एक मोटा अनुमान है कि हर साल बाढ़ में ही करीब एक लाख पशु दम तोड़ देते और हजारों की संख्या में पशु गायब हो जाते हैं। पढ़िए पशुओं की अनदेखी कैसे देश और किसानों के लिए नुकसानदायक बन रही है।
खेती अगर भारत की रीढ़ है तो दुधारू और खेत के काम आने वाले पशु किसानों की जीवनरेखा हैं। बाढ़ हो या सूखा जैसी सालाना आपदाओं का सबसे अधिक कहर ग्रामीण इलाकों पर टूटता है। मुंबई या चेन्नै की बाढ़ वैश्विक चिंता का विषय बन जाती है लेकिन देहाती इलाकों में होने वाली हानि जैसे सालाना आयोजन बन गयी है, उसकी तरफ हमारा खास ध्यान नहीं जाता। कितने जानवर मर जाते हैं या गायब होते हैं, इस पर भी हमारी निगाह नहीं जाती है। न सरकार को चिंता होती है न ही विपक्ष को। क्योंकि वे बेजुबान हैं इस नाते नीतिकारों की सोच से वे बाहर हैं।
इसी दफा एक दशक की सबसे भयानक बाढ़ ने 280 जिलों की 3.4 करोड़ आबादी को अपनी चपेट में लिया और करीब एक हजार लोग मारे गए और तीन लाख हेक्टेयर में खड़ी फसल नष्ट हो गयी। खास तौर पर देहात में आठ लाख से अधिक मकानों की क्षति हुई, जिसमें अधिकतर कच्चे मकान थे। उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिमी बंगाल और असम में बाढ़ से भारी तबाही मची लेकिन कितने पशु मरे औऱ कितने गायब हुए इनके आधिकारिक आंकड़ों का अभी भी इंतजार है।
भारत में आपदा प्रबंधन की दिशा में केंद्र औऱ राज्य सरकारों ने कई कदम उठाए हैं। लेकिन अभी भी पशुओं को आपदा प्रबंध का हिस्सा नहीं बनाया जा सका है। एक मोटा अनुमान है कि हर साल बाढ़ में ही करीब एक लाख पशु दम तोड़ देते और हजारों की संख्या में पशु गायब हो जाते हैं। आपदा प्रबंधन तंत्र मे शामिल एनडीआरएफ से लेकर पुलिस तक लोगों की जान माल बचाने की कोशिश करती है लेकिन बेजुबान जानवरों की फिक्र किसी को नहीं होती है। आपदाओं में तमाम पशु खूंटे से बंधे ही मर जाते हैं।
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कोई भी आपदा खास तौर पर उन गरीब किसानों और भूमिहीन खेतिहर श्रमिको के लिए आफत बन कर आती है, जिनके दुधारू पशु बाढ़ में दम तोड़ देते हैं। हालांकि सरकार के पास इस बात के आंकड़े भी नहीं है कि सालाना पशुओं के मरने से कितनी आर्थिक क्षति होती है। आपदा प्रबंधन क्षेत्र के विशेषज्ञ डॉ.अनिल कुमार गुप्ता मानते हैं कि हाल के सालों में सरकार ने कई अहम कदम उठाए हैं। लेकिन पशुओं को जमीनी स्तर पर बचाने की कोशिशें अभी भी न के बराबर हो रही हैं। 2005 में बने राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम में पशुओं का प्रबंधन शामिल नहीं किया गया।
आजादी के बाद से प्राकृतिक आपदाओं में सरकारी एजेंसियों का सारा जोर जन हानि रोकने पर रहा। कृषि मंत्रालय ने पशुओं को बचाने को लेकर एक आपदा प्रबंधन योजना बनायी औऱ इस पर काफी मंथन हुआ, लेकिन इसे जमीन पर उतारा नहीं जा सका। राज्यों में आपदा प्रबंधन में पशुओं को कोई तवज्जो नहीं दी जा रही है।
भारत का करीब 68 फीसदी कृषि क्षेत्र सूखा और बाढ़ के संकट वाला है। प्राकृतिक आपदाओं में हर साल हमारी जीडीपी का दो फीसदी हिस्सा और केंद्रीय सरकार के राजस्व का 12 फीसदी के बराबर नुकसान होता है। सरकारी आंकड़े खुद मानते हैं कि हर साल औसतन बाढ़ से 95 हजार से एक लाख पशु मर जाते हैं। 2001 से 2014 के बीच 11.16 लाख जानवरों की मौतें आपदाओं में हुईं। इनमें भी सबसे अधिक 4.55 लाख पशुओं की मौतें 2006-07 के दौरान हुईं। इस बार भी बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश औऱ असम की बाढ़ में भारी पशु संपदा का नुकसान हुआ है। हालंकि इसका विधिवत आकलन अभी होना है। भारत में अभी तक इस मसले पर एकमात्र गैर सरकारी संस्था वर्ल्ड एनीमल प्रोटेक्शन भारत ने राज्य सरकारों को जगाने की पहल की है। उनके राष्ट्रीय निदेशक गजेंद्र शर्मा का कहना है कि इस दिशा में अभी जो काम राज्यों में होना चाहिए और जो ध्यान दिया जाना चाहिए वह नहीं हो पा रहा है और काफी उदासीनता का आलम है।
