अब पहले की तरह आम बजट सरकार की आर्थिक दिशा बताने वाला दस्तावेज नहीं रहा। नोटबंदी और जीएसटी के बारे में ज्यादा कुछ नया कहने को है नहीं। सरकारें बदलने के साथ ही बजट की राजनीति बदलती है परन्तु कोई आर्थिक राष्ट्रनीति नहीं बन पाई है। अब अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के बजाय अल्पसंख्यक सशक्तीकरण होगा यह कोई अर्थनीति नहीं है। यह वैसा ही है जैसे देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का है। जब तब अलग से अल्पसंख्यकों का सशक्तीकरण होगा तब तक इसे तुष्टीकरण ही कहा जाएगा।
जवाहर लाल नेहरू के जमाने में हमारी सरकार न तो अमेरिका की पूंजीवादी ढांचा पर चलती थी और न सोवियत रूस के समाजवादी व्यवस्था पर। तब बजट भी न इधर का था और न उधर का। आयकर सीमा 90 प्रतिशत से भी अधिक थी, जिससे कर चोरी और काले धन का जन्म हुआ। मौजूदा कर प्रणाली में एक वकील, इंजीनियर, डाक्टर, सोने-चांदी का व्यापारी, पुलिस अधिकारी, एमपी, एमएलए या मंत्री करोड़ों रुपए की आमदनी खेती से दिखाते हैं और किसान आत्महत्या करता है इसमें कुछ तो गड़बड़ है।
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इसी प्रकार की व्यवस्था डेरी, पोल्ट्री, हार्टीकल्चर और मछली पालन में है। इन व्यवसायों में भी धनी लोगों का लाभ है। बिहार प्रदेश के नेता लालू यादव ने बहुत पहले अपनी करोड़ों रुपए की आय को 40 गायों से हुई आमदनी बताया था। हरियाणा और हिमाचल के नेताओं ने अपनी अथाह सम्पदा को बगीचों की आमदनी बताकर टैक्स बचाया है। पैसा तो पैसा होता है चाहे नौकरी से आए अथवा व्यापार से या फिर खेती से। ना जाने किन कारणों से हमारे राजनेता कर-निर्धारण में भी सेकुलर यानी एक समान कानून नहीं लाना चाहते ।
बिहार प्रदेश के नेता लालू यादव ने बहुत पहले अपनी करोड़ों रुपए की आय को 40 गायों से हुई आमदनी बताया था। हरियाणा और हिमाचल के नेताओं ने अपनी अथाह सम्पदा को बगीचों की आमदनी बताकर टैक्स बचाया है।
यह ठीक है कि खेती और अन्य व्यवसायों की आमदनी पर टैक्स लगाने में कुछ प्रशासनिक कठिनाइयां होंगी जैसे आय-व्यय का आकलन और अनिश्चित मौसम के प्रभाव। यह कठिनाई तो दुकानदारों और अन्य व्यापारियों पर भी लागू हो सकती है परन्तु उनके मामले में टैक्स गणना के तरीके निकाले गए हैं। यह काम सरल हो सकता है यदि खेती आदि पर टैक्स वसूली की व्यवस्था प्रान्तों में आयकर विभाग बनाकर उनके हाथ में दे दी जाए, जिससे प्रान्तों को उनके विकास के लिए धन उपलब्ध होता रहेगा। आज वोट बैंक के जमाने में बजट में राजनीति तो हो रही है परन्तु बजट की राष्ट्रनीति नहीं है।
धन का आवंटन करते समय यदि उद्योग, खेती, शहर-गांव के हिसाब से बजट में आवंटन हो तो विकास को सेकुलर और वैज्ञानिक आधार मिल सकता है। विविध कामों के लिए धन का आवंटन करते समय यदि इस बात पर विचार हो कि किसानों के बच्चों को भी अच्छी शिक्षा मिल सके, किसानों को समय पर खाद, पानी, बिजली उचित दामों पर मिलती रहे, रोजगार के अवसर मिलें और उनके घर से सही दाम पर पैदावार उठा ली जाए तो किसानों के बैंक कर्जें माफ करने, उन्हें मुफ्त में बिजली देने, उनको खैरात बांटने की आवश्यकता नहीं होगी। हालत यह है कि शिक्षा में एकरूपता लाने के अदालती फैसले भी हमारी सरकारें लागू नहीं करवा पातीं और उस पर पांच प्रतिशत के करीब ही व्यय होता है ।
इसी प्रकार रेल बजट में रेलगाड़ी में बैठने के लिए देश की 70 प्रतिशत आबादी के लिए जगह की चिन्ता पहले होनी चाहिए। आपातकाल के बाद जनता पार्टी की सरकार में वर्ष 1977 में देश के रेलमंत्री प्रोफेसर मधु दंडवते हुए थे उन्होंने अपने समय में राष्ट्रनीति के तहत जितनी नई गाड़ियां चलवाईं सब जनता गाड़ियां थीं। उनके बाद के रेल मंत्रियों ने यह नीति छोड़ दी और अमीरों की सेवा में लग गए। बजट प्रावधान ऐसे हों कि उसमें आर्थिक योगदान तो यथाशक्ति हो परन्तु देश के धन का उपयोग सब के लिए हो। जीएसटी लागू होने से कुछ समानता तो आएगी लेकिन उसके बाद भी बहुत असमानताएं और विसंगतियां दूर करने से बचेंगी।
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बजट को सरकारी खजाना भरने की विधा न मानकर इसे देश की जरूरतों के हिसाब से आवश्यक पूंजी सृजन का साधन माना जाए। पिछले वर्षों में कर चोरी रोकने के कदम उठाए गए है लेकिन लोगों और संस्थाओं के पास सुप्तावस्था में पड़े धन को भी गतिमान करने की आवश्यकता है। करों के मामले में एक व्यवस्था है स्टैंडर्ड डिडक्शन की वह बन्द नहीं होनी चाहिए थी। अब तो बस इंतजार है वित्तमंत्री के प्रस्तावों का पिटारा खुलने का।
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