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तीन तलाक़ के बहाने साध रहे कई निशाने 

supreme court

मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक से निजात दिलाने को लेकर चल रही समूची बौद्धिक और दार्शनिक बहस सर्वोच्च न्यायालय की सुनवाइयों या आम टीवी चैनलों में चलने वाली बहस में जितनी जटिल दिख रही है, हकीकत में उससे कहीं अधिक जटिल है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि मुख्यधारा के सभी राजनैतिक दलों ने इससे दूरी बनाए रखी है।

वे सभी एक तरफ हैं। भाजपा जैसे दल जहां इसे सामाजिक सुधार और सात दशकों के तुष्टीकरण के अंत के रूप में प्रचारित कर रहे हैं वहीं अन्य, मुस्लिम महिलाओं को समान अधिकार मिलने ही चाहिए का आडंबरपूर्ण राग अलाप रहे हैं। मुख्यधारा में कोई इससे असहमति जताने की हिम्मत नहीं रखता। वे ऐसा कर ही नहीं सकते।

यह अतिरंजना या अतिसामान्यीकरण या दोनों है। लेकिन तीन तलाक का मसला अब पाकिस्तान, कश्मीर या भ्रष्टाचार जैसा हो गया है। इस पर बनी सहमति का विरोध नहीं कर सकते। आप इसे गढ़ा हुआ, चालाकी से बनाया हुआ या अनिवार्य कह सकते हैं लेकिन यही आज की राजनीति का सच है।

कपिल सिब्बल जब भी मामले की पैरवी करते हैं तो कांग्रेसी नेताओं की हिचकिचाहट गौर लायक होती है। वाम समेत मुख्यधारा के तमाम उदार लोग पीछे हट चुके हैं। केवल अति उदार लोगों का एक छोटा सा समूह बचा है जो इसका विरोध कर रहा है या सवाल खड़े कर रहा है। लेकिन वे भी इस परंपरा को बरकरार रखने का बचाव नहीं कर सकते। वे केवल भाजपा पर तंज कस सकते हैं कि उसकी प्राथमिकता गलत है।

भाजपा या आरएसएस को इससे कोई मतलब नहीं है। वे हाल के दिनों की अपनी सबसे बड़ी विचारधारात्मक और दार्शनिक जीत का आनंद ले रहे हैं। विपक्ष डरा हुआ है कि कोई गलत कदम न उठ जाए। उसे 17 करोड़ अल्पसंख्यकों की चिंता है जिन्होंने हमेशा भाजपा के खिलाफ मतदान किया है।

सर्वोच्च न्यायालय जो भी निर्णय दे, तीन तलाक का मुद्दा हिंदू दक्षिणपंथ की जीत है। आरएसएस के लोग नरेंद्र मोदी और अमित शाह को सर्वोच्च दर्जा देते हैं। बतौर प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को लेकर उनका नजरिया संदेह से लेकर अवमानना तक का रहा क्योंकि समावेशन के प्रति उनकी प्रतिबद्धता नेहरूवादी थी।

वह सबको साथ लेकर चलते थे, किसी सामाजिक समूह से छेड़छाड़ नहीं चाहते थे। वह मानते थे कि बदलाव धीरे-धीरे आएगा। वह विचारधारा और वोट की राजनीति को शासन से अलग रखने के हिमायती थे। यही वजह है कि आरएसएस और हिंदू दक्षिणपंथियों ने उनकी सरकार को विशुद्ध भाजपाई सरकार नहीं माना। सच्ची भाजपाई सरकार वह है जो मोदी और शाह चला रहे हैं।

हिंदू दक्षिणपंथ में मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार करने को लेकर एक किस्म की दीवानगी का माहौल है। खासतौर पर विवाह और तलाक के मुद्दे। इसके मूल में छह दशक पुरानी घटनाएं हैं। नेहरू की लोकप्रियता उस वक्त चरम पर थी। उन्होंने हिंदू कोड बिल को अत्यंत जल्दी पारित कराया। यह स्वतंत्र भारत में अपने वक्त का सबसे दूरगामी असर वाला सामाजिक सुधार था जिस पर खूब राजनीति हुई थी। इस कानून ने हिंदू समाज की बड़ी बुराइयों को दूर किया। इसकी बदौलत महिलाओं को परिवार के भीतर संवैधानिक समानता मिली। समय बीतने के साथ इसका लाभ बहुसंख्यक समुदाय को मिला। तलाक, उत्तराधिकार, गोद लेने, विधवा पुनर्विवाह, एकल विवाह आदि को लेकर बेहतर कानून बने। हिंदुओं ने इसे मोटे तौर पर स्वीकार कर लिया। सन 1960 के दशक में यह बड़ा राजनीतिक मुद्दा था।

