजरात की सीमा में दाख़िल हो रहे हैं। आयोजकों ने अगले रोज़ बारडोली में सभा तय की थी। वही बारडोली, जहां बेतहाशा लगान के ख़िलाफ सत्याग्रह में जीत के बाद वल्लभ भाई सरदार कहलाए। याद आया कि इस सूबे की पहली स्मृति तो पोरबन्दर की है।
स्कूल की किताब में गांधी को पढ़ते हुए सबसे पहले पोरबंदर और फिर साबरमती और दांडी मार्च के हवाले से गुजरात को जाना। गांधीधाम और सूरत की कपड़ा मिलों में काम करने के लिए नानी के गांव से जाने वालों के चेहरे याद आए। अमूल के हवाले से आणंद और वर्गीज़ कुरियन का नाम गूंजा। शेर से मुंह वाले सूबे के नक्शे में नीचे की ओर गेंडे के सींग की तरह जमी द्वारिका और फिर इसी के साथ काशीनाथ सिंह के ‘उपसंहार’ वाले कृष्ण की भी याद आई. गोकुल छोड़ द्वारिका आ बसे कृष्ण की।
हमारी मोटर अचानक ढलान पर थी औऱ आगे घुमावदार सड़क, कहीं-कहीं मिट्टी के ऊंचे ढूह। किसी ने बताया हम अभयारण्य के बीच से गुज़र रहे हैं, शायद पूर्णा वन्यजीव अभयारण्य। गाड़ी की रोशनी में बस रास्ता दिखाई देता था या हमें पीछे छोड़कर आगे बढ़ती मोटरों की पीछे की लाइट, बाकी सिर्फ़ सांय-सांय। काफ़ी देर तक उतार-चढ़ाव वाले रास्तों से होते हुए एक टोल पर रुके। अब तक किसान मुक्ति यात्रा की गाड़ियों को कही टोल नहीं चुकाना पड़ा था।
कहीं यात्रा का उद्देश्य बताने पर बैरियर खुल जाता तो कहीं गाड़ियों से उतरकर टोल प्लाज़ा के लोगों से बात करनी पड़ती। वीरपाल ने हिसाब लगाया कि यह 72वां टोल प्लाज़ा होगा, दस गाड़ियों पर अगर औसत 50 रुपए का टोल टैक्स मान लिया जाए तो अब तक 36 हज़ार रुपए तो टैक्स में ही चले जाते। टोल पार करते हुए अब तक की परंपरा के मुताबिक किसान एकता ज़िन्दाबाद वाले नारे गूंजे और सड़क फिर अंधेरे में डूब गईं।
व्यारा की किसी धर्मशाला में खाने का इंतज़ाम था। पहुंचते-पहुंचते क़रीब दस बज गए। शहर उंनीदा था और सड़कें शांत। एक बड़े खुले चबूतरे पर बड़े-बड़े पात्रों में कढ़ी-चावल और सब्ज़ी थी। खिलाने वाले मुस्तैद। बुखार और थकान के मारे ख़ुद की हालत बहुत अच्छी न थी। बरेली फोन करके अपने डॉक्टर दोस्त महेश मेहरोत्रा से दवाई पूछी। उन्होंने दवा बताने के साथ यह भी सुझाया कि अगली बार ऐसी किसी यात्रा पर निकलना हो तो कुछ दवाएं साथ लेकर चलना बेहतर रहेगा। उनकी बात इस लिहाज़ से भी जंची कि उतनी रात को डॉक्टर का इलेक्ट्रॉनिक पर्चा पास होने पर भी दवा मिलने की कोई उम्मीद नहीं थी।
वहां से निकलकर सर्किट हाउस पहुंचे। हमेशा की तरह बैटरी चार्ज करने और कैमरे के कार्ड से तस्वीरें लैपटॉप में ट्रांसफर करने की फ़िक्र थी। कमरे में पहुंचकर सबसे पहला काम यही किया। मगर तस्वीरें ट्रांसफर करते वक़्त एक हादसा गुज़रा, जिसने सारी रात सोने न दिया। एक मेमोरी कार्ड करप्ट हो गया यानी उस पर रिकॉर्ड हुई तस्वीरें-वीडियो चले गए। रात भर याद करता रहा कि उस कार्ड पर कुछ ज़रूरी तस्वीरें और इंटरव्यू थे, मगर अब भला क्या हो सकता है?
