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म्यांमार रोहिंग्या संकट – क्या होनी चाहिए भारत की विदेशनीति

India

हेमंत पांडेय

म्यांमार में सरकार की हिंसक कारवाई का विरोध करने वाले सोशल मीडिया का सहारा ले रहे हैं उनके द्वारा साझा की जा रही हिंसक तस्वीरों में बर्मा सरकार और रोहिंग्या नेशनल आर्मी की लड़ाई सामने आई हैं। इस झगड़े में रोहिंग्या और बुद्ध के शांतिप्रिय पक्ष से कहीं ज्यादा खौफनाक है वहां का जमीनी मंजर। इस लड़ाई का एक पक्ष अलगाववादी हैं, जिनकी अहम् वजह है बर्मा के नागरिकता कानून में अल्पसंख्यक दर्जा न मिलना। दूसरा पक्ष है रोहिंग्या तंजीम की पोलिटिकल एकजुटता में लगी मजलिसें जिनके मुखिया हैं नुरुल इस्लाम| रोहिंग्या सॉलिडेरिटी आर्गेनाईजेशन का फिलहाल का दफ्तर ब्रिटेन में है।

रोहिंग्या का मसला हिंसक कैसे हो गया ये अहम् सवाल जरूर है लेकिन आज इन हिंसक आंदोलनों पर कौमी दहशतगर्दों के साए की भी खबरें हैं। यही हिन्दुस्तानी हुकूमत के लिए सबसे बड़ी चिंता की बात है। रोहिंग्या मुसलमानों की मजलूम आबादी बर्मा के अरकान इलाके से लेकर बांग्लादेश के कॉक्स बाजार तक बसी है। इस आबादी में पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान की लड़ाकू तंजीमों के साथ-साथ अल-कायदा, जमात-ए-इस्लामी हिजबुल मुजाहिदीन सरीखे संगठनों की भी दखल के दावे एक अरसे से किये जा रहे है। बताते हैं कि इसी दखल के चलते रोहिंग्या नेशनल आर्मी जैसे हथियारबंद संगठन अस्तित्व में आया, जिनकी मांग अराकान इलाके की आज़ादी है जो कि म्यांमार और बांग्लादेश के बीच एक अहम् हिस्सा है।

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लेकिन ये बात महज इतनी भर नहीं, रोहिंग्या नेशनल आर्मी और म्यांमार सरकार के बाच सीधे संघर्ष में ब्रिटेन में बने हथियार मिलें तो जरूर यह इतिहास से जुडी बात हो जाती है, क्योंकि बर्मा और हिंदुस्तान ने अंग्रेजी हुकूमत को साझे में भुगता है, हालाँकि कुछ खोजी पत्रकारों ने हथियारों के चीनी होने के भी दावे किये हैं| हथियार चीन से आयें या फिर ब्रिटेन से लेकिन भारत के उत्तर पूर्व के सीमावर्ती क्षेत्रों में हथियारों के सौदागरों में दो नाम सबसे अहम् हैं। पहला नाम है, बांग्लादेश के बिजनेस टाइकून प्रिंस मूसा बिन शमशेर का जिनका भाग्य जागा दुबई में मजदूरों की सप्लाई करके। दूसरे हैं दुबई के जाने माने दलाल मरहूम अदनान खाशोग्गी जिनका हाल ही में इंतकाल हुआ है। आप दोनों लोग आपस में दोस्त बताये जाते हैं। इन दो संगठनों को अन्तराष्ट्रीय मीडिया से भी खासा समर्थन मिला है, लेकिन मानवता को बेचैन करती इन तस्वीरों के पीछे की असलियत क्या है और हिंदुस्तान के लिए यह सवाल म्यांमार के साथ साथ विश्व शांति के लिए बड़ा ही अहम् साबित हुआ है।

ऐसे हालातों में दलाई लामा का यह बयान भारत और बर्मा दोनों के लिए सबक हो सकता है कि “अगर आज बुद्ध होते तो रोहिंग्या मुसलामानों की मदद करते”। लेकिन बर्मा की अहमियत महज इतनी नहीं कि वहां से रोहिंग्या मुसलमान अवैध रूप से भारत आ कर बसना चाह रहे हैं| आम हिन्दुस्तानी के लिए म्यांमार के रोहिंग्या मुसलमानों का आव्रजन की क्या अहमियत है इसका अंदाज़ा मिले जुले विरोध और समर्थन से लगाया जा सकता है, लेकिन जैसा बयान हिन्दुस्तानी सरकार के हुक्मरान खास कर गृह राज्य मंत्री किरेन रिजीजू ने दिया है वह अन्तराष्ट्रीय स्तर पर नकारात्मक छवि प्रस्तुत करता है| कानूनी तौर पर मोदीजी इस देश के नायक हैं, हिन्दू के भी और मुसलमान के भी। जब वे बहादुर शाह ज़फर की मजार पर फूल चढाते हैं तो देश की आवाम कुछ यही सोचती है कि रोहिंग्या मुसलमानों के मामले में भारत और म्यांमार के सम्बन्ध बेहतर करने का अवसर है।

