भारत में विपक्षी नेताओं कोे आपत्ति है कि प्रधानमंत्री मोदी योग की ब्रांडिंग कर रहे हैं। क्यों न करें जब आजादी के 70 साल बाद बाबा रामदेव ने योग का प्रचार प्रसार किया और प्रधानमंत्री मोदी ने योग को दुनिया में मान प्रतिष्ठा दिलाई।
यह काम कांग्रेस पार्टी जब चाहती कर सकती थी और श्रेय ले सकती थी। लेकिन जवाहर लाल नेहरू शीर्षासन करते थे, इन्दिरा गांधी के योग गुरु धीरेन्द्र ब्रह्मचारी थे जिनके विषय में कहा जाता था ‘धीरेन्द्र ब्रह्मचारी बन्दूकों का व्यापारी’ और अब कांग्रेसी नेता शवासन में लेट रहे हैं।
अब योग को विश्व स्वीकार कर रहा है, आयुर्वेद को भी करेगा। सनातन धर्म को विश्व पटल पर स्वामी विवेकानन्द ने 11 सितम्बर 1893 को शिकागो में विश्व धर्म संसद में उद्घोषित किया था। यह कोई खोज नहीं थी, उसी तरह नरेन्द्र मोदी ने अमेरिका की संसद में तीन साल पहले योग विज्ञान को उद्घोषित किया।
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यह भी कोई खोज नहीं है। इस ज्ञान पर प्रत्येक भारतीय ही नहीं प्रत्येक मानव को गर्व होना चाहिए। इसके माध्यम से लाखों लोग इकट्ठे होकर अपने कल्याण की बातें सोचते और करते हैं। इसका विरोध स्थायी नहीं रहेगा।
आजाद भारत में योग और आयुर्वेद का निरादर आत्मघाती रहा है। अधिकांश रोग साइकोसोमैटिक होते हैं इसी साइकोसोमैटिक का इलाज है योग विद्या में। ध्यान रहे कि साइकोसोमैटिक यानी मनोविकारजनित रोगों का कोई इलाज नहीं है एलोपैथी में।
संक्षेप में कहें तो अनेक मामलों में योगविद्या एलोपैथी की सीमाओं के आगे जाती है। इसे कुछ लोग हिन्दू धर्म का हिस्सा मान बैठे क्योंकि देश के नेताआें ने इसके प्रचार प्रसार का जिम्मा स्वामी विवेकानन्द, शिवानन्द, योगानन्द जैसे हिन्दू विचारकों पर छोड़ दिया।
योग वैज्ञानिकों ने कभी भौतिक ज्ञान को पूजा पद्धति से नहीं जोड़ा। इससे दुखद क्या हो सकता है कि भारत के अधिकांश नौजवान हमारे ऋषियों पतंजलि, शुश्रुत, चरक, भास्कराचार्य और कणाद के नाम तक नहीं जानते, उनके योगदान को क्या जानेंगे।
जिस तरह न्यूटन ने जमीन पर गिरते हुए सेब को देखकर गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त को प्रतिपादित किया था उसी प्रकार पतंजलि ने मनुष्य और जानवरों के विविध शारीरिक क्रियाओं को देखकर अष्टांग योगदर्शन के सिद्धान्त को प्रतिपादित किया।
आप सभी ने सांप को जमीन पर लेटे हुए फन उठाए देखा होगा। यही तो है भुजंगासन। कुत्ते, बिल्ली और मनुष्य को अंगड़ाई लेते हुए देखा होगा। ताड़ासन, हलासन और धनुरासन ही तो करते हैं ये सब। अनेक आसन जानवरों के नाम से या फिर शरीर की मुद्राओं से जाने जाते हैं। इन मुद्राओं के साथ जब मन-मस्तिष्क का तालमेल रहता है तो योगासन बन जाता है।
जब कोई मुस्लिम कहता है कि हम नमाज पढ़ते हुए अनेक योग मुद्राएं करते हैं तो वह ठीक कहता है। यही तो हिन्दू करता है जब वह योग मुद्राओं में रहते हुए कहता है सब सुखी हों, सब चिन्तारहित हों। इसी को वह संस्कृत में कह देता हे ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयः’। तो विरोध किस बात का है क्रियाओं का या शब्दों और भाव का? यदि कोई चाहे तो इन्हीं बातों को उर्दू अरबी या फारसी में कह सकता है।
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कुछ लोग सोचते हैं कि योग के बदले जिम आदि में कसरत कर सकते हैं, यह सच भी हो सकता है परन्तु शरीर के साथ मन-मस्तिष्क का व्यायाम वहां नहीं होगा। शरीर के अन्दर के अंगों का व्यायाम सहज रूप से तो योग से ही होगा। प्राणायाम से फेफड़े, लीवर, किडनी, हृदय और दिमाग सभी का व्यायाम हो जाता है। योग में अंग प्रत्यंग का व्यायाम सहज रूप से होता है।
प्रधानमंत्री मोदी ने तीन साल पहले अमेरिका की संसद में ठीक ही कहा था हम योग ज्ञान का बौद्धिक सम्पदा मूल्य नहीं मांगेंगे या इसका पेटेन्ट नहीं कराएंगे। भारतीय ऋषियों ने दुनिया को बहुत बौद्धिक सम्पदा दी है कभी उस पर अपना हक नहीं जताया, पेटेन्ट नहीं कराया, बेचा नहीं।
हमें योग को विज्ञान के रूप में स्वीकार करना चाहिए धर्म के रूप में नहीं। ओंकार की ध्वनि तरंगें यदि मन मस्तिष्क को स्वस्थ करती हैं तो इसे सोनिक थिरैपी के रूप में लेना चाहिए। स्वीकार कीजिए या न कीजिए, मर्जी आप की। इतना जरूर है कि यह विधा जो बिना दवाई और बिना खर्चा के शरीर और मन को निरोग करती है, किसी के भगवान के विरुद्ध नहीं हो सकती, है भी नहीं।
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