सुबह-सुबह रामपाल जाट और दो-तीन और लोग तैयार होने वहीं आ गए, नतीजे में बाथरूम खाली होने का लम्बा इंतज़ार। दवा लेने के लिए गए हरीश का फोन आया, जो दवाएं उसे लिखकर दी हैं, कई स्टोर पर पूछने के बाद नहीं मिलीं सो उनके विकल्प पर संतोष करना होगा। जैसे-तैसे मिली दवा खाकर रैली के लिए निकले। बूंदा-बांदी के बाद धूप निकल आई थी। सड़कें भीगी थीं मगर ज़ोर की उमस थी। नीचे लाउंज में आया तो वहां दीवार पर वर्ली पेटिंग के एक पैनल के साथ ही बड़े फ्रेम में जड़े दो और चित्र टंगे मिले।
महाराष्ट्र और गुजरात की सीमा पर पहाड़ों और तटीय इलाकों में बसे वर्ली आदिवासियों की चित्रकारी ईसा के जन्म से भी कई सौ साल पुरानी है. इन्हें देखकर भीमबेटका के भित्ति चित्र भी याद कर सकते हैं। आमतौर पर धूसर गेरुएरंग में मिट्टी की महक से सजे इन चित्रों में वर्ग, त्रिभुज और वृत जैसे ज्यामितिय आकारों के इर्द-गिर्द जीवन की छवियाँ दिखती हैं। वृत सूर्य और चंद्रमा को और त्रिभुज पहाड़ों-पेड़ों को इंगित करते हैं। इन कृतियों में रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से लेकर उत्सव-प्रयोजन की अभिव्यक्ति और रेखाओं की सरलता मुझे हमेशा ही मोहती है। रिसेप्शन पर बैठे लोगों ने मेरी उत्सुकता देखकर बताया, ‘वर्ली लोग बनाते हैं। ये लोग गुजरात के आदिवासी हैं.’ मैंने ग़ौर से उन्हें सुना और धन्यवाद कहकर बाहर आ गया।
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गुजरात में आदिवासियों की तादाद अच्छी ख़ासी है, जो पहाड़ियों और जंगलों में आबाद है। प्रतिभा शिंदे ने बताया था कि लोक संघर्ष मोर्चा दक्षिणी गुजरात के छह ज़िलों में काम करता है। बाहर इकट्ठा हुए तमाम लोगों के हाथों में मोर्चा के झंडे और खेड़ूत एकता के बैनर प्रतिभा की बात की ताईद करते हैं। दो क़तारों में नारे लगाते हुए ये लोग बाज़ारों से होकर गुज़रे तो आसपास के घरों की महिलाएं देर तक बाहर झांकती हुई कौतूहल भरी निगाहों से उन्हें देखती रहीं।
ग्राहकों में व्यस्त दुकानदारों को फ़ुर्सत न थी कि वे इनके हाथों के झंड़े-प्लेकार्ड पर निगाह डालते मगर जो फ़ुर्सत में बैठे थे उनकी दिलचस्पी इनमें ज़रूर थी। एक घर की बाहरी दीवार पर चार्ली चैपलिन की आदमक़द छवि चमक रही थी। मुझे हैरानी हुई कि किसी ने अपने घर की सजावट में चार्ली चैपलिन को इस तरह क्यों शामिल किया होगा मगर यह सोचकर अच्छा भी लगा कि अपनी कहानियों के ग़रीब और शोषित पात्रों के इस संघर्ष के वह भी गवाह हैं।
आगे की ओर से ड्रम की आवाज़ सुनाई दी तो तेज़ क़दमों से आगे बढ़कर देखा। बड़ी उम्र के एक सज्जन गले में ड्रम लटकाए थिरकते-झूमते बजाते हुए चल रहे थे। उनके पांवों की लय उनके हाथों की तरह ही सधी हुई थी। नाम धनन्जय, आदिवासी हैं। कुछ देर बाद देखा कि साथियों को छोड़कर अचानक आगे आए सांसद राजू शेट्टी ने धनन्जय ने उनका ड्रम मांग लिया और अपने गले में लटकाकर बजाते हुए आगे बढ़े। बाबा साहब के बुत के करीब अंदर जाने का रास्ता थोड़ा संकरा था। यह रास्ता उस कॉम्प्लेक्स की ओर जाता है, जहां सभा होनी है और जहां चारों ओर किसानों के काम की दुकानें हैं- खाद, बीज औऱ कीटनाशक की दुकानें। एक डाकख़ाना भी है। रास्ते में एक जगह काफी लम्बी क़तार दिखी। रुककर देखा तो किसान सुविधा केंद्र है।