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अंग्रेजी हुकूमत के दौरान

बर्मा यानि म्यांमार के हिंदुस्तान के साथ महज बुद्ध का ही रिश्ता नहीं, आवाम के सुख-दुःख में भी दोनों देशों के तमाम साझे अनुभव हैं| अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लड़ाई में भी दोनों देशों की अनकही साझेदारी रही। 1857 के बाद पूरे हिंदुस्तान के आखिरी बादशाह और उसके बेटे की कब्रगाह बर्मा में ही बनी। तब हिंदुस्तान के आखिरी मुग़ल बादशाह की यादगार इतनी विस्मृत भी नहीं हुई थी। अट्ठारह सौ सत्तावन की पचासवीं सालगिरह के मद्देनजर जब अंग्रेजों ने 1907 में अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति की गंध महसूस की, तो भूमि अधिग्रहण के खिलाफ आवाम के हिन्दुओं, सिखों और मुसलामानों को जोड़कर विरोध कर रहे लाला लाजपत राय को एक काले कानून में मांडले जेल भेज दिया। उनके साथ सरदार भगत सिंह के पिता सरदार अजीत सिंह से भी मांडले जेल यात्रा की।

बर्मा की यात्रा करने के बाद हुए अनुभवों में शेर-ए-पंजाब लाला लाजपत राय ने लिखा हैं कि अंग्रेजी हुकूमत ने 1875 से 1903 के बीच बर्मा और बलूचिस्तान पर एक साथ कब्ज़ा किया और साम्राज्य में जोड़ दिया लेकिन साम्राज्य की भूख सिर्फ इतनी ही नहीं थी।

लालाजी के अलावा गांधी के पहले के गाँधीनुमा दूसरे तमाम महापुरुषों ने भी बर्मा की यात्रा की| तत्कालीन बर्मा में बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और गाँधी के समकक्ष सुभाष चन्द्र बोस की मेजबान रही मांडले जेल। बर्मा के मामले में गाँधी का निष्कर्ष बहुत अहम है। बर्मा की यात्रा करने के बाद गाँधी ने कहा कि मांडले हमारे लिए तीर्थ जैसा है और भारत का स्वराज यहीं पर ईजाद हुआ। तत्कालीन बर्मा के लिए गाँधी के इस स्नेहसिक्त भाव की वजह भी वाजिब थी। इतना ही नहीं बर्मा के लिए गाँधी ने कहा कि भारतीयों और बर्मीज़ लोगों को संदेह और अविश्वास की बजाए दोस्ती और भलाई की भावना से व्यवहार करना चाहिए।

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बर्मा के मामले में गाँधी का निष्कर्ष बहुत अहम है। बर्मा की यात्रा करने के बाद गाँधी ने कहा कि मांडले हमारे लिए तीर्थ जैसा है और भारत का स्वराज यहीं पर ईजाद हुआ।

जवाहर लाल नेहरु ने देश का प्रधानमंत्री होने के पूर्व बर्मा की यात्रा की जहाँ उनको बर्मीज लोगों और खासकर युवाओं से सीधे मशविरा करना रास आया। नेहरु का यह दौरा तब हुआ जब बर्मा ब्रिटिश इंडिया के उपनिवेश से अलग किया गया। वहां का दौरा नेहरु लोकप्रियता की एक नयी मिसाल बना। बर्मीज महिलाओं ने तो नेहरु का स्वागत फूलों से किया।

