रिपोर्टिंग की सनसनी में विवेक और विश्वसनीयता बनी रहे

Dr SB MisraDr SB Misra   15 Jan 2017 8:26 PM GMT

  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
रिपोर्टिंग की सनसनी में विवेक और विश्वसनीयता बनी रहेपिछले कुछ वर्षों में मीडिया की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठे हैं।

टीवी चैनल पर 13 जनवरी की शाम एक समाचार दिखाया जा रहा था कि आलू किसान बेचता है 40 पैसा प्रति किलो और वही आलू बाजार में बिकता है 10 रुपया प्रति किलो। इसका जिम्मेदार बताया जा रहा था नोटबन्दी को। यह समाचार मेरे कान में पड़ा तब ध्यान से टीवी देखा तो सतहीपन समझ में आ गया। इसी तरह एक सेना के जवान ने सोशल मीडिया पर खराब भोजन की कुछ तस्वीरें डाल दीं जो वाइरल हो गईं और वहां से टीवी पत्रकारों ने उठा लीं और जली रोटियां दिखाने लगे। दोनों ही समाचारों में थोड़े विवेक की आवश्यकता थी।

पहले समाचार में आलू के बोरे सैकड़ों की संख्या में टीवी चैनल दिखा रहा था लेकिन ध्यान से देखा तो वे आलू बड़े-बड़े अंकुर वाले थे जो अब शायद ही खाने योग्य होंगे। इसका मतलब है कहीं कोल्ड स्टोरेज से लाए गए होंगे पिछले साल वाले आलू जो किसान ने चतुराई दिखाते हुए तब नहीं बेचा जब बाजार में 15 रुपया प्रति किलो गर्मी-बरसात में बिक रहा था। यह असम्भव है कि किसान के दरवाजे पर 40 पैसा प्रति किलो बिके और बाजार में 10 रुपया किलो। अब तो जीएसटी लागू होने वाला है तब एक प्रदेश और दूसरे प्रदेश के भावों में भी इतना अंतर नहीं होगा। विचार इस बात पर होना चाहिए कि कभी आलू और प्याज बेहद सस्ते और कभी महंगे क्यों होते हैं, नोटबन्दी हर बार नहीं होती।

पिछले 70 साल में दसों बार ऐसा हुआ है कि किसान को बोरे के दाम भी नहीं मिलते और वह सड़क पर आलू उंडेल कर बोरा ले जाता रहा है। प्याज में भी ऐसा ही हुआ है इसलिए आलू का दाम सही नहीं मिला इसके लिए नोटबन्दी को दोष देना विवेकहीन समाचार है। प्रिंट मीडिया में सच्चाई जानने का कुछ तो प्रयास होता है, तब पता चलेगा कि नए आलू का दाम किसान के दरवाजे पर पांच रुपए प्रति किलो और बाजार में 20 रुपए का तीन किलो बिक रहा है। पत्रकार को सच्चाई खोजने खेत की मेंड़ और बाजार की मंडी में जाना होगा।

इसी तरह सेना के सिपाहियों को पौष्टिक खाना दिया जाना चाहिए इसमें बहस नहीं हो सकती लेकिन यदि खाना ठीक न हो तो उसका समाधान कैसे होना चाहिए। सिपाही ने अनुशासनहीनता दिखाते हुए वीडियो वायरल कर दिया लेकिन क्या एक यूनिट की खामी को पूरे बीएसएफ का समाचार मानकर दिखाना उचित होगा। वैसे सेना ने अग्रजों के जमाने में बगावत की थी जब चमड़े के कारतूस मुंह से काटने पड़ते थे। उसमें सुधार करना पड़ा था अंग्रेज सरकार को लेकिन क्या हमारा मीडिया उसी तरह से बगावत और समाधान चाहता है। बेहतर होता बार-बार सिपाही की फोटो दिखाने के बजाय विस्तार से इसकी छानबीन करके स्वयं पत्रकार अपनी जुबानी समाचार दिखाते।

एक खबर जो ब्रेकिंग न्यूज़ के रूप में पेश हुई वह थी खादी ग्रामोद्योग के कैलेंडर में मोदी की तस्वीर लगाना महात्मा गांधी की तस्वीर हटाकर। इस विषय पर थोड़ा खोजबीन करनी चाहिए थी क्योंकि जो कांग्रेस के लोग खादी की बात कर रहे हैं उन्होंने बीसों साल पहले गांधी टोपी और खादी पोशाक की अनिवार्यता अपने दल में समाप्त कर रखी है। पता तो लगाते क्या महात्मा गांधी की तस्वीर सचमुच हटाई गई और उसकी जगह मोदी की तस्वीर बिठाई गई। शायद यही अन्तर है टीवी पत्रकारिता और प्रिन्ट मीडिया में। अखबार छापने वाले न्यायालय से डरते हैं, उन्हें इसी तरह अपनी विश्वसनीयता बनाए रखनी चाहिए।

[email protected]

     

Next Story

More Stories


© 2019 All rights reserved.