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तेज धूप और उमस के बीच यह जो अनुशासित लाइन है, यह खाद जुटाने के लिए पहुंचे किसानों की है। क्या फ़र्क़ पड़ता है कि इस लाइन में गुजरात के किसान खड़े हैं या महाराष्ट्र या फिर उत्तर प्रदेश के। बदहाली का मंज़र यहां भी है और वहां भी। बस नेता बताते हैं कि दूसरे वाले ज्यादा सुखी हैं और लोग इस बात पर एतबार कर भी लेते हैं। पिछले कुछ दिनों में देखा है कि सभाओं में मंच से जब पंजाब के किसानों के करोड़ों के देय की माफ़ी का या फिर उत्तर प्रदेश में गन्ना किसानों को मिले फ़ायदे का ज़िक्र होता है तो भीड़ किस क़दर उम्मीद और उत्साह से भर जाती है, तालियां बजाती है। लड़ेंगे-जीतेंगे के नारे तेज़ हो गए, धनन्जय के ड्रम की आवाज़ भी। हम एक बड़े टिन शेड के सामने थे, जहां लोगों ने ज़मीन पर और उनके अगुवा ने मंच पर अपनी जगह बनानी शुरू कर दी। मंच से आवाज़ आई ‘खेड़ूत एकता’ और सामने बैठी भीड़ के बीच से ज़िन्दाबाद का शोर उठा।
मैं पानी की तलाश में बाहर निकल आया। रुमाल पसीने से इस क़दर भीग चुका था कि अब उसकी उपयोगिता नहीं रह गई थी। कुछ लोग पास के डाकघर में जगह पाकर पंखे के नीचे जम गए थे। मेमोरी कार्ड को लेकर मेरी फिक्र खत्म नहीं हुई थी। कार्ड बनाने वाली कम्पनी को फोन किया तो उन्होंने भरोसा दिलाया कि वे कार्ड बदल देंगे मगर कार्ड का डाटा हासिल करने में किसी मदद से असमर्थता जताई। तकनीकी तरक्क़ी के साथ इस दुर्योग पर कोफ्त का अब कोई हासिल नहीं। नेताओं के वक्तव्य जारी थे और पेड़ की छांव के बावजूद उमस बरक़रार।
अगला पड़ाव बारडोली है। किसान नेताओं ने बताया कि लौह पुरुष की 182 मीटर ऊंची प्रतिमा बनाने और उनके विचारों पर अमल का दावा करने वाली सरकार किसान हितों के अपने वायदे से मुकर रही है, इसलिए उन्होंने बारडोली जाना तय किया है। लगान में 22 फ़ीसदी बढ़ोत्तरी के ख़िलाफ वल्लभ भाई पटेल ने सूखे औऱ बाढ़ के मारे किसानों के संघर्ष की अगुवाई की थी। इस आंदोलन का नतीजा यह हुआ कि सरकार को अपने फैसले से पीछे हटना पड़ा।
यह बात 1928 की है, और यह घटना, जिसे इतिहास में बारडोली सत्याग्रह कहा गया, बड़े पैमाने पर सिविल नामफ़रमानी की पहली नज़ीर बनी। बारडोली के जिस गांधी-सरदार भवन में किसान नेताओं को अख़बारनवीसों के बात करनी थी, उसके बाहर एक ऊंचे चबूतरे पर आम का एक पेड़ है। चबूतरे पर जड़े पत्थर का मजमून है, ‘ पूज्य महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारत में से अंग्रेज़ी हुकूमत को हटाने के लिए तीन अहिंसक लड़ाइयों की शुरुआत हुई थी। उनमें से प्रथम अहिंसक लड़ाई का मान और गौरव बारडोली को प्राप्त हुआ था।