अगर आप उस वक्त बहस को पढ़ें तो कांग्रेस के भीतर रूढि़वादियों ने इसका जमकर विरोध किया। लेकिन नेहरूवादी धर्मनिरपेक्षता के दौर में उनकी आवाज नाकाफी साबित हुई। वे पराजित हो गए। समय बीतने के साथ ही रूढि़वादियों की पारंपरिक व्यवस्था दोबारा लागू करने की मांग धूमिल पड़ गई। लेकिन एक दलील बाकी रही: अगर हिंदू कोड बिल ‘अमृत’ है तो मुस्लिमों को इससे वंचित क्यों रखा जा रहा है?

अगर यह ‘विष’ है तो इसे केवल हिंदुओं को क्यों दिया जा रहा है? यह उस पंक्ति का हूबहू अनुवाद है जो मैंने अपनी पहली चुनावी रैली (जनसंघ) में सुनी थी। तब मैं छह वर्ष का था और स्कूल से भागकर रैली में गया था। समय बीतता गया और इससे जुड़ी आशंकाओं का आकार बढ़ता गया। मुस्लिमों को एक से अधिक पत्नियां रखने का अधिकार है, वे ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं जबकि हम हिंदू गर्भ निरोधक इस्तेमाल करते हैं।

पाकिस्तान के साथ भी रिश्ते खराब चल रहे थे। वाजपेयी-आडवाणी के उलट मोदी और शाह की भाजपा इन राजनीतिक लाभों को भुनाने को लेकर प्रसन्न थी। ‘श्मशान और कब्रिस्तान’ वाला बयान इसी नीति का तगड़ा रूपक था। यह उनकी राजनीतिक समझ का नमूना है कि अब उन्होंने इस्लाम को लेकर भय को एक उदार सामाजिक सुधार (मुस्लिम महिलाओं के अधिकार) से जुड़ी सहमति में बदल दिया है।

अगर एक धर्मनिरपेक्ष संसद हिंदुओं में बहुविवाह को रोकने का कानून बना सकती है तो वह बच्चियों के खतने को भारतीय दंड संहिता के अधीन अपराध क्यों नहीं घोषित कर सकती? या इसे हत्या का प्रयास क्यों नहीं माना जा सकता? नेहरू ने ऐसा क्यों नहीं किया इस पर काफी विश्लेषण हो चुका है। उनके आलोचक कहेंगे कि उन्होंने वोट बैंक राजनीति की आधारशिला रखी, हिंदुओं और ‘तुष्टीकरण’ करके मुस्लिमों को अलग रखा। उनके प्रशंषक कहेंगे कि ऐसा विभाजन से उपजे अपराधबोध और आदर्शवाद की वजह से था। अगर उन्होंने मुस्लिमों के पर्सनल लॉ में बदलाव कराए होते तो पाकिस्तान जाने वालों की तादाद बढ़ जाती।

संप्रग सरकार इसे नए स्तर पर ले गई। उसने आतंकवाद निरोधक अधिनियम पोटा को समाप्त कर दिया क्योंकि इसे मुस्लिम विरोधी माना जा रहा था। उसने बटला हाउस मुठभेड़ जैसे अपने ही आतंकविरोधी अभियानों को संदेह के घेरे में ला दिया। वह अपने उन नेताओं को नियंत्रित करने में नाकाम रही जिन्होंने ऐसी मूर्खतापूर्ण बात तक कह दी कि 26/11 का हमला आरएसएस का षड्यंत्र था। नेहरू की धर्मनिरपेक्षता में एक नैतिक आधार था, वह तमाम धार्मिक उपक्रमों से दूर रहते थे। इसे उनके उत्तराधिकारियों ने गंवा दिया।

उनकी पार्टी ने सन 1985 में धर्मनिरपेक्षता को विशुद्ध राजनीति में तब्दील कर दिया। इससे पहले इसी स्तंभ में लिखे एक आलेख में हमने देखा था कि कैसे जिन्ना के बाद भारतीय मुस्लिमों ने कभी किसी मुस्लिम को अपना नेता नहीं माना। उन्होंने धर्मनिरपेक्ष हिंदू नेताओं पर भरोसा जताया। इन नेताओं ने उन्हें, उनके वोट को और यहां तक कि उनके जीवन को भी हल्के में लेना शुरू कर दिया। सख्त विश्लेषण ही बताएगा कि मोदी और शाह ने उक्त राजनीतिक समीकरण को दफन किया है या उसे श्मशान में जलाया है। यह चयन आप कीजिए।

(लेखक अंतराष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं यह उनके निजी विचार हैं।)

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