ये महज इत्तेफाक हो सकता है लेकिन इसकी रणनीतिक वजह भी साफ़ है, द्वितीय विश्व युद्ध में जब जापान ने बर्मा पर कब्ज़ा किया तो नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने अंतरिम भारत सरकार और इण्डियन नेशनल आर्मी का मुख्यालय सिंगापूर से रंगून पहुंचाया| ऐसा करने से ही नेताजी इंडियन नेशनल आर्मी के लिए बर्मा से भर्तियाँ भी कर सके| हिन्दुस्तानी प्रवासियों के साथ साथ स्थानीय समुदाय ने आर्थिक सहायता देकर आजाद हिन्द फौज को मजबूत किया| नेताजी ने जापान की मदद से ब्रिटिश सेना के खिलाफ लड़ाई में कुछ हिस्से भी जीते| हिंदुस्तान को बर्मा का कृतज्ञ जरुर होना चाहिए क्योंकि बर्मा की सरजमीं से हिंदुस्तान की आज़ादी की लड़ाई परवान चढ़ी|

आजाद हिन्द फौज के हारने के बाद नेताजी ने बर्मा की सरजमीं भले ही छोड़ दी हो लेकिन बर्मा के राष्ट्रपिता ऑंग सान के लिए उनका सम्मान कम नहीं हुआ। उन्हें बर्मा और वहां के राष्ट्रपिता ऑंग सान का अगाध प्रेम हासिल हुआ। भारत बर्मा संबंधों पर इण्डिया-म्यांमार रिलेशन चेंजिंग कंटूर्स में राजीव भाटिया लिखते हैं कि “बर्मा के राष्ट्रपिता ऑंग सान ने रंगून के सिटी हॉल में सुभाष चन्द्र बोस के बड़े भाई शरत चन्द्र बोस के साथ मंच साझा करते हुए कहा कि सुभाष चन्द्र बोस बर्मा और बर्मीज लोगों के सच्चे मित्र थे, हमारे बीच मजबूत आपसी भरोसा था”। इतना ही नहीं बर्मा के राष्ट्रपिता ऑंग सान ने यह भी कहा कि दोनों देश महज पडोसी ही नहीं बल्कि भाईचारे के रिश्ते से जुड़ने चाहिए।

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भले ही इंडियन नेशनल आर्मी और बर्मीज नेशनल आर्मी ने अंग्रेजी हुकूमत के बीच साझी लड़ाई न लड़ी हो लेकिन इस बात का आपसी भरोसा जरुर बना रहा कि दोनों सेनाएं आपस में नहीं लड़ेंगी| यह बहुत बड़ी बात है कि किसी देश की सरजमीं का इस्तेमाल किया जाए और वह इतने दोस्ताना सम्बन्ध जारी रख सके| आज अमेरिका भी यही करता है, जापान के मामले में ऐसा प्रयोग अमेरिका ने भी किया, लेकिन एकध्रुवीय विश्व में इसे अमेरिका की दादागिरी के तौर पर ही देखा जाता है।

अंग्रेजी जूते का सवाल

ऐसा नहीं कि अंग्रेजी हुकूमत से भारत और बर्मा के आपसी रिश्तों पर फर्क नहीं पड़ा, बर्मा के राष्ट्रवाद का उदय एक अहम् पड़ाव है जहाँ से गुलाम बर्मा और आजाद बर्मा के बीच फर्क किया जा सकता है। बर्मा की राजशाही के पतन के बाद देश में लम्बे समय तक शांति बहाल रही और यह देश भूराजनैतिक परिदृश्य में निष्क्रिय कहा जा सकता है। लेकिन सुधारवादी शिक्षित लोगों की पहल पर जब यंग बर्मीज बुद्धिस्ट एसोसिएशन बनी तो लोगों ने बहुत से सामाजिक पहलुओं को बारीकी से समझना शुरू किया। इसमें से एक था जूते का सवाल।

जब अंग्रेजी हुक्मरान बर्मा पर काबिज हुए तो वहां सांस्कृतिक और नैतिक पतन का एक दौर शुरू हुआ। यंग बर्मीज बुद्धिस्ट एसोसिएशन बनी तो धार्मिक और सामाजिक सुधार शुरू हुआ| जब लोगों ने ऐसा देखा कि अंग्रेजी हुक्मरान बर्मी लोगों के पैगोडा में जूते पहन कर चले जाते हैं तो यह उन्हें नागवार गुजरा| बर्मा के लोगों खास कर बौद्ध धर्म के मानने वालों के लिए यह उनकी धार्मिक आस्था को आहत करने वाला कृत्य माना, और यहीं से जूते का सवाल खड़ा हुआ। जानकार लोग इस घटना को बर्मा के राष्ट्रवाद में अहम बिंदु बताते हैं और इस घटना को धार्मिक राष्ट्रवाद के उदय से जोड़कर भी देखते हैं| इसी धार्मिक राष्ट्रवाद में दूसरे मजहब की अवाम को दरकिनार करने के आरोप रोहिंग्या मुसलमानों के मामले में भी लग रहे हैं|