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पशु बेजुबान हैं और शायद इसी नाते आपदाओं में वे भगवान भरोसे ही रहते हैं। न तो मीडिया का उनकी तरफ ध्यान जाता है न ही सरकारी एजेंसियों का। आपदा प्रबंधन राज्य सरकारों का विषय है। उनकी मांग पर भारत सरकार एनडीआरएफ और केंद्रीय बलों की भी तैनाती करती है। राज्यों का जोर आदमी बचाने और उनके लिए राहत कैंपों पर तो रहता है लेकिन पशु उनकी सोच से बाहर हैं। हालांकि पशु ग्रामीण भारत की जीवन रेखा हैं। करोड़ों परिवारों का पेट ये पशु ही पालते हैं और पशुपालन पर उनका आर्थिक आधार टिका है। लेकिन जानवरों के बचाव के लिए न तो ऊंचे स्थल का चयन किया जाता है न ही सरकारी स्तर पर उनके रखरखाव का इंतजाम होता है न ही चारे और पानी का भंडारण। टीकाकरण या औषधि भंडार बनाना तो दूर की बात है। अगर बाढ़ में पशुओं को नाव से ऊंचे स्थानोंपर स्थानांतरित कर दिया जाये तो बहुतोंको बचाया जा सकता है। ऐसा करके तमाम जानवरों को सांप और नेवले का शिकार होने से भी बचाया जा सकता है।
हमारे देश में करीब 50 लाख हेक्टेय़र भूमि बाढ़ से प्रभावित होती है।भारतीय महाद्वीप आपदाओं और जोखम से भरा है। समाज के अपेक्षाकृत कमजोर वर्ग के लोग और देहाती दुनिया के गरीब लोग इससे सबसे अधिक प्रभावित होते हैं। हमारे देश के कई वन्य जीव अभयारण्यों जहां जानवरों की रक्षा पर भारी धन व्यय होता है, वहां आपदाओं में जब बड़ी तादाद में जानवर मर जाते हैं तो जहां इंतजाम नहीं वहां की दशा को समझा जा सकता है। हाल की दो बार आयी बाढ़ से 430 वर्ग किमी दायरे में फैले विश्व धरोहर काजीरंगा अभयारण्य का 70 फीसदी इलाका डूब गया औऱ 215 जानवर मर गए। इनमें 13 गैंडे थे। 2013 में उत्तराखंड की आपदा में बड़े जानवर 684 और छोटे जानवर 8763 समेत कुल 9447 मारे गए या लापता हो गए। लेकिन किसानों को मुआवजा या तो नहीं मिला या नाम को मिला।
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उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के विशाल दायरे में फैला बुंदेलखंड साल दर साल सूखे की चपेट में आता रहता है। लोगों को अपने खाने-पानी की दिक्कत हो जाती है तो वे जानवरों को कहां से खिलाएं। इसी नाते यहां दशको से जानवरों को खुला छोड़ देने की अन्ना प्रथा कायम है। इस पर काबू नहीं पाया जा सका है और इस नाते किसानों की खड़ी फसल, बागवानी और पर्यावरण को भारी नुकसान हो रहा है। अकेले चित्रकूट धाम मंडल मे करीब तीन लाख अन्ना जानवरों का आकलन किया गया है। पंचायत स्तर पर गौशालाओं की स्थापना कागजों से आगे नहीं निकल पाया है। कई गावों में किसान अन्ना मवेशियों को अस्थायी बाड़े में रखते हैं लेकिन सामुदायिक आधार पर इनकी व्यवस्था करना सहज काम नहीं है।