अंग्रेज़ी हुकूमत के प्रतिनिधि वाइसराय को दिये गये अल्टीमेटम पर दिनांक 01-02-1922 के दिन इस ऐतिहासिक आम के पेड़ के नीचे बैठकर पूज्य गांधी जी ने प्रथम अहिसक लड़ाई के लिए हस्ताक्षर किये थे।‘वायसराय को लिखे इस ख़त में गांधी में सविनय अवज्ञा आंदोलन के बारडोली में हुए फ़ैसले की जानकारी देते हुए लिखा था कि जब तक लोगों की अहिसक गतिविधियों में सरकारी दख़ल बंद करने की स्पष्ट नीति की घोषणा नहीं हो जाती है और प्रेस पर शासकीय नियंत्रण ख़त्म नहीं हो जाता अवज्ञा आंदोलन जारी रहेगा।
उस पत्थर पर दर्ज़ इबारत पढ़ते हुए उस पेड़ के नीचे पास बैठना काफी रोमांच भरा अनुभव है। पुराने पेड़ के तने का एक बड़ा हिस्सा नीचे पड़ा हुआ था और उसी के साथ खड़ा था यह नया पेड़. लिंगराज के साथ उस चबूतरे पर बैठकर उड़ीसा के किसानों की मुश्किलों पर बात करते हुए भी गांधी और कभी उनका वहां होना मेरी चेतना पर छाया रहा। उन लोगों के जीवट और संघर्षों के बारे में सोचता रहा, जिनकी अगुवाई गांधी कर रहे थे। पर हम क्या सचमुच उन संघर्षों का मान रख पाए हैं? ऐसा होता तो अपनी फसल का दाम पाने के लिए किसानों को इस आंदोलन की ज़रूरत ही क्यों पड़ती? बारडोली के सत्याग्रह की पुनरावृत्ति के बारे में सोचने की नौबत ही क्यों आती, भला?
जिसे हम बड़ौदा लिखते-बोलते है, यहां बोलचाल में वरोडा है। इसी तरह अहमदाबाद दरअसल अमदाबाद है। शहर में दाख़िल होने से पहले ऐसा साइन बोर्ड पर भी लिखा पाया। ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा‘ वाले जेठालाल के मुंह से अमदाबाद सुनता था तो लगता कि यह उनकी ‘पॉब्लम‘ वाली प्रॉब्लम है मगर अब यह सरकारी बोर्ड पढ़ लेने के बाद कोई शुबहा नहीं कि जेठा ही सही उच्चारण करते हैं। ग्यारह बज रहे थे मगर रिवर फ्रंट पर बेशुमार गाड़ियां खड़ी थीं। उनके पीछे रोशनी में नहाए खाने-पीने की ठिकाने गुलज़ार थे, ख़ूब चहल-पहल थी।
ठिकाने तक पहुंचते-पहुंचते आधी रात हो गई। खाने का वक्त तो ख़ैर नहीं रह गया था सो ब्रेड और कॉफी से काम चलाया, रामपाल जाट भी ठहरने के लिए साथ थे सो अपना बिस्तर ज़मीन पर लगाया। सुबह तैयार होकर लॉबी में पहुंचे तो योगेंद्र यादव के लिए ख़ास काढ़ा लेकर पहुंचे उनकी स्थानीय टीम के कुछ लोग मिल गए। नेताओं को किसी होटल में प्रेस के लोगों से मिलना था। यह मौक़ा मेरे लिए बहुत उबाऊ होता है। बहुत सोचता हूं कि अख़बारनवीसी के तौर-तरीक़े बदलना मेरा काम नहीं, पर आसपास बने रहने के दौरान थोड़ी ही देर में ही खीझने लगता हूं। अभी नेताओं में से किसी ने बताया कि देश के डेढ़ सौ से ज्यादा किसान संगठन एक होकर मुक्ति यात्रा निकाल रहे हैं।