जाहिर है कि बर्मा के राष्ट्रवाद के उदय में भारतीय नेतृत्व की भूमिका सीमित नहीं रही| जिस तरह प्लासी की लड़ाई बिना लड़े महज कूटनीति से बंगाल पर कब्ज़ा कर लिया वैसा बर्मा के साथ नहीं हुआ| बर्मा पर कब्ज़ा करने के लिए कंपनी को नाकों चने चबाने पड़े। 1826 में यांदबो की संधि के साथ ख़त्म हुए पहले बर्मा युद्ध को कंपनी का सबसे खर्चीला युद्ध माना जाता है| बर्मा पर ब्रिटिश हुकूमत का कब्ज़ा बनाने में पंद्रह हजार से ज्यादा भारतीय सैनिकों की जान गयी| इसके बाद ही बर्मा हिंदुस्तान की अंग्रेजी हुकूमत का उपनिवेश और स्कॉटिश कंपनी की जागीर बना।

द्वितीय विश्व युद्ध में जब जापान ने बर्मा पर कब्ज़ा किया तो नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने अंतरिम भारत सरकार और इण्डियन नेशनल आर्मी का मुख्यालय सिंगापूर से रंगून पहुंचाया। ऐसा करने से ही नेताजी इंडियन नेशनल आर्मी के लिए बर्मा से भर्तियाँ भी कर सके।

आजाद होने के बाद बर्मा के नायकों ने सावधानी से अंग्रेज और अंग्रेजियत से बहुत सावधानी बारती| राष्ट्रपिता आंग सान की बेटी और नोबेल पुरस्कार विजेता आंग सान सू की को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार महज इसलिए नहीं बनने दिया क्योंकि उनके पति और बेटे अंग्रेजी मूल के हैं| इसी बात से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि म्यांमार के लिए अंग्रेज और अंग्रेजियत के क्या मायने हैं।

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म्यांमार की संप्रभुता का सवाल

अगर बर्मा के लिहाज से देखा जाए तो रोहिंग्या नेशनल आर्मी की हथियारबंद लड़ाई एक देश की संप्रभुता के लिए खतरा तो है ही| ऐसे में दूसरे तमाम पहलुओं की पड़ताल जरूरी हो जाती है।मीडिया सूत्रों की मानें तो आंग सांन सू की के विचार भी रोहिंग्या मुसलामानों के लिए विरोधाभासी ही रहे हैं, यह उनके धार्मिक रूढ़िवाद से भी जोड़कर देखा जा रहा है। सू की के बयानों के मद्देनजर सोशल मीडिया पर दिए गए एक वक्तव्य में राज्बल्लभ आगे लिखते हैं कि म्यांमार से कई दशक पूर्व भारतीयों को बाहर निकाल दिया गया था। तब कोई दस हजार तमिल सीमा पार करके मणिपुर के मोरे में बस गए थे। आज भी मोरे में लघु तमिलनाडु की झांकी देखी जा सकती है।

समग्रता की राजनीति के पुरोधा राज्बल्लभ के अनुसार किसी देश के स्थायित्व का आधार धर्म हो सकता है, इसे इतिहास खारिज कर चुका है। मुसलमान देशों की आपसी मारकाट सामने है। ईसाई देशों की भी आपस में कम मारकाट नहीं, बौद्ध जापान द्वारा बौद्ध चीन और बौद्ध कोरिया पर आक्रमण और कब्जे को कैसे भूला जा सकता है। आज भी हिदू बहुल भारत और नेपाल के बीच संबंध बहुत सहज नहीं है।

अतः व्यापक समुदायों के बीच आपसी बर्ताव का आधार मानवता ही हो सकती है। इसलिए बेहतर है कि हम सत्य, दया, करुणा, सहिष्णुता आदि मानवीय गुणों का पक्ष लें जो सभी धर्मों के सबसे अनुकरणीय पक्ष हैं। किसी भी धर्म के नाम पर अत्याचार-अनाचार का समर्थन सही नहीं है।

हालाँकि भारत सरकार के रुख के तरफदार वरिष्ठ समाजवादी अटल बिहारी शर्मा कहते हैं कि संयोग कहें दुर्योग कहें। दुनिया में बौद्ध और सनातनधर्म के मानने वालों को राजनैतिक संरक्षण देने वाले बहुत कम देश हैं। जुल्म के खिलाफ मन मे गुस्सा और जिन पर जुल्म हुआ है उनके प्रति हमदर्दी और संवेदना होनी ही चाहिए।