बुंदेलखंड में ही पशु चारे के अनुसंधान का देश का सबसे बड़ा संस्थान भारतीय चारागाह एवं चारा अनुसंधान संस्थान है। इसने पशु चारे पर तमाम अनुसंधान किए गए हैं। हाईब्रिड नेपियर घास से लेकर पौष्टिक बरसीम और गैर परंपरागत कांटारहित नागफनी के हरे चारे के रूप में उपयोग की दिशा में बहुत कुछ अनुसंधान हुआ है। ये अनुसंधान अगर जमीन पर उतरें तो बहुत से जानवरों को बचाया जा सकता है। संस्थान के समाज विज्ञान विभाग के प्रमुख डा.खेमचंद मानते हैं कि चारागाहों के विकास की दिशा में राज्य सरकारों का अपेक्षित ध्यान नहीं। संस्थान का आकलन है कि देश में हरे चारे की करीब 36 फीसदी औऱ सूखे चारे की 11 फीसदी कमी है। प्रधानमंत्री ने पशु चारे की बेहतर सुलभता के लिए रेलवे और रक्षा विभाग की खाली जमीनों के उपयोग के लिए संभावनाओं की तलाशने को कहा था लेकिन इस दिशा में अभी तक बात आगे बढ़ नहीं पायी है।
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आपदाओं में मारे गए या लापता पशुओं का मुआवजा अगर किसी किसान को मिल गया तो वह बहुत भाग्यशाली है। आम तौर पर मुआवजा नहीं मिलता है। 8 फरवरी, 2017 को राज्य सभा में राजस्थान के सांसद रामनारायण डूडी ने केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरेन रिजिजू से आ जानना चाहा था कि राजस्थान में पिछले दो सालों में सूखे के दौरान पशुओं के मामले में कैसी सहायता दी गयी है। मंत्री ने यह कहते हुए कन्नी काट ली कि आपदा प्रबंधन राज्यों का विषय है और भारत सरकार के मानकों के तहत राज्य सरकार सहायता देती है। हालांकि उन्होंने स्वीकार कया कि दावा की गयी हानि की क्षतिपूर्ति मुआवजे से नहीं होती है। राज्य सरकारें मवेशियों दुधारू पशुओं जैसे भैंस, गाय, ऊंट, याक, मिथुन के मामले में तीस हजार तक और भेंड, बकरी औऱ सुअर के मामले में तीन हजार रुपए तक की सहायता देती हैं। वहीं ऊंट, घोड़ा और बैल जैसे पशुओं के लिए 25 हजार तक की सहायता का प्रावधान है जबकि बछड़ा, गधा और खच्चर के मामले में 16 हजार तक। भारत सरकार के पास यह आंकड़े उपलब्ध नहीं है जिसमें जानवरों के मामले में राज्य सरकारों ने मदद की हो।
देश में फिलहाल 29 करोड़ बड़े दुधारू पशु हैं, जबकि 21 करोड़ से अधिक छोटे दुधारू पशु। इनको बचाने की सबसे अधिक जरूरत है। क्योंकि इनकी बदौलत ही भारत दूध उत्पादन में दुनिया में नंबर एक पर है। देश में दूध का योगदान दो लाख करोड़ रुपए से अधिक है, जो धान के योगदान से चार गुना से अधिक है। दूध उत्पादन की करीब 70 फीसदी लागत केवल आहार और चारे की लागत के कारण होती है। भारत में दूध उत्पादन कर रहे किसानों में 70 फीसदी के पास एक से तीन पशु हैं। अनेक छोटे तथा सीमांत किसानों, ग्रामीण भूमिहीनों तथा वंचित वर्गों के लोगों की आजीविका पशुपालन से चलती है, इस नाते उनके जीवन के लिए जानवर अनमोल हैं। राजस्थान जैसे प्रांत में तो 80 फीसदी ग्रामीण परिवार पशुधन पालते हैं। लेकिन वहां अकाल में भारी झटका लगता है। स्थायी चारागाह सिमटते जा रहे हैं और पानी की गुणवत्ता सबसे खराब है जिसका असर जानवरों पर भी पड़ रहा है।
दूसरी बड़ी समस्या आपदाओं में जानवरों का चिकित्सा तंत्र कमजोर होना है, जिस कारण काफी जानवर मर जाते हैं। भारतीय पशु चिकित्सा परिषद के प्रैक्टिशनर रजिस्टर के मुताबिक देश में 62,345 पशु चिकित्सक हैं। सरकारी तंत्र की बात करें तो हमारे विशाल देश में महज 10,094 प
शु चिकित्सालय और 21,269 औषधालयों के साथ 15 हजार जानवरों पर एक पशु चिकित्सक है। कायदे से पांच हजार पशुओं पर एक डाक्टर होना चाहिए। इन सारे तथ्यो के आलोक में कमियों को दूर करते हुए आपदाओं में जानवरों को बचाने के लिए ठोस रणनीति की दरकार है।