सिर पर रंगीन रुमाल बांधकर ग़ज़ब की ख़राब अंग्रेज़ी में सवाल पूछ रहे एक अख़बारनवीस ने नेताओं को मुश्किल में डाल रखा है। वह यह जानने पर अड़ा हुआ है कि कुल किसानों की संख्या कितनी है? यह कि अगर सटीक संख्या न बता आएं तो अंदाज़न ही बता दें। इस दौर में आंकड़े ही ख़बरों की जान हैं, आंकड़े ही न हुए तो ख़बर क्या बनाएंगे? यों कभी कैमरे के आगे खड़े नेता की भंगिमाओं पर ग़ौर कीजिएगा। बात करते हुए ये कैमरे और जनसभा के माइक का फ़र्क भूल जाते हैं। बोलते-बोलते अचानक गड़गड़ाने लगते हैं। पता नहीं घर के लोगों से कैसे बात करते होंगे? स्थानीय नेताओं में एक वकील साहब मंच के पड़ोस में खड़े होकर बोलते-बोलते इतने जोश में आ गए कि उनकी बात खेती-किसानी से भटकर आतंकवाद और माल्या पर आ टिकी। पास में खड़े एक औऱ सज्जन ने उनका कंधा थपथपाकर इशारा किया तब कहीं जाकर वह शांत हुए।
गुजरात में किसान यात्रा का यह आख़िरी दिन है। शाम तक सिद्धपुर और पालनपुर होते हुए हम राजस्थान की सीमा में दाख़िल होने वाले हैं। अहमदाबाद से निकले तो रास्ते में मालूम हुआ कि महेसणा में मजदूरों-किसानों का कोई जुटान है। यह भी पुलिस का सख्त इंतज़ाम है और गिरफ्तारी हो सकती है। योगेंद्र इसमें शरीक होने के पक्ष में हैं, जबकि वीएम सिंह और राजू शेट्टी की राय थी कि गिरफ्तारी हुई तो आगे के पहले से तय कार्यक्रम गड़बड़ा जाएंगे। सहमति बनी कि किसानों के समर्थन में कुछ देर के लिए सब वहां वहां रुकेंगे। महेसणा में दाख़िल हुए तो सड़क के एक किनारे पुलिस की जालियां लगीं तमाम लारियां लाइन से खड़ी मिलीं। आज़ादी कूच के इस आयोजन को अफ़सरों की इजाज़त नहीं मिली और यह सारा इंतज़ाम व्यापक गिरफ्तारियों के मद्देनज़र है।
चौराहे के पास भीड़ जमा है और थोड़ी ऊंचाई पर क़तार से खड़े कुछ युवाओं के बीच से ‘मनुवाद से आज़ादी…‘ का गीत गूंज रहा है। हवा में मुट्ठी लहराते हुए भीड़ भी गीत में बराबर की शरीक़ है। दूर से सुनते हुए सोचा कि इन लोगों ने कन्हैया के गीत का बढ़िया रियाज़ किया है, एकदम वैसे ही गा रहे हैं। क़रीब पहुंचने पर मालूम हुआ कि डफली की आड़ में छुपा चेहरा तो दरअसल कन्हैया का ही है, उनके पड़ोस में जिग्नेश मेवाणी। भीड़ में रामू सिद्धार्थ से भेंट हो गई। रामू से पहली मुलाक़ात गोरखपुर में हुई थी। फिर वह दिल्ली चले आए और रिश्ता पर बातचीत तक सीमित रह गया। पता चला कि आज़ादी कूच उन दलितों को ज़मीन पर मालिक़ाना हक़ दिलाने के लिए है, जिन्हें पट्टे तो वर्षों पहले दे दिए गए थे मगर ज़मीन अब भी सवर्णों के क़ब्ज़े में ही है।
ये लोग पालनपुर जाना चाहते हैं, मगर जैसा कि अफ़सरों की मंशा से जाहिर है, वे शायद ही जा सकें। आज़ादी गीत के बाद भाषण वगैरह हुए और बाबा साहब की तस्वीर उठाए कन्हैया और जिग्नेश के साथ भीड़ ने कूच किया। इस बीच बूंदा-बांदी शुरू हो गई। धूप देखते हुए इसका बिल्कुल अंदाज़ न था इसलिए मैं छाता गाड़ी में ही छोड़ आया था। रुमाल के भरोसे कैमरा बचाना मुमकिन नहीं था और गाड़ी भी काफी दूर थी, सो मैं भीड़ को छोड़कर तेज़ी से भाग निकला.