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परंतु रोहियांग मुस्लिमों की समस्या काफी जटिल है। पहले उसे समझने के प्रयास होने चाहिये। इस्लामिक देशों का संगठन और अनेक इस्लामिक आतंकवादी संगठन अरकान में सक्रिय इस्लामिक आतंकवादी संगठनों को दशकों से समर्थन कर रहे हैं। प्राकृतिक खनिजों से सम्पन्न इस भूमि पर बहुराष्ट्रीय निगमों की गिध्द दृष्टि है। उनके पोषित तथाकथित मानवाधिकार संगठन और पश्चिमी देशों के हितों का मीडिया झूठी सच्ची खबरें दे रहे हैं। मीडिया में रोहियांग मुस्लिमों पर जुल्म की झूठी सच्ची फोटो फैलाई जा रही हैं। भारत के संवेदनशील मानवाधिकार कार्यकर्ता बिना सच्चाई जाने द्रवित हो टिप्पणियां कर रहे हैं।

हिंदुस्तान को बर्मा का कृतज्ञ जरूर होना चाहिए क्योंकि बर्मा की सरजमीं से हिंदुस्तान की आज़ादी की लड़ाई परवान चढ़ी

हालाँकि नेपाल, भूटान, तिब्बत, श्रीलंका और बांग्लादेश के तमाम नागरिक हमारे भारत देश में रहते हैं लेकिन ये मामला नागरिकता का भी है और शरणार्थियों के मानवाधिकारों का भी| ऐसे में बातचीत से हल निकालने के लिए भी हिन्दुस्तानी हुक्मरानों को थोड़ी ज्यादा होशियारी दिखानी होगी। “अगर पडोसी के घर में झगड़ा हो और उसके बीवी बच्चे घर-बार छोड़ के आपके घर आ जाएँ तो क्या करेंगे”? पडोसी के यहाँ सुलह समझौता करवाएंगे या अपने घर में बसा लेंगे? कुछ ऐसा ही है रोहिंग्या मुसलमानों का मामला”।

कहने के साथ समग्रता की राजनीति के अध्येता राकेश मिश्र म्यांमार के आतंरिक मामलों में सहयोग पर जोर देते हैं। साथ ही कहते हैं कि, “चुनौतियाँ मुकाबले के लिए ही होती हैं, न कि राजनैतिक रोटियां सेंकने के लिए| गाजे बाजे के साथ राष्ट्रवाद का तमाशा और मुसलमान की खिलाफत का कोई अर्थ नहीं| नेता लोगों को यह मामला महज वोट बैंक के ध्रुवीकरण का अवसर भर लगेगा तो मामला और जटिल हो जायेगा”।

ऐसे में राजबल्लभ यह कहकर नीतिगत सक्षमता की जरूरत को रेखांकित करते हैं कि इस प्रसंग में देश की कोई स्पष्ट नीति होनी चाहिए न कि हिंदू शरणार्थियों के मामले में अलग नीति और मुसलमान शरणार्थियों के लिए अलग नीति। श्रीलंका मंे तनाव के समय देश में जितने श्रीलंकाई तमिल शरणार्थी भारत आए थे, उतनी तो रोहिंग्या मुसलमानों की कुल जनसंख्या भी नहीं है। तब देश में किसी ने कोई विरोध नहीं किया क्योंकि मामला हिदुंओं का था। उस समय भी तमिलों पर श्रीलंका के लगभग वही आरोप थे जो म्यांमार सरकार के रोहिंग्या समुदाय पर हैं। म्यांमार सरकार जिस तरह से रोहिंग्या समुदाय के लोगों को नागरिकता से वंचित कर रही है उसमे समीक्षा की जा सकती है लेकिन इसके लिए आवाम के बीच आपसी भरोसा बहाल करना होगा।

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अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेक देश म्यांमार पर मानवाधिकारों के लिए दबाव बना रहे हैं इस लिहाज से भारत को भी अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर अपनी महत्वपूर्ण भूमिका को समझना होगा। आज पूर्वांचल के राज्यों में चकमा शरणार्थियों को नागरिकता देने के खिलाफ विरोध हो रहा है लेकिन सरकार के फैसले से ठोस नतीजे आने तक पैनी नजर रखनी होगी। यही दरकार रोहिंग्या मामले का भी है अन्यथा इस मामले में भी सांप्रदायिकता को ही बल मिलेगा। सवा अरब आबादी वाले देश से कुछ हजार रोहिंग्या शरणार्थियों के बाहर चले जाने से देश की सेहत पर क्या असर होगा यह दूर की बात है लेकिन अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर देश को प्रमुख भूमिका निभाने की जरुरत है, शरणार्थियों के मामले में अन्तराष्ट्रीय कानूनों की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए।

सच बात तो यह भी है कि विभिन्न समुदायों का एक छोटा हिस्सा ही मिलिटेंट होता है। ऐसे में अधिकांश लोग तो दो पाटों के बीच पिसने वाले होते हैं। वे डरकर ही कहीं दूसरी जगह शरण लेने की कोशिश करते हैं। उनमें कोई आतंकी भी शामिल हो सकता है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन पूरे समुदाय को आतंकी नहीं कहा जा सकता।

सरकार के लिए श्रीलंकाई तमिलों का मामला भी एक दीगर नजीर है। श्रीलंका में दशकों तक चले संघर्ष में लिट्टे की गतिविधियां किसी भी दूसरे आतंकी समूह के समकक्ष थीं। लेकिन वहां से लाखों तमिलों के भारत में आश्रय लेने पर न राज्य सरकार ने विरोध किया न केंद्र सरकार ने। क्या इसीलिए कि शरणार्थी तमिल थे, हिंदू थे? या मानवीय दृष्टिकोण को ध्यान में रखा गया? अगर मानवीय दृष्टिकोण अथवा अन्तराष्ट्रीय कानूनों का ख्याल रखा गया था तो वैसा दृष्टिकोण रोहिंग्या शरणार्थियों के लिए भी दिखाया जाना चाहिए।

नेपाल की आंतरिक राजनीति पर गौर करना भी समयोचित होगा। नेपाल लंबे अरसे तक हिंदू राष्ट्र रहा लेकिन वहां मैदानी क्षेत्रों में रहने वाले मधेशिया दोयम दर्जे के नागरिक माने गए और उन्हें उचित राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया। यहां तक कि जनसंख्या में असंतुलन लाने के लिए पहाड़ी लोगों को मैदानी क्षेत्रों में भी बसाया गया। राजतंत्र के अंत के बाद बने संविधान में भी यह दोनो प्रकार के निवासियों के बीच असमानता काफी हद तक बरकरार रखी गई। इसके विरोध में मधेशिया लोगों का काफी लंबा आंदोलन चला जिसके बारे में वहां की सरकार ने भारत पर अपनी नाकेबंदी करने का आरोप लगाया और दोनो देशों के आपसी संबंध में तनाव आया। यह समस्या अभी भी पूरी तरह दूर नहीं हुई है। उल्लेखनीय है कि नेपाल के पहाड़ी और मधेशिया, दोनो ही समुदाय हिंदू मतावलंबी हैं।

इस आलोक में वर्मा की समस्या को देखें तो वहां के शासक वर्ग की नीयत स्पष्ट हो जाएगी। हां, मधेशिया और रोहिंग्या के बीच एक अंतर है कि मधेशिया हिंदू हैं और रोहिंग्या मुसलमान। ऐसे में भारत सरकार के व्यवहार में किसी भी तरह का फर्क देश के भीतर साम्प्रदायिकता के आरोपों को बल देगा।

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फिलहाल म्यांमार स्थित मुग़ल बादशाह बहादुर शाह जफ़र की मजार पर जाकर भारतीय प्रधानमंत्री ने पार्टी नेताओं और पूरी आवाम के लिए एक बड़ी नजीर पेश की है। ऐसे में हिन्दुस्तानी हुक्मरानों को मोदी जी की नेकनीयती की कद्र करनी चाहिए। यहाँ भारत की भूमिका इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि म्यांमार की लोकतान्त्रिक सरकार में भी भारत ने पहले भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की कोशिश की है। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने म्यांमार की लोकतान्त्रिक सरकार को समर्थन देना मंजूर किया। आज रोहिंग्या मुसलमानों के मामले में मोदीजी से भी वैसा ही और बेहतर नतीजा निकालने की उम्मीद की जा रही है। उम्मीद करते हैं कि मजलूमों से जुड़ा यह संवेदनशील मामला जल्द ही किसी सार्थक मुकाम पर पहुंचेगा।

लेखक- ग्रेट गेम इंडिया से जुड़े हैं और ये उनके निजी विचार हैं।

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